Post – 2020-01-14

इतिहास के खुले खेत में साँड़ (2)
परिचय

मिल एक साधारण परिवार में पैदा हुए थे। पिता मोची का काम करते थे। शिक्षा से उनका विशेष लगाव न था। मां शिक्षित और बहुत दूरदर्शी थीं। छोटी उम्र से ही उन्हें, अन्य विषयों की तरह लातिन और ग्रीक की भी शिक्षा आरंभ करा दी थी। वह बहुत कुशाग्र थे।

कुशाग्रता, प्रतिभा के अन्य रूपों की तरह, प्रकृति का वरदान है; शक्ति का एक रूप है और इसे नियंत्रित करने के लिए उतने ही प्रबल आत्मसंयम और विनम्रता की आवश्यकता होती है, जिसके अभाव में यह विजिगीषा (विजय की कामना) को भी जन्म देती है, और व्यक्ति जीत कर भी हार जाता है, क्योंकि विजय की आकांक्षा में वह तर्क और कुतर्क सबका सहारा लेकर विरोधी को ध्वस्त तो कर देता है, परंतु सदा न्याय के पक्ष में अडिग नहीं रह पाता। वह जो भी है, जैसा भी है, सही है। दूसरों को वही स्वीकार करना पड़ेगा, जिसे वह सही मानता है।

यह कमी जो दूसरे पक्ष के, दृष्टिकोण को समझने में बाधक ही नहीं बनती, अपने को, हर हालत में, किसी भी कीमत पर, सही सिद्ध करने की आदत का रूप ले लेती है। दूसरी लतों की तरह, यह भी एक व्याधि है। ऐसी उपलब्धि अस्थाई होती है, आतंक पैदा करने वाली होती है, पर खोखली होती है। संभवतः धार्मिकता के कारण नहीं, दूसरों को अपनी मान्यता का कायल करने की क्षमता में अतिविश्वास के कारण, मिल ने पहले धर्म प्रचारक होने की तैयारी की थी; उनकी तार्किकता ने उन्हें अनीश्वरवादी बना दिया। उनको समझने में दामोदर धर्मानंद कोसंबी हमारी मदद कर सकते हैं, क्योंकि मिजाज की अकड़ में, जबान के तीखेपन में, छिद्रान्वेषण में वह उनके निकट ही नहीं पड़ते, बल्कि उनके मुरीद भी लगते हैं।

कोसंबी को संभवतः मुहम्मद हबीब ने हिस्ट्री आफ ब्रिटिश इंडिया पढ़ने की सलाह दी, तो मिल उन्हें इतने पसंद आए कि वह अपने क्षेत्र को छोड़कर, इतिहास के मैदान में कूद पड़े और ठीक मिल के ही नमूने पर, उन्हीं की तरह, प्रत्यक्ष की उपेक्षा कर, मॉडल तलाशते हुए, भारतीय इतिहास का कल्याण कर दिया, और यही मार्क्सवादी इतिहास का मानक बन गया। मुहम्मद हबीब इस बात पर जोर देते थे कि प्रामाणिक इतिहास के लिए स्रोत भाषा का आधिकारिक ज्ञान जरूरी है, और मूल स्रोत की समझ जरूरी है। कोसंबी ने उनकी इस सलाह पर भी ध्यान दिया, परंतु अवांतर क्षेत्र के लिए जितना समय दे सकते थे, उसी सीमा में अपनी प्रतिभा के बल पर हर उलझन का वारा-न्यारा करते रहे। हमारी जानकारी में इस पक्ष पर जोर देने वाले पहले व्यक्ति विलियम जोंस हैं, जिनका मानना था कि किसी देश या समाज का इतिहास उसकी भाषा या भाषाओं का आधिकारिक ज्ञान हुए बिना लिखा ही नहीं जा सकता, तारतारी के मामले में उन्हें भी गौण स्रोतों का सहारा लेना पड़ा और वहीं उन्होंने सबसे बड़ी चूक की।

जो भी हो, कोसंबी को भी ठीक उसी अभाव का सामना करना पड़ा, जिसका सामना मिल ने किया था। उन्होंने पाया कि भारत में कहने को इतिहास तो है, परंतु वह इतिहास हो ही नहीं सकता, क्योंकि वह जनवादी इतिहास तो, है ही नहीं। उन्हें भी प्राचीन भारत की सामग्री में ऐतिहासिक सामग्री के अभाव का वही संकट सामने आया था, जो मिल के सामने आया था । यदि वह किसी इतिहासकार का नाम लेते हैं तो वह मिल हैं और किसी इतिहास-दार्शनिक का नाम लेते हैं तो वह कार हैं। इस पर हम आगे विचार करेंगे। मिल को ब्रिटिश उपनिवेश का इतिहास लिखना था, कोसंबी को अपने देश का। मिल को अंग्रेजी प्रभुत्व के अनुसार भारत को समझना था और कोसंबी को सर्वहारा को इतिहास के रचयिता की भूमिका में रखते हुए अपना इतिहास लिखना था।

उपनिवेशवाद और जनवाद में क्या इतनी निकटता होती है कि एक के औजार से दूसरे का इतिहास लिखा जा सके?

मॉडलों के आधार पर लिखा गया इतिहास, इतिहास का सत्यानाश होता है। धरती संतरे का तरह गोल है, गोल पर सिरों पर पिचकी हुई, यह धरती की बाह्य आकृति को समझने में सहायक है, परंतु यदि हम संतरे के गुणों के अनुसार धरती को समझने चलें तो प्रकृति को और प्राकृतिक उपद्रवों को भी नहीं समझ पाएँगे और त्रासदी के जनक बन कर रह जाएँगे। प्राचीन भारतीय इतिहास का सत्यानाश केवल दो ही बार किया गया, पहली बार मिल के द्वारा, दूसरी बार कोसंबी के द्वारा; परंतु दोनों अपनी अनूठी तार्किकता के कारण सत्ता के बल पर लंबे समय तक इतिहासकार न होते हुए भी ‘मूर्तिमान इतिहास’ बन कर छाए रहे। [1]

यदि हम विलियम जोंस से मिल की तुलना करें तो तार्किकता में, सोच की आधुनिकता में, वह जोंस से बहुत आगे पड़ेंगे। परन्तु अगला सच यह भी है कि वह विलियम जोंस से एक पीढ़ी बाद पैदा हुए थे। सचाई का दूसरा आयाम यह है कि विलियम जोंस अपनी सीमाओं में भी जितने बड़े लगते हैं, क्योंकि उनमें प्रतिभा, तत्कालीन ज्ञान पर अधिकार के साथ, उनमें विनम्रता भी थी, अपर पक्ष को समझने की सदाशयता भी थी . इसके कारण जोंस जहाँ गलत हैं वहाँ भी सत्यान्वेषी लगते हैं और मिल जहाँ सही हैं वहाँ भी इसके अभाव के कारण धूर्त लगते हैं। इतिहासकार की सबसे बड़ी निधि उसकी विश्वसनीयता है। इस कसौटी पर अपनी विफलताओं के बाद भी विलियम जोंस बहुत ऊपर सिद्ध होते हैं।

कल्पना करें, एक आदमी किसी समाज को देखे बिना भी उसका सही इतिहास लिखने का दावा करता है। यह पूरी तरह गलत नहीं है। यदि इस बंधन को मान लें तो उन कालों का इतिहास उस देश के लोग भी नहीं जानते। पर समाज को जानना जिन लोगों को हम देख और समझ पाए हैं, उसके आधार पर समझना नहीं है, यह उस मूल्य प्रणाली को समझना और यह पड़ताल करना है कि किन परिस्थितियों में इनका निर्माण हुआ था और कहाँ तक वर्तमान समाज में उनका निर्वाह किया जा रहा है। मिल को अपनी प्रतिभा पर इतना भरोसा है कि वह दोनों की उपेक्षा करते हुए अपने निर्णय पर पहुँचना चाहते थे।

दूसरी समस्या भाषा को जानने की थी। जोंस ने संस्कृत का परिचयात्मक ज्ञान प्राप्त करने से पहले प्राचीन भारत के विषय में कुछ नहीं कहा। मिल इसको जरूरी ही नहीं मानते। इसका अर्थ है पकवानों से पकवान बनाना। गौण स्रोतों के बीच अपने इरादे के अनुसार विचारों का संयोजन करना।
इन स्रोतों में भी ईसाई मिशनरियों की रपटों को प्रमाण मानना,जो ईसाइयत से भिन्न किसी समाज को समझ ही नहीं सकते थे, इसलिए वे उन्हें बर्बर दिखाई देते थे।

सबसे रोचक है उनकी यह मान्यता कि दूर रह कर, उन अभिलेखों और पार्लमेंट के अभिलेखों के आधार पर भारत का अधिक निष्पक्ष इतिहास लिखा जा सकता है। सचाई यह है कि इससे कंपनी की लूट की योजनाओं को एक सीमा तक समझा जा सकता था, परंतु प्राचीन भारत को नहीं समझा जा सकता था।

मिल को ऐसा लगता था कि भारत के विषय में इतनी विपुल सामग्री यूरोपीय भाषाओं में एकत्र हो चुकी है कि भारत की किसी भाषा को जानने की आवश्यकता नहीं, जब कि उस समय तक हिमशैल की चोटी तक दिखाई नहीं दे रही थी।

साहित्य को समझने की क्षमता का मिल में इस सीमा तक अभाव था, या भारत के विषय में उनके पूर्वाग्रह इतने प्रबल थे, कि जिस पंचतंत्र को दूसरे देश ज्ञान का कोश मानते थे, उन्हें वह ब्राह्मणों की दुःसाहसिक धूर्तता का प्रमाण मानते थे। जिस कालिदास के शाकुंतलम् को पढ़ कर दांते विभोर थे, वह उन्हें वाहियात प्रतीत हो रहा था।

[1] हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इंडिया आई सी एस के कोर्स में थी। इसी कारण यह जिसके लिए मोहम्मद हबीब तैयारी कर रहे थे (जिसे मौलाना मोहम्मद अली के सुझाव पर छोड़ दिया था और इतिहासकार के अध्ययन और अध्यापन को वरीयता दी थी, क्योंकि इतिहास मनुष्य के मस्तिष्क को नियंत्रित करने वाला वाला ज्ञान है) कुछ साल जामिया मिलिया में अध्यापन करने के बाद वह रीडर के रूप में अलीगढ़ वि.वि. में आए थे और दो साल बाद प्रोफेसर हो गए थे। कोसंबी के अलीगढ़ में अध्यापक के रूप में पहुँचने के समय में, वह सबसे प्रभावशाली व्यक्ति थे, उनके चुंबकीय आकर्षण से कोसंबी बच ही नहीं सकते थे। कोसंबी के इतिहास में रुचि उनके संपर्क में ही हुआ लगता है। जो भी हो वह मार्क्सवादी इतहास के जनक के रूप में राजकीय सहयोग से ज्ञान-सत्ता पर मार्क्सवादी एकाधिपत्य के चलते पढ़े पढ़ाए जाते रहे।

( जारी)