उपसंहार
एक लंबे समय तक मुझे ऐसा लगता रहा कि पश्चिम हमसे ज्ञान विज्ञान और तकनीकी में बहुत आगे चला गया है, इसलिए उसके अधिकारी विद्वानों द्वारा किसी भी विषय का विवेचन उच्च कोटि का और अधिक भरोसे का है। सामान्यतः यही धारणा हमारे समाज में सर्वमान्य सी हो चुकी है।
परंतु अपने अध्ययन और विमर्श के दौरान मुझे इस बात से आघात लगा कि उसके बहु प्रचारित विद्वान भी प्रस्तुति में जितने भी सुथरे क्यों न दिखाई दें, विश्लेषण में न तो उतने गहन हैं, न इतने ईमानदार कि उनकी निष्पत्तियों पर भरोसा किया जा सके।
इसके पीछे उनकी वर्चस्व की कामना है जिसके कारण वे सोच समझकर अपने लक्ष्य से मेल न खाने वाले तथ्यों को दरकिनार कर देते हैं, और असंभव को भी संभव बनाने का प्रयत्न करते हैं। जो भूमिका किसी वाद में एक कुशल वकील की होता है वही भूमिका ऐसे विद्वानों की होती है जो सूचना, ज्ञान और प्रविधि का रणनीतिक उपयोग करते हुए वर्चस्व प्राप्त करना या वर्चस्व की रक्षा करना चाहते हैं।
पहले मुझे यह भ्रम था कि यदि तर्क और प्रमाण के साथ किसी उलझी समस्या का समाधान कर दिया जाए तो वह सत्यान्वेषण का दावा करने वाले विद्वानों के बीच मान्य हो जाएगी। समझने में बहुत लंबा समय लगा कि वे अन्वेषी नहीं है, अंतिम सत्य पहुंचे हुए लोग हैं और उसकी पुष्टि के लिए केवल ऐसे अर्धसत्य जुटा रहे हैं जिनसे उनके मंतव्य की पुष्टि हो सके।
इसके लिए हम पश्चिम के नस्लवाद को दोष नहीं दे सकते, हमारे अपने समाज में ब्राह्मणों ने ज्ञान और संचार के साधनों का हजारों साल से ऐसा ही इस्तेमाल किया है। उनके विचारों का खंडन करने के बाद भी वे खंडन करने वाले को कोस कर, गालियां देकर, बदनाम करके, उसे विचार क्षेत्र से हटाने का प्रयत्न करते रहे हैं। पूरी तरह लाचार हो जाने के बाद हारे हुए मन से उसकी कुछ बातों को स्वीकार करके, अपनी पुरानी जिद को किसी दूसरे बहाने से कायम रखने की कोशिश करते रहे हैं।
ज्ञान पर एकाधिकार, दूसरों को जानने और सोचने के झमेले से मुक्त करना ऐसे वर्चस्व की नींव में होता है। यदि हम ब्राह्मणवाद के हथकंडों को समझते हैं, तो हम पश्चिमी वर्चस्व की चिंता को भी समझ सकते हैं।
वर्चस्ववादी उनके लिए भी सोचने का काम करता है जिनको वह अपने से हीन बनाए रखना चाहता है। ‘तुम नहीं जानते कि तुम क्या हो, हमें सब मालूम है. हम बताएँगे, तुम क्या हो, क्यों हो और क्या हो सकते हो।’ दुनिया के पिछड़े हुए देशों के पिछड़ेपन को शाश्वत बनाए रखने के लिए आज पश्चिम वही भूमिका निभा रहा है, जिसे ब्राह्मणों ने हजारों साल भारत में अपने वर्चस्व को कायम रखने के लिए निभाया था।
पश्चिमी जगत की ब्राह्मणवादी भूमिका के कारण, शेष दुनिया के सभी लोग दबे और सताए हुए लोगों की कोटि में आ चुके हैं। वे शिक्षा और ज्ञान के अधिकार के बल पर ही अपनी अस्मिता की रक्षा कर सकते हैं। पश्चिम की प्रभुता से बाहर निकलने का केवल एक रास्ता है, पश्चिमी ज्ञान पर भरोसा न करना, परंतु उनके द्वारा जुटाई गई सूचनाओं का विवेक के साथ उपयोग करना, उनके द्वारा दर दरकिनार की गई या ताड़ मरोड़ कर नष्ट की गई सूचनाओं का उद्धार करना और स्वयं अपने निष्कर्ष निकालना. न कि उनके निष्कर्षों से सहमत होना।
यह तभी हो सकता है, जब हम अपनी योग्यता का प्रमाण पत्र उनसे हासिल करने का मोह त्याग दें। पश्चिमी देशों में ख्याति प्राप्त करने वाले, उनकी योजना के सेवक बनकर ही ख्याति प्राप्त कर सकते हैं। प्रकारांतर से वे अपने ही देश के दुश्मन हैं। यह पहचान बहुत स्पष्ट होनी चाहिए।
केवल यह सिद्ध करके कि उनके अपने विचारों में अंतर्विरोध हैं, उनमें से कोई भी प्रकृत न्याय पर खरा नहीं उतरता, कि वे स्वयं जरूरत पड़ने पर अपनी स्थापनाओं को बदलते रहते हैं, और हमारे विचारों में कोई असंगति नहीं है, हम उन्हें कुछ समय के लिए कायल कर सकते हैं।
इसे कुछ विस्तार से समझना जरूरी है। विलियम जोंस ने यह माना था कि भाषा, देव शास्त्र, दर्शन, साहित्य और विज्ञान सभी के मामले में यूनान और भारत में इतनी समानताएं हैं कि ये सभी किसी एक स्रोत से से ही आई हुई हो सकती हैं। वह जानते थे कि भारत यूनान से प्राचीन सिद्ध होगा और उस दशा में यह स्वतः सिद्ध होगा यूनान में भाषा और संस्कृति भारत से ही गई है, उन्हें एक प्राचीनतर अवस्था की कल्पना करनी पड़ी, जिससे भारतीय दाय को नकारा जा सके।
इसके आगे विद्वानों ने किसी अन्य देश से, किसी लुप्त भाषा से मानक भाषाओं के जन्म की बात तो स्वीकार कर ली, परंतु सभ्यता के उत्कर्ष, दर्शन, विज्ञान और साहित्य की विरासत को मनमाने ढंग से मानते और नकारते रहे। वे अपने को सभ्य कहने वाले जनों को एक जाति में बदल कर असभ्य भारत में सभ्यता का प्रसार करने वाला सिद्ध करने लगे।
उनके दुर्भाग्य से भारत में एक ऐसी सभ्यता का पुरातत्व सामने आ गया जो हर दृष्टि से वैदिक सभ्यता के अनुकूल था जो इस बात का प्रमाण था कि अपने को सभ्य करने वाले सभ्यता की ऊंचाई पर पहुंचे हुए लोग थे और जिससे यह सिद्ध होता था कि वे यहीं के निवासी थे। सभ्यता का प्रसार भारत से हुआ था।
अब उस पूरी सभ्यता को ही अभारतीय सिद्ध करने के प्रयत्न किए जाने लगे। यह बताया जाने लगा कि वह सभ्यता अज्ञात कारणों से नष्ट हो गई थी और उसके नष्ट होने के बाद सभ्यता का प्रसार करने वालों का भारत में प्रवेश हुआ।
एक विशाल क्षेत्र में फैली सभ्यता के एकाएक नष्ट हो जाने की बात समझ में नहीं आ रही थी तो सभ्यता का प्रसार करने वाले उन्हीं आर्यों को दुर्दांत सभ्यता-द्रोही सिद्ध करके उसका विनाश करने वाला सिद्ध किया जाने लगा।
लेकिन भारत तो जबसे इसका इतिहास ज्ञात हैसभ्यता की ऊँचाई पर पहुंचा सिद्ध होता है। अब उन्हीं सभ्यताद्रोहियों को सि सभ्यता का प्रसार करने वाला भी सिद्ध किया जाने लगा।
कोई अपराधी भी इतनी बार अपने बयान नहीं बदलता जिस तरह के बयान इन विद्वानों के द्वारा बदले जाते रहे। कोई मूर्ख से मूर्ख व्यक्ति इस हद तक बयान बदलने वालों की बात पर विश्वास नहीं कर सकता। हमारा पढ़ा-लिखा समाज इतना समझदार था कि उसने ऐसे हर बयान को सही मान लिया।
इतिहास की गलत व्याख्या हमारी चेतना को नष्ट करने का पुरातन तरीका है। जिसे हम वैज्ञानिक इतिहास कहते हैं वह एक ख्याल है। ऐसा इतिहास अभी लिखा नहीं गया। हमारे वर्तमान की अधिकांश समस्याएं इतिहास की गलत समझ से पैदा होती हैं। सूचना के अभाव में हमें इतिहास का जो आधा अधूरा ज्ञान होता है, वह उतना अनिष्टकर नहीं होता जितना सचाई को जानने के बाद, किसी लाभ के लिए उसे तोड़ मरोड़ कर पेश करने से उत्पन्न भ्रम से होता है।
इसलिए हमें पश्चिमी सूचनाओं का बारीकी से अध्ययन करते हुए, उनका स्वयं विश्लेषण करते हुए अपने निष्कर्ष पर आना होगा । सही इतिहास दूषित इतिहास से पैदा हुई व्याधियों का एकमात्र उपचार है।