#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (40)
भारोपीय भाषा का मिथक
हमने इस लेखमाला की 17वीं किश्त मैं लिखा था, “तुलनात्मक भाषाविज्ञान के जनक डच विद्वान बॉक्सहॉर्न (Marcus Zuerius van Boxhorn) थे जिन्होंने 1653 में ही जर्मन, रोमांस, ग्रीक, बाल्टिक, स्लाविक, केल्टिक और ईरानी की जननी के रूप में किसी एक ही आद्य-भाषा की परिकल्पना की थी। उसे जननी भाषा कहा जाए या अन्य भाषाओं पर छा जाने वाली अधिभाषा (सुपर स्टेटभाषा) यह विवाद का विषय हो सकता है। उन्होंने यह श्रेय सीथियन को दिया था। इसमें कुछ इकहरापन था। इसमें यह मानकर चला गया था कि जिन क्षेत्रों की भाषाओं की बात की जा रही है वे जनशून्य थे और एक भाषा इतने रूप लेकर उन उन देशों में पहुंच गई, जब कि वास्तविकता यह कि एक समृद्ध भाषा, उन्नत जीवन स्तर, और उत्पादन पद्धति अपना चुके लोगों ने नए क्षेत्रों की तलाश में उन प्रदेशों में प्रवेश किया जिनमें आखेटजीवी जनों का निवास था तो उन्होंने इनके तोर तरीको से प्रभावित हो कर आर्य भाषा और जीवनशैली अपनाई। उनकी अपनी भाषा की रंगत से इस एक ही भाषा ने अलग अलग बोलियों का रूप लिया।
यदि बॉक्सहॉर्न ने सीथियन की जगह मध्य एशिया की भाषा कहा होता, या यदि वह संस्कृत से परिचित रहे होते और इसका नाम लिया होता तो यह अधिक ठीक रहा होता। जोंस का विचार था की गोथ और हिंदू एक ही भाषा बोलते थे, I constantly assume that the Goths and the Hindus originally had the same language, gave the same appellations to the stars and planets, adored the same false deities, performed the same bloody sacrifices and professed the same reward and punishment after death. (8th Annivarsary Discourse) और उन्होंने रोमन और ग्रीक को इथोपिया और लेवंत के संस्कृत के प्रभाव में उत्पन्न भाषाएं माना था। उन्होंने फ्रीजियन पर भी भारतीय प्रभाव स्वीकार किया था और फ्रीजियन लघु एशिया के पश्चिमी भाग में बसे थे।(वही)।
इस लंबी चर्चा के अंत में हम उसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं जिस पर आज से 367 साल पहले बॉक्सहार्न और 250 पहले कुछ भटकते हुए विलियम जॉन्स पहुंचे थे। एक की नजर मद्धेशिया पर गई थी और दूसरे की लघु एशिया और लेवान की ओर। ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। जोन्स के शब्दों में रोमन और ग्रीक इन आव्रजकों की संतान (progeny of these migrants) हैं, जिसे कुछ सुधार कर कह सकते है कि ग्रीक और रोमन का सुपर स्ट्रेट संस्कृत का है, और इनकी आपसी भिन्नताएँ उनके अधस्तर अर्थात उनकी आंचलिक बोलियों के कारण है। यूरोप के भाषाई चित्र को वर्तमान रूप देने में दो केंद्रों का हाथ है। एक मध्येशिया और दूसरा एशिया माइनर जिसमें, इथोपिया में बसे भारतीय जनों की भूमिका भी मानी जा सकती है।
यदि हम इथोपिया को भी एक कारक मान लें तो इन तीनों में प्रमुख भाषा तत्कालीन बोलचाल की वैदिक है क्योंकि संस्कृत के जिस रूप से हम परिचित हैं वह अभी अस्तित्व में नहीं आई थी। इसमें अग्रणी भूमिका वैदिक स्वामी वर्ग की है जिनके संरक्षण में विविध पेशों से जुड़े हुए लोगों की अपनी बोलियाँ थीं । इसमें किसी तरह का संदेह नहीं है की एशिया माइनर और लेवंत में भारतीय भाषा बोलने वाले मध्य एशिया से पहुंचे थे। वे घोड़ों फँसाने, पालतू बनाने, और प्रशिक्षित करने और परिवहन के काम में लाने में दक्ष थे और अपनी इस योग्यता के कारण ही एशिया माइनर में अपनी धाक जमाने में सफल हुए थे।
ये मध्य एशिया में कहां से पहुंचे थे इसका निर्णय करना कठिन नहीं है सिंधी और अंध्रक पशुपालन में अग्रणी थे जिनके संरक्षक स्वामि वर्ग की मुख्य दिलचस्पी खनिज भंडारों नें थी। सिंधियों की छाप सिंताश्ता पर है तो अंध्रकों की एंद्रोनोवो पर । परंतु एंड्रोनोवो से यह भी प्रकट है कि पहले वे कहीं अन्यत्र भी बसे हुए थे। संभव है सिंधी और आंध्र दोनों एक ही क्षेत्र में कार्यरत रहे हो। इनकी संस्कृति को हम कुर्गान, सिंताशता-ऐन्द्रोनोवो समवाय कह सकते हैं। इनका सीधा प्रसार लिथुआनी, लैटवियन, स्लाव. गॉथ और केल्टिक पर दिखाई देता है। अपने समय की सीमाओं में बाक्सहार्न ने यूरोप की सभी भाषाओं का संबंध इस भाषाई परिवेश से ही नहीं जोड़ा था, बल्कि यह कल्पना भी की थी कि उसी से यूरोप सभी भाषाएँ और यहां तक कि ईरानी भाषा भी निकली है।
उनके मंतव्य में मामूली सुधार किया जा सकता है। इस पर हम बाद में आएंगे। जहां तक भाषाविज्ञान का प्रश्न है तुलनात्मक भाषा विज्ञान के जनक वही सिद्ध होते हैं। विलियम जोंस को बहुत सारी भाषाओं का ज्ञान था, परंतु बॉक्स हार्न की तुलना में वह कुछ पीछे रह जाते हैं। ऐसा लगता है कि वह बहुभाषाविद होते हुए भी अपने भाषाज्ञान का कूटनीतिक उपयोग कर रहे थे। यदि ईमानदार होते तो उन भाषाओं की परिधि में रह कर समाधान तलाशते, जिनमें उन्होंने ऐसी समानताओं को लक्ष्य किया था जो उन्हें सहजात प्रतीत होती थी, जिसका अर्थ था कि किन्ही परिस्थितियों में किसी एक ही भाषा का प्रसार उस विशाल क्षेत्र पर हुआ था, जिसे हम भारोपीय के नाम से जानते हैं।
ब्रिटेन के ग्लासगो विश्वविद्यालय के प्रख्यात दार्शनिक और भाषाविद डूगल्ड स्टीवर्ट ने एक भाषा से उत्पन्न संतानों की मान्यता को चुनौती देते हुए कहा था कि एक जननी भाषा की संतानों में इस तरह के संबंध नहीं हो सकते जो भाषा विज्ञानियों द्वारा सुझाया जा रहा है। इस तरह की समानता केवल तभी हो सकती है जब एक ही भाषा दूसरे क्षेत्र में प्रचलित हुई हो। यह दूसरी बात है कि उन्होंने यह मानते हुए कि भारत का यूरोप से कभी कोई संबंध दिखाई नहीं देता जबकि सिकंदर ने भारत तक के भूभाग पर अधिकार किया था, इसलिए यह माना कि भारत के धूर्त ब्राह्मणों ने ग्रीक की नकल पर एक नई भाषा गढ़कर तैयार कर ली है, उनकी झक को दरकिनार कर दें, तो पूरा भाषाई चित्र उपस्थित हो जाता है।
इसका सीधा निष्कर्ष यह कि भाषाओं का वंश नहीं होता। उनकी जैव सत्ता नहीं है, वे सामाजिक निर्मिति हैं। जो नियम सामाजिक संस्थाओं पर लागू होते हैं वे ही नियम भाषाओं पर लागू होता है। इसलिए भाषापरिवार की अवधारणा गलत है, भाषा समुदाय या भाषाई भूगोल अधिक सही अवधारणा है।
यही कारण है कि पिछले 200 साल से लगातार उस जननी भाषा की खोज करते हुए विद्वानों के हाथ कुछ न लगा। वे उसे गढ़ कर तैयार करने लगे। इस क्रम में हमारे हाथ कुछ भी न लगा हो ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। परंतु वह भाषाई आनुवंशिकी के रूप में नहीं है। तुलनात्मक अध्ययन में उसकी उपयोगिता से इनकार नहीं किया जा सकता। परंतु आदिम भाषाओं की खोज और उनके विघटन से पैदा हुए परिवारों की अवधारणा वास्तविकता से बहुत दूर है।
पश्चिमी समाज को प्रमाणों से किसी किसी ऐसी सचाई का कायल नहीं किया जा सकता जिससे उसके सनातन वर्चस्व को चुनौती मिलती हो। इसलिए उनके द्वारा फैलाए गए जंजाल से बाहर निकलने की जिम्मेदारी हमारे अपने इतिहासकारों की थी। कारण कोई भी हो, वे अपने कर्तव्य के निर्वाह में विफल रहे और उन पाश्चात्य विद्वानों से अपने अपनी योग्यता का सनद हासिल करने के लिए उत्सुक रहे जिससे भारतीय समाज को अपनी असाधारणता से आतंकित कर के ऊंची कुर्सियां प्राप्त सकें। गुलामी लादी भी जाती है, गुलामी चुनी भी जाती है। लादी हुई गुलामी को फेंकने के बाद, हमने मानसिक गुलामी को स्वयं आगे बढ़कर स्वीकार किया।
सूचना के स्रोतों का अभाव हमारे देश में है। उनके यहाँ सब कुछ उपलब्ध है, पुस्तकालयों की जो सुविधा पश्चिमी जगत में है, उसकी हम कल्पना नहीं कर सकते। पुस्तकालय का कोई सदस्य दुनिया की कोई किताब पढ़ना चाहता हो तो वह उसकी मांग पर पूरे देश में जहां कहीं भी हो, वहां से मंगा कर उसे सूचित किया जाएगा। अनुसंधान की प्रविधि उनकी हमसे बहुत उन्नत है, इसकी आदत छोटी कक्षाओं से ही डाला जाता है जो उनके संस्कार का हिस्सा बन जाता है। हमने साधनों के अभाव में काफी जानकारी विकीपीडिया के माध्यम से जुटाई है, जिसका अर्थ है ये जानकारियाँ सार्वजनिक हैं। फिर भी उसी विकीपीडिया पर हम आज भी आर्य और भारोपीय और उनके आदिम निवास पर लेख पा सकते हैं जिससे लगे कि इतिहास का कूड़ा और इतिहास का सच एक साथ एक ही भाव बिक रहा है और लोग अपनी अपनी पसंद का इतिहास खरीद कर अद्यतन जानकारी का दावा कर रहे हैं।