Post – 2019-12-18

#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध(39)
सच को दबाया जा सकती है पर मिटाया नहीं जा सकता

मितन्नियों को कीलक लिपि में मितैनी, हनीगलबात, खनीगलबात, नहरीन आदि कई रूपों में अंकित किया गया है या कहें दूसरे उन्हें अपनी समझ से अलग-अलग नामों से पुकारते थे। परंतु वे अपने को कुरु/उरु कहते थे।[1] हनीगलबात/खनीगलबात से लगता है पहले उनकी विशेष रुचि खनिज भंडारों में थी और पशुपालन में रुचि रखने वाले समुदायों को संरक्षण भी इन्हीं से मिलता था।
[1] Mitanni (/mɪˈtæni/; Hittite cuneiform KUR URUMi-ta-an-ni; Mittani Mi-it-ta-ni), also called Hanigalbat (Hanigalbat, Khanigalbat, cuneiform Ḫa-ni-gal-bat) in Assyrian or Naharin in Egyptian texts, was a Hurrian-speaking state in northern Syria and southeast Anatolia from c. 1500 to 1300 BC.
मितन्नी नाम मिस्री के लोगों ने इस आधार पर दिया था, कि वे अपने मित्र देश से संपर्क साधे रहते थे। यह सीधे भारत से या सिन्तास्ता या पुंत के माध्यम से उनके संबंध का द्योतक है। हित्तियों से इनका तनाव रहता था जिसे दूर करने के लिए हित्ती राजा सुप्रियम् [क] (Suppiluliuma) और मितन्नी राजा सातिवाज (Shattiwaza) के बीच एक संधि लगभग. 1380 BC में हुई थी, जिसमें साक्षी के रूप में वैदिक देवों (मित्र, वरुण, इन्द्र और नासत्या) का नाम आया था। इसका उल्लेख हम पहले कर आए हैं। हित्तियों से उनकी प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी।

अपने उत्कर्ष काल में इनका इतना दबदबा था कि मिस्र भी इनसे से खतरा अनुभव करता था, और इसके लिए उसको हित्ती राजा से संधि करना पड़ा था। हित्तियों के उत्कर्ष के दौर में उनसे मितन्नी और मिस्र दोनों को खतरा अनुभव होने लगा तो इनकी आपस में भी सन्धि हुई । इसका ही एक परिणाम था मिस्र के राजा अमेन्होतेप से त्वेषरथ की पुत्री तदुखेपा का विवाह संबंध, जिसके मरने के बाद यह अखनातेन की पत्नी बनी थी। अखनातेन के पिता ने बधू शुल्क के रूप में त्वेषरथ को उनकी और उनकी पुत्री की सोने की प्रतिमाएँ देने का वादा किया था, परंतु अखनातेन ने सोने के पत्तर चढ़ी लकड़ी की प्रतिमा भेजी थी, जिसकी शिकायत करते हुए त्वेषरथ ने कई पत्र लिखे थे। संभवतः अपनी पत्नी के असर में ही अखनातेन सूर्योपासक बना था।

चौदहवीं शताब्दी ई.पू. में इन्होंने फरात की सहायिका खाबर नदी के तट पर या उसकी किसी सहायिका वसु के किनारे वसुकन्नी Washukanni, संपदा की खान, नाम से राजधानी बनाई । Washukanni (also spelled Waššukanni or Vasukhani) was the capital of the Hurrian kingdom of Mitanni, from around 1500 BCE to the 13th century BCE. … Its etymology in Sanskrit, which was used by the Mitanni, is “Vasukhani”, वसुखानी, the “mine of wealth” as the Vasu are the gods who are wealth-givers. इनकी राजधानी पर दो बार संकट आया था। पहली बार हित्ती राजा सुप्रियम् की ओर से और दूसरी वार असीरियनों की ओर से जिसमें उन्हें हार का मुँह देखना पड़ा ।

हमने पहले [भारतीय परंपरा की खोज, 2011, पृ. 112-140] कुछ विस्तार से यह दिखाया है कि विदेशों मे वैदिक व्यापारियों के जो अड्डे थे उन्हें स्वर्ग कहा जाता था। परन्तु उस समय तक मेरा ध्यान उनके द्वारा सत्ता पर अधिकार की ओर नहीं गया था। उनकी बस्तियाँ सुरक्षा पर ध्यान देते हुए प्राकार वेष्ठित होने के कारण अलका (अलंकृत) कहलाती रही होंगी, अब यह सोचना पड़ता है कि इन्द्रलोक की अवधारणा वहाँ से आरंभ होती है जहाँ वे साम्राज्य स्थापित कर लेते हैं और उनकी राजधानी को ही इन्द्रपुरी, या कहा जानो लगा होगा। अपनी सत्ता पर संकट आने पर वे ही स्वदेश के साहसी राजाओं से सहायता की गुहार लगाते रहे होंगे।

इस दृष्टि से साकेत/ कोशल दूसरों का अपेक्षा अधिक प्रतापी प्रतीत होते है। इसका एक कारण यह है कि जिस दौर में अनातोलिया में भारतीय भाषा बोलने वालों का प्रवेश हुआ था, वह प्राकृतिक प्रकोप का दौर था। इसके कारण कुरु पांचाल और आगे का क्षेत्र दुर्भिक्ष की स्थिति में थे, जबकि कौशल पर इसका प्रभाव उतना नहीं था। हमने पीछे रघु की जिस विजय का हवाला दिया है, वह भी किसी ऐसे ही संकट से संबंध रखता हो सकता है। स्वयं दशरथ के साथ भी इंद्र की सहायता के लिए जाने की कहानियां जुड़ी हुई हैं। इन कहानियों से दशरथ और राम के काल-निर्धारण में कुछ मदद मिल सकती है।

उपनिवेश विस्तार में कुरुओं की पहल दिखाई देती है। मितन्नी के नामकरण में कीलक लिपि में लिए कुरु/उरु जैसा प्रयोग मिलता है।

पश्चिमी समाज धर्म का प्रसार भी केवल शस्त्र के बल पर करता रहा है। वह मानता रहा हैं, कि कोई भी परिवर्तन केवल शस्त्र बल से संभव है और इससे बाहर मार्क्स भी नहीं आ सके थे। इसलिए भाषा और संस्कृति के प्रसार के मामले में भी विजय को एक अनिवार्य घटक मानता रहा है। शस्त्र बल से लोगों को बंदी बनाया जा सकता है, उनकी चेतना को नहीं बदला जा सकता। उसके लिए सांस्कृतिक श्रेष्ठता की धाक जरूरी है।

अनातोलिया में पहुंचने वाले आर्यभाषी ठीक उसी चरण पर नहीं पहुंचे थे जिससे उनके अभिलेखीय प्रमाण मिलने लगते हैं, या कहें, जब से उनकी श्रेष्ठता सत्ता में परिवर्तित हो जाती है। पहले वे सिंतास्ता/आन्द्रोनोवो में जमे हुए थे। उनकी रुचि अश्व व्यापार में थी। अनातोलिया से उनका यह संपर्क लगभग 2000 ईसा पूर्व में आरंभ हुआ था। इस से पहले अनातोलिया का अर्थतंत्र असीरियनों के अधिकार में था। संभवतः उनका सारा कारोबार उनके माध्यम से चलता रहा। उनके तंत्र को समझते हुए, इन्होंने उनको प्रतिस्पर्धा में पछाड़ दिया ।

दो बातें तय हैं जिन पर किसी को आपत्ति नहीं। एक यह कि अश्वपालन आर्यभाषा भाषियोंं ने किया। और यह कि अरायुक्त पहिए के आविष्कारक भी वे ही थे। जिस बात को ऐसी चर्चाओं मे स्थान नहीं दिया जाता, वह है यह तथ्य कि वेद में जिन रथों का उल्लेख है उनमें बैलों और गधों को जोता जाता था? अरायुक्त पहिए के आविष्कारक असुर या वरुण उपासक भार्गव थे। सिंताश्ता मद्येशिया में लंबे प्रतिरोध के बाद अश्वव्यापारियों के प्रभाव या अधिकार क्षेत्र में आने वाले भाग की पहचान बनी। इनमें पहल के दो रूप थे, एक पशु-व्यापार और दूसरा खनिज भंडारों का दोहन। दोनों का नियंत्रण नगरसेठों के हाथ में था जब कि कार्यभार विशेषों के हाथ में। रथ और घोड़े का पश्चिम एशिया में भार्य भाषियों के प्रवेश के साथ होता है, और इस मामले में इनकी अग्रता ही संख्या में कम होने के बाद भी इनके वर्चस्व का और फिर सत्ता पर अधिकार का कारण बनता है।

इतिहास का उल्टा पाठ पढ़ाने वालों ने भी स्वीकार किया है कि लघु एशिया पर प्रभुत्व कायम करने वाले मध्येशिया के ठीक उसी क्षेत्र (कुर्गान, सिन्ताशता / आन्द्रोनोवो ) से वहाँ पहुँचे थे जहाँ से उन्हें भारत की ओर बढ़ते हुए दिखाया जाता रहा है। वहीं अरायुक्त पहिए के सबसे पुराने अवशेष भी मिले हैं जो 2000 ई.पू. के हैं। भारत में ऋग्वेद के कवि अरायुक्त पहिए से परिचित थे। वे अपरिचित हो ही नहीं सकते थे क्याेकि ऋग्वेद तो पाँच सौ साल पुराने पहिए का अवशेष नहीं मिलता। जाहिर है कि पुरातत्व की अपनी सीमाएं हैं। वह साहित्यिक प्रमाणों का निषेध नही करता। साहित्यिक प्रमाण यह है कि लघु एशिया में पहुँचने वाले आर्य भाषा भाषी निश्चित रूप में मध्येशिया से वहाँ पहुँचे थे परन्तु मध्येशिया में वे कहाँ से पहुँचे थे, पूर्व से या पश्चिम से. भारत से या भारत की ओर बढ़े थे। इसका उत्तर हुर्री मे बचे रह गए घोड़ों के रंग के लिए बची रह गई शब्दावली है, जिसमे बभ्रु, पलित और पिंगल का प्रयोग हुआ है जो भारत से बाहर की किसी भाषा में नहीं पाया जाता। मितन्नी में योद्धा ले लिए मर्त्य का प्रयोग होती था जो वैदिक प्रयोग है। हम इन बातों का हवाला यह सिद्ध करने के लिए नहीं दे रहे हैं कि आर्यों का, या कहें आर्य भाषा भाषियों का मूल निवास भारत ही था। हम उस धांधली को सामने लाना चाहते हैं, जिसके चलते सब कुछ जानते हुए पर्दा डालने के लिए तरह-तरह की युक्तियां भिड़ाता रहा ।
ईरान में तो यह सखामणि (हख्मनी) कुरुवंशी थे, मितन्नी का मित्र नाम भले ही मिस्रियों ने दी हो पर अर्थ तो वही मित्रशिरोमणि है।

ल्युबोत्स्की ने 55 शब्द ऐसे छाँटे थे जिनको ध्वनिगत और रूपगत आधार पर संस्कृत और ईरानी में आरखने क् ियात किया गया है और जिसके आधार पर वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि मध्य एशिया, बैक्ट्रिया मरगियाना समवाय की भाषा पंजाब में आज बोली जाने वाली भाषा से मेल खाती हैं और इसलिए हड़प्पा से इनका संबंध हो सकता है, पर इसे नकार दिया गया जब कि यह इस बात का प्रमाण है कि वैदिक बोलचाल की भाषा ही पड़प्पा की भाषा थी।

इसे अस्वीकार इसलिए कर दिया गया कि हड़प्पा से इस का कोई संबंध नही जब कि दबाने या किनारे डालने के बाद भी सचाई सामने आ ही जाती है।