#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (31)
पुराण, भाषा विज्ञान और पुरातत्व
हमने इस लेख माला की तीसवीं किश्त में विलियम जोंस के माध्यम से पश्चिमी एशिया के तटीय भाग में हिंदू देवों- देवियों को पूजने वाले, भारतीय भाषा बोलने वाले, लोगों के बसे होने की बात की थी। इसके लिए लेवान्त [1]और अनातोलिया का प्रयोग किया जाता है। दोनो का अर्थ सूर्योदय का देश हुआ करता था। अंतर केवल यह कि पहला फ्रेंच का शब्द है, दूसरा ग्रीक का।
हमने इस बात की भी चर्चा की थी कि विलियम जोंस ने इथोपिया में भारतीय भाषा बोलने वाले, भारत से आकर वहां बसने वाले हिंदुओं का प्रमाण दिया था । उन्होंने यह भी कहा था कि इथोपिया में बसने वाले भारतीय व्यापारियों ने लाल सागर से भी आगे भूमध्य सागर को नौकायन से पार करके, यूरोप से संपर्क स्थापित किया था और वहां के निवासियों को सभ्यता का पाठ पढ़ाया था। उनका यह कथन सुनी सुनाई बातों पर आधारित था। सुनी सुनाई बातों को लिख दिया जाता है तो उसे पुराण कहते हैं। परंतु इस पुराणवृत्त को समझे बिना यह नहीं समझा जा सकता कि लातिन और ग्रीक दोनों संस्कृत से उससे अधिक निकटता रखती हैं, जितनी एक दूसरे से, अर्थात दोनों के निवासी संस्कृत से सीधे प्रभावित हुए न कि एक दूसरे से।
पुराण में कई बातें सटीक नहीं होती हैं इसलिए इतिहास के स्रोत के रूप में उसका भारत में बहुत कम उपयोग किया गया है, जहाँ किया गया है, नासमझी से किया गया है। हमारी विवशता है कि उन युगों का इतिहास जब लोग लिखना जानते ही नहीं थे, केवल पुराणों से ही मिल सकता है। आधुनिक पश्चिम पौराणिक स्रोतों का इस्तेमाल नहीं करते क्योंकि वह समृद्ध नहीं है और जितनी है वह पूर्व से प्रेरित और विकृत लगती है।
यह सच है कि पुराण विश्वसनीय नहीं है, परंतु यदि पुराणों के कई स्रोतों में कई तरह से एक ही बात को दोहराया गया हो, तो उसे सच मानने का आधार मजबूत होता है। ज्ञान की दूसरी शाखाओं से यदि उसकी पुष्टि करने वाली सूचनाएं मिलती है, तो सत्य प्रमाण बन जाता है।
ज्ञान की कोई भी शाखा अपने तई विश्वसनीय नहीं है। इसमें पुरातत्व भी आता है नृतत्व भी आता है आनुवंशिकी के अध्ययन भी आते हैं । ताम्रपत्रों और पुस्तकों पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता। इसके कुछ प्रमाण संभव है आगे हम दे भी सकें। सभी एक दूसरे से वाद करते हुए ही सचाई पर पहुंच सकती हैं जो किसी शाखा की सचाई नहीं होगी इतिहास की विजय अवश्य होगी।
पुराणों की विश्वसनीयता का एक अच्छा प्रमाण है यह है कि बीसवीं शताब्दी की खोजों से पता चला कि सचमुच इथोपिया में पुंट नाम से भारतीय व्यापारियों का अड्डा था। यह अड्डा सिंधु सभ्यता के निर्यात और आयात केंद्रों में से एक था। सभी का उल्लेख मेसोपोटामियाई अभिलेखों से सामने आया। यह एक साथ दो विवादास्पद सवालों का अपने आप में जवाब बन जाता है।
पहला सवाल संस्कृत के विस्तार से जुड़ा हुआ है; वैदिक सभ्यता के प्रसार से और दोनों यहां पर आकर अनन्य हो जाते हैं। दूसरी यह कि हड़प्पा सभ्यता के सभी केंद्रों की भाषा में एकरूपता नहीं थी क्योंकि इथोपिया में गुजराती प्रभाव बहुत स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है।
विलियम जोंस ने अपने चौथे व्याख्यान में यमन में भारतीयों की उपस्थिति का प्रमाण दिया था इसलिए यह कहा जा सकता है की उनके माध्यम से भारतीय आर्य भाषा ने अरब की भाषा को बहुत पहले से प्रभावित करना शुरू कर दिया था।
इथोपिया से मिलती-जुलती बात उन्होंने भूमध्य सागर के पूर्वी तटीय क्षेत्र फिनिशिया, लेवांत, और फ्रीजिया के विषय में भी कही थी। प्रमाण ऐसे थे जिनसे इस बात से इंकार न किया जा सके वे भारत छोड़कर किसी अन्य देश से संबंध रखते हैं। इनका आधार सुनी हुई कहानियां थीं। इसमें उन्होंने अपनी ओर से भारत में अपनी आंखों से देखे हुए रीति रिवाज अर्थात् पुराण और कर्मकांड सहारा लिया था।
उनकी नोवा की संतानों की भाषा से दुनिया की सभी भाषाओं की उत्पत्ति की वाहियात कल्पना से तो यूरोप में इतनी गहमागहमी पैदा हो गई थी, कुछ समय तक तुलनात्मक और ऐतिहासिक भाषाशास्त्र को ही भाषा विज्ञान माना जाता रहा, परंतु उनसे अधिक भरोसे के स्रोतों के आधार पर उन्होंने जो व्याख्या दी थी उसका भूलकर भी कभी नाम नहीं लिया गया क्योंकि इससे उनके अपने वर्चस्व के मिथ्या विश्वास का खंडन होता था।
विलियम जोंस ने अपनी व्याख्या में हंसने के बहुत सारे मौके दिए हैं। इस पर भी हँसा जा सकता है। पर ध्यान रहे, जहां वह अपनी ओर से तोड़ मरोड़ किए बिना स्त्रोतों के आधार पर कोई बात कहते हैं वहाँ पुरातत्व हमें हँसने नहीं देगा, और पुरातत्व की कमियों को भी सुधारा जा सकता है।
विलियम जोंस के समय में किसी को अनुमान भी नहीं हो सकता था एशिया माइनर में भारतीयों की उपस्थिति कभी रही होगी। मैक्स मूलर को पहली बार जब एक अध्येता के द्वारा प्रस्तुत किए गए भाषाई आंकड़ों का पता चला तो उन्होंने इस संभावना पर विस्मय प्रकट करते हुए यह भी कहा था इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती, परंतु इस दौरान कोई काम नहीं हुआ।
बीसवीं शताब्दी में ह्यगो विकलर द्वारा बोगाज़कोई के लेखों का उद्धार किया गया और ह्रोजनी ने उनका पाठ करते हुए यह स्वीकार किया यह भारतीय मूल के आर्य भाषा भाषी लोगों की भाषा है तो पश्चिम में भीतर ही भीतर खलबली मच गई, क्योंकि इससे पहले का जो पाखंड रचा गया था, इससे उसका भंडाफोड़ होता था। यह मान लेने के बाद कि आर्य भाषा बोलने वाले, वैदिक देवताओं को पूजने वाले, अश्वपालन करने वाले भारतीय एशिया माइनर में 2000 इसापूर्व में पहुंच गए थे, दो बातें एक साथ सिद्ध होती थीं।
पहली यह कि भारत में उनकी जितने प्राचीन काल से उपस्थिति सिद्ध होती है उसने प्राचीन काल में दुनिया के किसी दूसरे क्षेत्र में संस्कृत भाषियों की उपस्थिति या उन से मिलती-जुलती भाषा बोलने वालों की मौजूदगी नहीं सिद्ध की जा सकती। अर्थात भारत पर आर्य भाषा बोलने वालों के आक्रमण के विपरीत भारत से बाहर की ओर जाने वाले और आक्रमण करने वालों की पुष्टि पुरातत्व द्वारा हो रही थी। सारे किए कराए पर पानी पर जा रहा था।
इसलिए पहले इसका नाम इंडो-हिताइत तो रखा गया, परंतु यह सिद्ध करने के प्रयत्न प्रारंभ हो गए कि आदि भारोपीय के सबसे निकट यही भाषा रही होगी और इसी से संस्कृत भी निकली होगी। यहां तक दावा किया जाने लगा कि वेदों के कुछ अंश उस अवस्था के हो सकते हैं जब आर्य आक्रमणकारी भारत में नहीं पहुंचे थे। गोएबेल्स तो उसके बाद पैदा हुआ, झूट मूठ बदनाम किया जाता रहा, उसके बाप विलियम जोंस के समय से ही अलग-अलग रूपों में दिन रात काम कर रहे थे और लगातार एक ही बात को दुहराते हुए उन्होंने उसे सचमुच सचाई में बदल दिया था।
(अधूरा)
[1] पहले लेवन्त में आज के सीरिया, जोर्डन, लेबनान, इजराइल और फिलिस्तीन को पूरा इलाका आता था।
इसका एक रोचक पक्ष है, अक्सर देशों और समुदायों का नामकरण दूसरों द्वारा किया जाता है कभी-कभी अनादर प्रकट करने के लिए किया जाता है और इसके बाद भी वे खुद उसे अपना नाम मान लेते हैं। निगर कहने वालों ने अफ्रीका के इस देश का नाम नाइजीरिया रखा नदी का नाम नाइजर रखा या वह स्वयं अपने को निगर कहते थे, इसका पता तो हमने नहीं लगाया परंतु नेटिव शब्द का प्रयोग वह किसी क्षेत्र के पौधों जानवरों और आदमियों के लिए किया करते थे और लंबे समय तक भारत के कुछ लोग भी अपने को नेटिव के रूप में स्वीकार करते थे हिंदू हमारा अपना चुना हुआ नाम नहीं है नहीं इंडिया हमने गढ़ा। हमने दूसरों के दिए नाम को खुद स्वीकार कर लिया।]