#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (23)
#भारत_की_खोज-चार
जिस चरण पर भारत का सामना यूरोपीय उपनिवेशवादियों से हो रहा था, अपनी संपन्नता के बावजूद हिंदुस्तान नि:सत्व हो चुका था। पूरा मध्यकाल युद्ध, कलह, लूट और उपद्रव का काल था। बाहरी तड़क-भड़क से भीतरी चरमराहट छिप भले जाय, पर गृहकलह से लेकर बाहरी कलह तक सर्वव्यापी बेचैनी थी। औरंगजेब को छोड़ कर सभी मुगल बादशाह नशेड़ी और झक्की थे। उनकी अय्याशी उनके तड़क-भड़क का हिस्सा थी।
केवल मुगल शासक ही थे जो अपना हरम ले कर समर में जाते थे। सभी दरबारी, सेनानी, सरदार और अमले इस व्याधि से पीड़ित थे। राजा के पास नाममात्र की सेना थी। सैन्यबल राजघराने से लेकर बाहर तक मे पाँच हजारियों, तीन हजारियों, दो हजारियों, और हजारियों में बँटा था, जिनको इनके निर्वाह के लिए जागीरें मिली हुई थीं, जिनमें उनकी मनमानी चलती थी।
मिल बाँट कर खाने के इस तरीके ने राज्य का आधार मजबूत किया था, परन्तु जनता का उत्पीड़न बढ़ गया था। पूरे मध्यकाल में जब आतंक के कारण सन्नाटा छाया हुआ इस पीड़ा को पूरी तल्खी से प्रकट करने वाला एक ही विद्रोही कवि है, तुलसीदास। यदि कोई अपवाद है तो नानक जिन्होंने बाबर की आलोचना की थी परन्तु रास्ता शांति, सद्भाव और अविरोध का चुना थ।
तुलसी का पूरा साहित्य विद्रोह का साहित्य है, तुलसी का रामचरित मानस आतंककारी रावणराज्य के विरुद्ध साधनहीन और प्रताडित जनों के विद्रोह का सांकेतिक आह्वान है। इसने राणाप्रताप को किसी तरह प्रभावित किया था या उनके विद्रोह ने इसको प्रभावित किया था, या नहीं, यह विवाद का विषय हो सकता है। परंतु इस दोहरे शासन पर उनका सीधा प्रहार – ‘दुसह दुराज दुकाल दुख’ और:
‘गोड़ गँवार नृपाल महि, यवन महा महिपाल।
साम न दाम न भेद कछु केवल दंड कराल ।।
फोरहिं सिल लोढ़ा सदन लागे अढुक पहाड़।
कायर, कूर, कपूत कलि, घर घर सहज डहार।।
वह मुगलकालीन दोहरी शासन प्रणाली को दुकाल या आपातकाल कहते हैं। सच तो यह है कि पूरा मध्यकाल शताब्दियों तक फैला आपातकाल था। जिसके सबसे राहत के दौर के रूप में अकबर के शासन काल को गिनाया जाता है। उसका हाल यह था।
परंतु उस काल ही आरंभ हुआ था यह दुहरा शासन।[1] तुलसी उसकी क्रूरता को चित्रित कर रहे थे। क्रूरता को कायरता बता रहे थे, क्योंकि पूरे दल बल से उनको सताया जा रहा था, जो अपना बचाव नहीं कर सकते। वह अपने समय के सामाजिक अंतर्दाह (डहार) को चित्रितकर रहे थे– घर घर सहज डहार। सामाजिक व्यथा को इतने मर्मभेदी और दोटूक स्वर में व्यक्त करने का साहस और शक्ति आज तक किसी दूसरे राजनीतिक कवि में न मिलेगी।
यह आपातकाल उग्रतर होता हुआ विपत्तिकाल का रूप लेता गया था – अकबर के समय में भूराजस्व था तिहाई, शाहजहाँ के समय तक दो तिहाई पर पहुँच गया था। औरंगजेब ने जजिया लगा दिया था। इसे भी शिवा जी ने एस पत्र में कायरतापूर्ण कदम कहा था (“TO OPPRESS ANTS AND FLIES IS FAR FROM DISPLAYING VALOUR”, Eraly, The Mughal Throne, 2004, p.402)।
अपने इसी पत्र में शिवा जी ने उसे याद दिलाया था:
But in your majesty’s reign many of your provinces and forts have gone out of your possession, and the rest will soon do so, too, because … your peasants are down-trodden, the yield of every village has declined, in the place of one lakh (of Rs) only one thousand and in the place of a thousand only ten are collected and that too with difficulty. When poverty and beggary have made their home in palaces of the Emperor and the princes, the condition of the grandees and the officers can easily be imagined.
औरंगजेब ने अपनी आँखों के सामने मुगल साम्राज्य को ध्वस्त होते देखा था। दुर्भाग्य से बाद में मराठों ने भी रास्ता वही अपनाया, इसलिए वे सही विकल्प न बन सके।
इससे समाज में जो व्यापक विक्षोभ था उसका लाभ अंग्रेजों को मिलना ही था। यह दूसरी बात है कि कंपनी ने मालगुजारी की दर पहले से भी अधिक बढ़ा दी। उद्योग-व्यवसाय को नष्ट कर दिया। जीविका के अपने स्रोताें से बंचित उत्पादकों (शूद्रों) की विशाल संख्या के साधनहीन होने पर खेती पर निर्भर करने वालों की संख्या और बढ़ गई। मध्यकाल में विलासिता पर होने वाला धन लौट-घूमकर किसी तरह अपने ही देश में काम आता था, अब वह विदेश चला जाता था।
अंग्रेजों ने आरंभ में मुगलों का ही अनुकरण किया था। उनके भुक्कड़पन का जो चित्र हम पहले दे आए हैं, उसकी तुलना यदि गिरावट के दौर में बहादुर शाह जफर के खानपान से करें जिसका जिक्र हम उससे भी पहले कर आए हैं उससे करें तो पता चलेगा वे गोरे मुगल बनना चाहते थे। असल में सत्ता पाने के साथ ही मुगलों की नकल करना आरंभ किया था। परंतु यहां हम ब्रिटिश शासन पर नहीं, उनके काम करने के तरीके पर बात कर रहे हैं ।
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मुसलमान आक्रमणकारी जिन देशों से आए थे उनका ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में कोई विशेष स्थान न था, फिर भी वे कई मामलों में भारत के पढ़े लिखे लोगों से भी अधिक चालाक थे। उन्होंने अध्यापकों और किताबों से नहीं, अपनी समस्याओं और उनके समाधान के प्रयत्नों और प्रयोगों से अपनी शिक्षा ग्रहण की थी। वे भारत के विषय में जितनी अच्छी जानकारी रखते थे, वह भारतीयों के लिए संभव न थी। भारतीय अपनी पवित्रता की रक्षा के लिए, अपने पवित्र क्षेत्र से बाहर जाने से घबराते थे । यदि चले गए तो वापस लौटने पर अपमान सहन करना पड़ता था। भारत बहुत लंबे समय से पवित्रता-जनित कारागार का बंदी था। कहानी लंबी है, तिकोनी है जिसका एक कोना ब्राह्मणवाद से जुड़ता है, दूसरा शिक्षाप्रणाली से, और तीसरा खतरा उठाने के साहस से। इनके विस्तार में नहीं जाएंगे।
यूरोप में राष्ट्रीयताएं अलग होने के बाद भी विज्ञान की स्रोत भाषा, ईसाइयत के जन्म से पहले से, एक होने के कारण, पूरे यूरोप में एक बौद्धिक साझेदारी थी और स्रोत की इस एकता के कारण पारस्परिक आदान प्रदान का बौद्धिक पर्यावरण तैयार हुआ था, जो भारत में संस्कृत के माध्यम से संभव हुआ था। पर वहाँ धर्मग्रंथ की भाषा हिब्रू, ज्ञान की भाषा लातिन और तकनीकी साझेदारी की भाषा, उनकी की राष्ट्रीय भाषाएँ थीं। आप स्वयं तुलना करके देखें, प्राचीन काल में भी इस दृष्टि से हमारी दशा बहुत अच्छी नहीं। यूरोप के लोग भारतीयों से अधिक धर्मभीरु थे, परंतु उन्होंने अपने अभ्युदय काल से पहले, अपने धर्म तंत्र से जीने मरने की लड़ाई लड़ी थी। ज्ञान के क्षेत्र में उनके बीच कई तरह की साझेदारियाँ भी थीं और अपनी विशिष्ट तकनीकी जानकारियां भी थी।
धर्मयुद्धों में उन्हें मात पर मात खानी पड़ी थी और उनसे ही उन्हें पूर्व की सभी क्षेत्रों में अग्रता का पता चला था। इसके बाद जानकारी बढ़ाने के लिए वे अपने शत्रुओं के भी शिष्य बन गए कि उन्हें आत्मसात करके, उन क्षेत्रों में अधिक से अधिक आगे बढ़ कर उन्हें परास्त कर सकें। उन्होने अपनी योग्यताओं को निरंतर बढ़ाया । अपनी प्राचीन ज्ञान संपदा का नए सिरे से अनुसंधान और समायोजन किया। जिस नौचालन में अरबों की अग्रता थी, उसमें इतने आगे बढ़ गए कि अरब नौचालन के नक्शे से गायब हो गए।
यह यूरोप का नहीं ईसाई साम्राज्य का इस्लाम को परास्त करने का आवेग था जिसने अपने आप से लड़ने और सत्य को विश्वास से ऊपर रखने के नए साहस का संचार किया जो नवजागरण के रूप में सामने आया। इसने जो ऊर्जा पैदा की उससे सभी देश, सभी क्षेत्रों में अरबों को, जो एक छोटी सी अवधि के लिए पहले शिखर पर था, मात दी कि वह शिफर बनने के ढलान की ओर बढ़ चला।
इतना बड़ा मुगल साम्राज्य जिसका हर एक शासक अपने को विश्व का शासक (जहाँगीर, शाहजहाँ, आलमगीर) मानता था वे सभी पुर्तगालियों की नौशक्ति से डरते थे, क्योंकि नौचालन में अरबों की अग्रता के बाद भी अपनी नौशक्ति का विकास नहीं कर सके।
कंपनी ने भारत को जीता नहीं, अपने चरम वैभव काल में ही दुनिया से अनजान रह कर वे अपना सत्व खो चुके थे। विदेशी कंपनियाँ उन्हें चुनौती देती हुई अपने लिए करों की विशेष रियायतों का दावा करती थीं और उन्हें देना भी पड़ता था, शक्ति संतुलन तभी से बदलने लगा था। उनमें सभी को विश्वास था कि वे एक पिछड़े, पर शक्तिशाली, राज्य में अपनी श्रेष्ठता के साथ जगह बना रहे हैं।
इतिहास घटित पहले होता है लिखा बाद में जाता है। वह इतिहास बहुत पहले घटित हो चुका था जो दिल्ली विजय के साथ लिखा गया। इस श्रेष्ठता और विजयगाथा को ज्वलंत अक्षरों में सांस्कृतिक विजय के क्रम में अंकित किया गया। यह भारत में छिपे हुए भारत की अंतरात्मा की खोज थी जिसे खोजना भी था और जिस पर अधिकार भी करना था।