Post – 2019-11-12

#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (24)
#भारतकी_खोज-पाँच

कल भूमिका कुछ लंबी हो गई । हम इस बात पर जोर देना चाहते थे कि परास्त समाज को विजेता को इस बात का दोष देने का अधिकार नहीं है उसने उसे जीत लिया, दोष केवल अपने को दे सकता है कि वह अपनी स्वतंत्रता की रक्षा क्यों न कर सका। हम लंबे समय से स्वयं इस बात की तैयारी करते रहे कि कोई आए और हमें जीत ले। अहंकारी स्वाभिमानी नहीं होता। विलासी अपनी सभी योग्यताओं को खोता चला जाता है। जोखिम से घबराने वाला खतरों को आमंत्रित करता है। लद्धड़ व्यक्ति या समाज के पास जो कुछ है उसे भी सँभाल कर नहीं रख सकता। कामचलाऊपन गतानुगतिकता या ठहराव, ऊब, थकान और गिरावट का कारण बनता है। दुखद यह नहीं है कि हमारे समाज में यह दुर्गुण घर कर चुके थे, बल्कि यह कि ये दुर्गुण हमारे भीतर दुबारा लौट आए हैं। किसी देश या समाज पर विजय के लिए जितनी लंबी तैयारी की जरूरत होती है, अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए भी वैसी ही तैयारी और अध्यवसाय की जरूरत होती है।

सामरिक विजय के लिए अंग्रेजों ने क्या किया था, इसकी पूरी तस्वीर हमारे सामने नहीं है, परंतु सांस्कृतिक विजय के लिए जिस तरह का अध्यवसाय एशियाटिक सोसाइटी के माध्यम से आरंभ हुआ और कंपनी के प्रबुद्ध जनों की जैसी पहल रही उसकी ओर ध्यान जाने पर, एक समाज के रूप में अंग्रेजों के प्रति गहरा सम्मान पैदा होता है, और विलियम जोंस के प्रति सम्मान बढ़ जाता है, क्योंकि इसके नायक और उन्नायक वही थे।
सोसाइटी की आधारशिला रखते हुए उन्होंने दिखावे से बचते हुए, मध्यम मार्ग अपनाते हुए लंबे समय तक पूरी तत्परता से काम करने की सलाह दी थी।[1]

और इसके अगले वर्ष का व्याख्यान देते हुए, उन्होंने आह्लादित हो कर कहा था, जब मैं इस बात पर गौर करता हूं कि आप लोगों ने एशिया के इतिहास, कानून, आचार व्यवहार, विभिन्न कलाओं के विषय में इतनी संजीदगी से सभी मुद्दों पर विचार विमर्श किया है तो मेरी समझ में नहीं आता कि मुझे इस पर अधिक प्रसन्नता हो रही है या आश्चर्य। मैं इस बात से इंकार नहीं कर सकता कि आपने जितनी प्रगति की है उसकी मैंने उम्मीद तक नहीं की थी। [3]

ये मात्र उत्साह बढ़ाने के लिए कोरे भावोउद्गार नहीं हैं। वे सप्ताह में एक बार मिलते थे कहीं से भी किसी तरह की मिली हुई नई सूचना को लेकर विचार करते थे और उनमें से जो एक मूल्यवान दिखाई देता था उसे वार्षिक प्रकाशन के लिए रखते थे। एशियाटिक रिसर्चेज में प्रकाशित लेखों से इसकी पुष्टि भी होती है।

उनकी एक समस्या थी भारतीयों से कैसे उन सूचनाओं और कृतियों को प्राप्त किया जाए जिनकी जानकारी उनके पास है, पर वे सुलभ नहीं कराते।
उसे अपने तरीके से जाँचा और परखा कैसे जाए। इससे भी बड़ी समस्या थी अपनी मान्यताओं का भारतीयों को कायल कैसे किया जाए।

हिंदुओं में ही नहीं मुसलमानों में भी कुछ लोग तो ऐसे थे ही जो केवल आर्थिक प्रलोभन से वश में नहीं किए जा सकते थे। यह विलियम जोंस की सूझ थी कि उपाधियों और खिताबों से उनको भी काबू में किया जा सकता है।[4]

यहाँ से शुरू होता है महामहोपाध्याय, कविराज, आलिम फाजिल आदि उपाधियों से संस्कृत के प्रकांड विद्वानों को सांस्कृतिक अनुगामी बना कर शेष संस्कृत विद्वानों को और उसके बाद सामान्य शिक्षित समाज में अपनी मान्यताओं का प्रसार और आलोचना व पुनर्विचार का रास्ता बंद करने का आयोजन। नाइटहुड आदि का उपाधियाँ इसी का विस्तार थीं। भौतिक सत्ता और सांस्कृतिक वर्चस्व को सुदृढ़ बनाने के इस प्रयोग के जनक भी सर विलियम जोंस ही हैं।

एशियाटिक एशियाटिक सोसाइटी के सदस्यों में जो लोग सम्मिलित थे उनमें से अधिकांश का अपना योगदान कम सराहनीय नहीं था, और इनके सहयोग के बिना स्वयं हम अपनी भाषाओं का विकास तक नहीं कर सकते थे। न हम अपने साहित्य को जानते थे न अपने देश को। दूसरे देशवासियों से हमारे पुराने संपर्क की बात ही अलग है। हमारा ध्यान उसकी ओर भी उनकी पहल के बिना नहीं जा सकता था।

सुनने पर पीड़ा अवश्य होती है कि विलियम जोंस ने हमारे ज्ञान के स्तर को देखते हुए हमारी तुलना बच्चों से की थी[2] परंतु सच्चाई यही है कि कम से कम इस चरण पर हमारी जो स्थिति थी उस पर इस टिप्पणी को पूर्वाग्रह से प्रेरित नहीं कहा जा सकता।

प्राचीन भारत में, अपने उत्कर्ष दौरों में भी हमने बहुत सारे काम उतने सलीके से नहीं किए थे। अधिकांश क्षेत्रों में भारत ने असाधारण प्रगति की थी। कुछ मामलों में पीछे रह गए थे। पहली नजर में वे बहुत गंभीर पहलू नहीं प्रतीत होते, परंतु वे वैज्ञानिक सोच की नींव के पत्थर हैं। एक शब्द में इसे सटीकता कह सकते हैं।

इसका कुछ संबंध हमारी प्रकृति की उदारता से भी है। यदि आपके पास जरूरत से कम अनाज है तो आप एक एक दाने को जोड़-बटोर और सहेज कर रखेंगे। यदि अधिक है तो कुछ बिखर और नष्ट भी हो जाए तो चिंता नहीं करेंगे।

हमारी स्मृति रेखा धुँधले रूप में दसियों हजार साल पीछे तक जाती थी जिसे बचाने और दूसरों तक और बाद की पीढ़ियों तक पहुंचाने के प्रयत्न में एक अनूठी शैली विकसित हुई थी। इतिहास को कहानियों में पिरो कर सुनाने के इस तरीके को मिथकविधान कहते हैं, जो इसके लिए सही शब्द नहीं है। परंतु जिनके पास इसकी पूँजी नहीं थी, वे ही इसे माइथॉलजी कहते हैं। इसका अनुवाद हिंदी में देव शास्त्र के रूप में किया जाता है, जो और भी गलत है। फिर भी यह तो कहा ही जा सकता है कि इस शैली में जिसमें अतिरंजना से काम लेना पड़ता था सटीकता संभव ही नहीं थी।

इस विस्मयकारी अतीत के सामने प्रतापी लोग भी अपने को इतना मामूली समझते थे कि वे यह न मान पाते थे कि वे पुरखों की तुलना में कहीं आते हैं, कि उन्हें अपने को कोई महत्व देना चाहिए।

जीवन और जगत के विषय में हमारे सोचने का तरीका अलग था। जीवन की नश्वरता, पुनर्जन्म, कर्मफल के सिद्धांत और हमारी मूल्य प्रणाली में आसक्ति, अभिमान को दोष मानने के कारण, दुनियादारी के सभी रूप, यहां तक कि यश की आकांक्षा को ही निंदनीय माना जाता था । इसलिए राजाओं तक में अपने यश और कीर्ति को अमर बनाने की लालसा नहीं देती। गुप्तदान, गुप्तनाम से रचना जैसा विराग भाव, सुनने में अच्छा लगता है, परंतु ज्ञान परंपरा के निर्वाह की दृष्टि से सही नहीं लगता।

कंप्यूटर और सांख्यिकी से परिचित हम लोग आज यह जानते हैं कि हमारी स्मृति में जितनी अधिक सूचनाएँ होंगी छानबीन करने और किसी सही या लगभग सही नतीजे पर पहुंचने में उतनी ही आसानी होगी। इन सूचनाओं के सही-सही बचाए रखने के लिए दो विधियों का सहारा लिया गया था। एक था ज्ञान को छंदबद्ध करना, दूसरा था कम से कम शब्दों में कम से कम अक्षरों में अपने विचार को सूत्रबद्ध करना। इसका सहारा आज भी विज्ञान में फार्मूलों के रूप में लिया जाता है, और जिसे पाणिनि के सूत्रों में प्राचीन काल में अपनी पराकाष्ठा पर पाया जा सकता है, परंतु या परंपरा पहले से चली आ रही थी। इस पर अधिक भरोसा करने के कारण हमारे देश में गद्य का समुचित विकास नहीं हो पाया। ऐसे कुछ दूसरी ही कारण है जो हमारी अग्रता के भी कारण रहे और जिन पर अधिक भरोसा करने के कारण ललित साहित्य से लेकर विचार साहित्य में भी हम कुछ दृष्टियों से पिछड़े रह गए।

इसलिए, अपने आप को दिलासा देने के लिए हम भले ही सोच लें कि जिस समय विलियम जोंस भारतीय सभ्यता की तुलना पूरे यूरोप की अपने समय तक की ज्ञान संपदा से कर रहे थे उस समय उन्हें भारत के विषय में नाम मात्र को पता था, परंतु एशियाटिक सोसाइटी ने जो काम किए उनको सामने रखते हुए यदि हम अपनी परंपरा पर विचार करें तो पता चलेगा कि उन्होंने जो कारनामे किए वह हमसे न संभव हुए थे न ही संभव हो सकते थे। उनसे जो कुछ मिला था, उसमें से बहुत कुछ हमने खोया है, जोड़ा कुछ नहीं है।

प्रयोजन को भूल जाएं, पर काम ये जरूरी थे। उन्होंने जनसामान्य में शिक्षा के प्रसार के लिए भारतीय भाषाओं का विकास किया, उनकी परिधि नियत की, उनका व्याकरण लिखा, उनके लिपि के लिए टाइप तैयार किए, छपाई घर बनाए, किताबें प्रकाशित की, पत्रिकाओं के प्रकाशन की संभावना जगाई, भारत के भूगोल को समझने के लिए ऊंचाई, नीचाई की सही माप की, विभिन्न स्थानों के सही अक्षांश और देशांतर तय किए, हमारी वन संपदा और भूगर्भीय संपदा की तलाश की और उसका सही रूप, नाम, प्रकृति आदि का निर्धारण किया। प्राचीन कृतियों की खोज की, क्रम निर्धारण किया। अपनी ही प्राचीन लिपि पढ़ना तक हम भूल गए थे। हमारा वेदों से लेकर संस्कृत के समस्त वांग्मय पर केवल ब्राह्मणों का अधिकार था जिनमें से 99% ग्रंथों का नाम जानते थे परंतु उन्हें पढ़ना लिखना नहीं जानते थे। इसे सभी के लिए सुलभ कराने और इनके रहस्य बने हुए ज्ञान को सार्वजनिक करने का दायित्व भी उन्होंने निभाया। पुरातत्व हो या नृतत्व सभी के प्रति हम उदासीन थे।

आत्मानं विद्धि का मंत्र जपने वाले हम, ब्रह्म को तो जानते थे, पर अपनों को नहीं जानते थे, स्वयं अपने को नहीं जानते थे। भले यह उन्होंने अपने साम्राज्य के स्थायित्व के लिए सांस्कृतिक विजय के रूप में किया हो, इसके प्रति हमें सचेत रहने के साथ कृतज्ञ होना भी जरूरी है।

विलियम जॉन्स ने संस्कृत साहित्य के चुने हुए ग्रंथों का अंग्रेजी में अनुवाद करके भारत के प्राचीन ज्ञान और साहित्य के वैभव से पहली बार यूरोप को परिचित कराया जिस सिलसिले को आगे दूसरे विद्वानों ने जारी रखा। इससे यूरोप का दर्शन सौंदर्यशास्त्र, कविता, मूल्य व्यवस्था सभी पर, यहां तक कि, कुछ लोग दावा करते हैं, विज्ञान पर भी कितना गहरा असर पड़ा जो आज तक जारी है इसका परिचयात्मक विवरण देना भी, यहां उचित न होगा।

[1]… we must keep a middle course between a languid remissness, and over zealous activity, and that tree which you have planted, will produce fairer blossoms and more exquisite fruit, if it be not at first exposed to too great a glare of sunshine .( A Discourse of the Institution of Society, for instituting into the history, civil and natural, the antiquities, arts, sciences and literature of Asia.)
[2] Permit me now to add a few words on sciences, properly so named, in which must it be admitted that the Asiatics, if compared with our western nations, are mere children. (Second anniversary Discourse, 1785)
[3] When I reflect, indeed, the variety of subjects which have been discussed before you, concerning the history, laws, manners, arts, and antiquities of Asia, I am unable to decide whether my pleasure or my surprise be the greater; for I will not dissemble that your progress has far exceeded my expectations.
[4] With a view to avail ourselves of this disposition, and to bring their sciences under our inspection, it might be advisable to print and circulate a short memorial, in Persian and Hindi , setting forth, in a style accommodated to their own habits and prejudices, the design of our institutions; nor would it be impossible hereafter, to give a medal annually, with the inscriptions, in Persian on one side and on the reverse in Sanskrit, as a prize of merit, to the writer of the best essay or dissertation. To instruct others is the prescribed duty of the Brahmans, and if they be men of substance, without reward; but they would all be flattered with an honorary mark of distinction…. वही।