प्रूफ देखते हुए
फूलप्रूफ -3
समाज का प्रत्येक व्यक्ति उसका प्रतिनिधि होता है। जिसने उस समाज के केवल एक व्यक्ति को देखा वह अकेले उसके आचरण के माध्यम से ही उस पूरे समाज को देखने को बाध्य होगा। जिस समाज में विरोधी गुणों विचारों और कार्यों वाले लोगों की संख्या अधिक हो वहां तय करना कठिन हो जाता है कि उसका कौन सा तबका उसका सही प्रतिनिधित्व करता है। कोई भी समाज एकपिंडीय नहीं होता। जड़ पदार्थों तक में प्राकृतिक रूप में किसी भी तत्व की प्रधानता हो सकती है परंतु अनेक दूसरे तत्व मिले होते हैं, जिन को अलग करने के बाद उसे शुद्ध रूप में पाया जाता है। इसलिए किसी भी पूरे समाज को उसके किन्हीं तत्वों, या प्रवृत्तियों को आधार बनाकर समग्रतः अच्छा या बुरा सिद्ध करना गलत है।……..
किसी भी समाज को काले या सफेद रंग में रंग कर देखना, उसे फूटी आंख से देखने जैसा है। उसे अच्छा या बुरा कहने की जगह, इस बात पर ध्यान देना अधिक जरूरी है कि वह जो कुछ बना है, किन परिस्थितियों में, किन कारणों से, बना है? उनको सुधरने में कितने प्रयत्न और कितने समय की जरूरत पड़ सकती है? बीमारी दवा से दूर हो सकती है, पर उससे पैदा हुई दुर्बलता दूर होने में समय, सावधानी और संयम तीनों की जरूरत होती है। इनमें से किसी की भी कमी जानलेवा हो सकती है। राजनीतिज्ञों से मुझे इसलिए डर लगता है कि वे, यदि उनका इरादा सही हो तो भी, जल्द से जल्द परिणाम चाहते हैं और इस जल्दबाजी के कारण न्याय के लिए खड़े होने वाले आंदोलनों द्वारा स्वयं जितना अन्याय किया जाता है उसका अनुपात प्रायः अपराधियों द्वारा किए गए समस्त कुकृत्य से अधिक पड़ता है। बीज डालते ही फल की कामना करने वाले अधिक खाद, अधिक पानी देकर बीज को भी सड़ा सकते हैं, परंतु मनचाहा फल नहीं पा सकते। राजनीतिज्ञों की बदहवासी दूर करने के लिए बुद्धिजीवियों की आवश्यकता इसलिए पड़ती है कि वे ही बता सकते हैं कि कितनी खाद, कितना पानी, कितना धैर्य और कितना समय फलागम के लिए जरूरी होता है। राजनीति से जुड़ने वाले बुद्धिजीवियों की दशा राजनीतिज्ञों से भी गर्हित होती है। वे राजनीतिज्ञों के चापलूस बन कर रह जाते हैं, वे अपने क्षेत्र के की मर्यादा में रहकर राजनीतिज्ञों को सही दिशा दिखाने का काम नहीं कर पाते।
इस बात का ध्यान बहुत कम लोग रख पाते हैं कि एक कट्टर मुसलमान, वर्ण की श्रेष्ठता में विश्वास करने वाला ब्राह्मण और एक नस्लवादी गोरे में गहरी समानता होती है फिर भी अपने ही समाज के दूसरे व्यक्तियों की अपेक्षा ये ही एक दूसरे से अधिक नफरत करते हैं। मैं इनमें से किसी को दंड या आतंक से न तो सुधारने का पक्षधर हूं न ही इस तरह किसी को सुधारा जा सकता है।
परंतु इस बोध के अभाव में यदि हम यह न समझ सकें किसके साथ हमें कैसे बर्ताव करना है, तो हम आत्मघाती तो सिद्ध हो सकते हैं, तत्वदर्शी नहीं। 19वीं शताब्दी के इतिहासकार एलफिंस्टन ने राजपूतों और मराठों के बीच अंतर बताते हुए कहा था एक राजपूत योद्धा समर भूमि में उतरने के बाद परिणाम की चिंता नहीं करता, यदि करता है तो कुलकलंक है। एक मराठा परिणाम को छोड़कर किसी बात की चिंता नहीं करता और इसके लिए वह कुछ भी कर सकता है। इस पर अपनी ओर से टिप्पणी करते हुए अब्राहम इराली की टिप्पणी है, राजपूत के लिए युद्ध ही सिद्धि है, मराठे के लिए यह साधन है। राजपूत खेलता था, मराठा जीतने के लिए खेलता था।
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हमने अपनी बात यहूदियों से इसलिए आरंभ की थी कि भारतीय सन्दर्भ मे, एक हजार साल यातना और अधोगति झेलने के बाद भी, हिंदुओं की भूमिका ठीक वही रही है जो यहूदियों की। ज्ञान, विज्ञान, कर्मठता, उद्योग, व्यापार, जीवनादर्श, सहिष्णुता सभी में अग्रणी रहे। यह मैं अपनी ओर से नहीं कह रहा हूं। यह दो परस्पर उल्टी सोच वाले अग्रणी मुस्लिम नेताओं सर सैयद अहमद और अल्लामा इकबाल का कथन है। आधुनिक शिक्षा आदि के मामले मे हिंदुओं की अग्रता का रोना रोने के बाद सर सैयद कहते है, पूरे राष्ट्र में काम की दक्षता के मामले में कोई भी हिंदुओं के मुकाबले का नहीं है। इसके एक साल बाद उन्होंने इसी को कुछ विस्तार से समझाया था।
उनकी ही स्वीकृति के अनुसार कट्टरता को ढाल बनाने वाले मुसलमानों की उत्पादक क्षमता नगण्य रही है। तलवारबाजी और रंगबाजी के अतिरिक्त उनकी कोई भूमिका नहीं। वे केवल अशांति पैदा कर सकते हैं। उनमें कामकाजी लोग किन्हीं परिस्थितियों में इस्लाम कबूल करने के लिए बाध्य हुए हिन्दू ही रहे हैं।
अल्लामा इकबाल के अनुसार भी हिंदू हर माने में मुसलमानों से आगे है पर उसमें वह एकबद्धता नहीं है जो इस्लाम ने पैदा की। योग्यता के अभाव में एकबद्धता गौरव की चीज है या ग्नानि की इस पर हम कोई टिप्पणी नहीं करना चाहेंगे पर यह पाई पशुओं के झुंड में भी जाती है। इकबाल भी मुसलमानों में मानवसुलभ गुणों की जगह भावुकता, पशुसुलभ गिरोहबद्धता को ही हवा देते रहे।
यदि उक्त कथनों से बात समझ में न आती हो तो इस उदाहरण से समझें कि विभाजन से पहले पूर्वी बंगाल भारत का सबसे समृद्ध प्रदेश माना जाता था। नहरों की सुविधा के बाद पंजाब का भी वही हाल हो गया था। फिर भी बांग्लादेश और पाकिस्तान दोनों की आर्थिक दुर्दशा का कारण यह है कि वहां हिन्दू नहीं रह गया, जो लगभग एक हजार साल तक तरह तरह के जुल्म का शिकार होने के और शिक्षा संस्थाओं की दुर्गति के बाद भी अपने श्रेष्ठ मानवीय गुणों को भी बचाए रहा और योग्यता को भी उसे वहाँ से हटा या निष्क्रिय बना दिया गया। ,,,
यह विचित्र संयोग है कि सभी दृष्टियों से अग्रता और बहुमत के बावजूद हिंदू के साथ भारत में ठीक वैसा ही नजरिया अपनाया जाता रहा जैसा यूरोप में यहूदियों के साथ। हिंदू शब्द, उसके सांस्कृतिक प्रतीक, मूल्य व्यवस्था सभी का उपहास किया जाता रहा। जो अपने खुराफाती होने पर गर्व करते हैं उनकी ऐसी आदतों, विचारों और विश्वासों का पोषण किया गया जिससे उनका भी अहित होना है, और होता रहा है, और दोष उल्टे हिंदू समाज को दिया जाता रहा है।