प्रूफ देखते हुए
फूलप्रूफ-2
धर्म कोई भी हो, परलोक के किसी रूप से प्रेरणा ग्रहण करता हो, वह इस लोक में सुख, शांति और विश्वास से जीने के रास्ते में कई तरह की रुकावटें पैदा करता है। समाज की बागडोर बौद्धिक दृष्टि से कुंद, नैतिक दृष्टि से संदेहास्पद, सामाजिक दृष्टि से गैर जिम्मेदार, और देश दुनिया से बेपरवाह पंडों, महंतों, पुरोहितों, मुल्लाओं, पादरियों के हाथ में सौंप दी जाती है, जो सबसे चिंताजनक बात है। मुहावरा मुझे याद नहीं, वाक्य दारा का है, और भाव भाव यह है जहां मुल्ला मुल्ला की चलती है वहाँ इंसान का बसर नहीं ।
यह बात केवल मुल्लों के विषय में सही नहीं है अपने धार्मिक समुदाय पर कब्जा जमाने वाले या जमाने का प्रयत्न करने वाले ऊपर के सभी लोगों के विषय में सही है।
ये समझ की जगह उन्माद पैदा करते हैंं। अपने ही समाज को बांध कर रखना चाहते हैं।
ये दूसरों की कमाई पर पलने वाले घोर आत्मकेंद्रित प्राणी होते हैं जो अपने हित के लिए, अपने ही समाज को पीछे ले जाने के अतिरिक्त कोई काम नहीं करते और अपनी धाक बनाए रखने के लिए उसे आफत में झोंक देते हैं।
इसके बाद भी हमारी सामाजिक पहचान धर्म, पंथ, जाति से इस तरह जुड़ी हुई है कि इन्हें नकारने के बाद भी हम इनसे मुक्त नहीं हो पाते।
हम केवल यह देख सकते हैं कि किसकी पकड़ ढीली है, कौन मुक्त होने की अधिक छूट देता है और इस दृष्टि से संगठित धर्म, एकेश्वरवादी धर्म अपने अनुयायियों को धार्मिक कर्मकांड से बांधकर, बहुदेववादी धर्मों की अपेक्षा अधिक से अधिक गुलाम बनाने का प्रयत्न करते हैं। इसलिए जहां जहाँ, जितने समय तक, इनका जितना अधिक प्रभाव रहा है समाज उतना ही उद्विग्न, बर्बर और पतनोन्मुख रहा है, और इनसे मुक्त होने, या इनका शिकंजा ढीला पड़ने के अनुपात में ही कोई देश या समाज अधिक मानवीय, अधिक समावेशी, अधिक प्रबुद्ध और महत्वाकांक्षी बना है।
यह मात्र इत्तफाक नहीं है कि विश्व की महान सभ्यताएं एकेश्वरवादियों से पहले रही है और इनकी जकड़ से मुक्त होने के बाद ही उन में पुनर्जागरण आया है।
यह दुष्प्रचार कि एकेश्वरवाद अधिक वैज्ञानिक है, बहुदेववाद पिछड़ी मानसिकता की देन है, सर्वेश्वरवाद आदिम चेतना की उपज है़, एकेश्वरवादी सोच का परिणाम जो स्वयं बहुदेववाद का समर्थन करता है।
यह बात चौंकाने वाली लगेगी, परंतु यदि तुम्हारा अल्लाह /गॉड/ यह्व अपने कबीले के लिए ही है, अपनी धर्म सीमा में ही रहता है, तो तुम्हारे अल्लाह के अलावा दूसरे अल्लाह तो तुम्हारी संकीर्णता से ही पैदा हो गए, दुनिया में अपनी अपनी अपनी भाषा के अपने अपने इलाके में रहने वाले बहुत सारे अल्ल्ह और ईश्वर इसी तर्क से पैदा हो जाएंगे।
सैद्धांतिक रूप में सभी एकेश्वरवादी धर्म इतने संकीर्ण हैं, कि अपने अल्लाह के नाम पर कबीले का सरदार तो पैदा कर सकते हैं, समूचे विश्व का, सभी प्राणियों का, हित चाहने वाले परमेश्वर की कल्पना नहीं कर सकते हैं। यह बहुदेववादियों में ही संभव है; तथाकथित जाहिलिया में भी था।
परम शक्ति के विषय में अपने ऊहापोह में वे ‘होते हुए भी न होने जैसे शून्यवत ब्रह्म’ की कल्पना कर सकते हैं, जिसे गॉड पार्टिकल के रूप में पहचानने का भौतिक विज्ञानियों ने आज दावा किया है।
अधिक विवेकसम्मत कौन है यह फैसला हम नहीं करना चाहेंगे। परंतु इसकी वैज्ञानिकता हमारे लिए इसमें नहीं है कि आज की वैज्ञानिक खोज वैदिक अवधारणा से मेल खाती है, बल्कि इसमें है कि किसी ने परम सत्ता के किसी रूप को गढ़कर दूसरों पर लादी की तरह लाद नहीं दिया; उन्हें प्राण का भय दिखाकर उसे ढोने को मजबूर नहीं किया, अपितु संशय का दरवाजा स्वयं खुला रहने दिया:
को अत हा वेद,क इह प्रदेचत, क्त आजाता, कुत इदं विसृष्टिः
अर्वाक्वा देवा अस्य विसर्जनेन अथा को वेद यत् आ्रवभूव।।
इदं विसृष्टिः यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
यो अस्य अद्यक्षः परमे व्योमन् सो अंग वेद यदि वा न वेद।।ऋ.10.129.6,7
(अनुवाद आप इंटरनेट से तलाश कर सकते हैं)
जहां तक सर्वेश्वरवाद का सवाल है, पर्यावरण की चिंता, समस्त प्राणियों-पादपों को बचाने और समस्त सृष्टि की चिंता, हमारी आज की सबसे बड़ी चिंता है, आर यही सर्वेश्वरवाद का केंद्रीय सरोकार रहा है, इसलिए उसका उपहास नहीं किया जा सकता।
जो सबसे हास्यास्पद है वह है एक सर्वोपरि सत्ता, और उसके प्रतिस्पर्धी शैतान, अल्लाह के नीचे फरिश्तों की फौज, फरिश्तों में भी ऐसे जो अल्लाह को भी कुछ न समझें, अलग से जिन्नों का अस्तित्व और सब कुछ इस अल्लाह को मानने वालों तक सीमित जो उनके कबीले की जबान बोलता है, और अपराध के सभी रूपों का समर्थन करता है, बशर्ते यह उसे सजदा करने वाले, उसकी शान में करें, पर यही काम तो शैतान करता है।
शैतान से अल्लाह को बचाना, और शैतानी से से इंसानियत को बचाना मुसलमानों का पहला दायित्व होना चाहिए।
अल्लाह की अनन्यता में विश्वास, पैगंबर की पैगंबरी में विश्वास और फैसले के दिन और उसके दंड-पुरस्कार – दोजख और जन्नत में विश्वास ये तीन सिद्धांत हैं जिनमें से कोई मुसलमान किसी को नकार नहीं सकता। ट्रिनिटी यहां भी है।
अल्लाह की इच्छा के बिना कुछ हो ही नहीं सकता। अल्लाह की मर्जी के बिना न शैतान हो सकता है, न कुछ बिगाड़ सकता है। इसलिए मानना होगा कि वह भी अल्लाह का ही एक दूसरा रूप है। दोनो रूप कुरान में हैं। स्वस्थ या प्रसन्न अल्ला रहीम और करीम होता है, सबकी सुनता है, दुआएँ देता है, बीमार या कुपित अल्ला शैतान की भूमिका में आ जाता है, धमकियां देता, बर्वाद करता, मनमानी करता और किसी की नहीं सुनता।
स्वस्थ और अच्छे बुरे की समझ रखने वाला रहमदिल पैगंबर पहले के साथ होता है; आपा खोने वाला, सताने मे मजा लेने वाले बीमार पैगंबर दूसरे के चंगुल में आ जाता है।
मुसलमानों को यह सोचना होगा कि वे अपने समाज को स्वस्थ बनाना चाहते हैं आगे ले जाना चाहते हैं या बीमार बनाना चाहते हैं और इसी के अनुसार पैगंबर का, अपने अल्लाह और कुरान की अपनी आयतों का चुनाव करना होगा।
ब्रह्मांड की खोज की जा चुकी है, स्वर्ग नरक नहीं मिले। इसी धरती पर स्वर्ग बनाने या इसे नरक बनाने के बीच भी चुनाव करना होगा, परंतु यह स्वर्ग ऐसा नहीं हो सकता जिसमें इंसान बागड़ा बकरे की भूमिका में अपने जीवन की सार्थकता माने।
यह काम कोई मुल्ला मौलवी नहीं कर सकता जिसकी दिलचस्पी समाज को बीमार बनाए रखने मे होती है। यह काम मुस्लिम बुद्धिजीवी कर सकते हैं, कोई दूसरा बुुद्धिजीवी भी नहीं।
परंतु ईश्वर किसी का हो, विज्ञान ने और कुछ किया हो या नहीं, उन सभी अंधेरे कोनों को रौशन कर दिया है जहां देवता और ईश्वर छिपे रहते थे, इसलिए किसका ईश्वर सच्चा ईश्वर है, इस बहस में आज पड़ना नासमझी के सिवा कुछ नहीं है।