Post – 2019-10-17

#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (13)
क्या मिला खाक छानने के बाद

विलियम जोंस को यह जानते हुए कि उन्हें समस्या की पूरी समझ नहीं है, कुछ भी सुझाने की जगह, साहस पूर्वक समस्या के सभी पहलुओं को सामने रखते हुए उनके समाधान के लिए एशियाटिक सोसाइटी से जुड़ने वाले सभी बुद्धिजीवियों को इसके समाधान के लिए आमंत्रित करना चाहिए था।

वह जो समझते थे वह सही था। जिसे मानते और मनवाना चाहते थे, वह गलत था। यह सही था कि यूरोप के लोग भारतीयों की औलाद न थे। यह भी सही था कि यूरोप पर भारत का लंबे समय तक राज्य नहीं था।

अपने लंबे अनुसंधान में उन्होंने पाया कि यूरोप की लातिन और ग्रीक आदि जातियों का उस काल्पनिक ईरान में कभी निवास नहीं रहा, इसलिए उन्हें मध्य देश ईरान से भी संस्कृत-भाषियों का ही प्रव्रजन कराना पड़ा। यह सोच भी उतनी ही गलत थी। उनकी सोसायटी से जुड़ने वाले अनेक लोग थे जो उनकी तुलना मे बहुत लंबे समय से भारत में थे, पद जो भी रहा हो प्रतिभा में कम न थे। यदि जोंस ने इसके समाधान के बचन के साथ उनको इस दिशा में प्रेरित करते हुए उनसे भी विचार विमर्श किया होता तो इसका अधिक सम्मानजनक हल निकल आया होता।

हम पहले यह समझें कि वे और उनसे पहले के वे यूरोपीय विद्वान जो यह समझ कर चकित थे कि संस्कृत का यूरोप की मानक भाषाओं से साथ समानता है, वे लगभग डेढ़ सौ साल से इसके ऊहापोह में लगे थे।

यह बोध रोबेर्तो द नोबिली ((1577 – 16 January 1656) was an Italian Jesuit missionary to Southern India. He used a novel method of adaptation (accommodation) to preach Christianity, adopting many local customs of India which were, in his view, not contrary to Christianity.) के साथ ही, अर्थात् सत्रहवीं शताब्दी के आरंभ में पैदा हो गया था और उसने इसका समाधान भी तलाश लिया था। समाधान वह भी गलत था, पर उसे मानने से उसके ईसाइयत के प्रसार के उद्देश्य अवश्य पूरे होते थे ।

वह यदि ईसाइयों के बीच सम्मानजनक स्थान पा सका होता तो आज पूरा भारत वर्ष ईसाई बन चुका होता। उसका सही मूल्यांकन आज तक नहीं हुआ। मानने को उसने भी यही माना कि हिंदू स्वयं मानते हैं कि उनके वेद लुप्त हो गए थे। वे समुद्र पार से जुटाए गए क्या उनका उद्धार किया गया। यह मान्यता उसमें यह विश्वास पैदा करने के लिए पर्याप्त थी कि वेद कहीं समुद्र पार से भारत में लाए गए हैं । भाषा की समस्या उसके लिए नहीं थी। उसने इसी विश्वास का उपयोग करते हुए, उनकी भावना का सम्मान करते हुए, उसका लाभ उठाते हुए, उनके बीच जगह बनाने की कोशिश की।

मुझे लगता है वह पाखंडी नहीं था, उसे सचमुच यह विश्वास था कि वेद ही नहीं ब्राह्मण भी यूरोप से आए हुए हो सकते हैं। उसको बाइबिल के बहुत से उपदेश भारतीय चिंता धारा के अनुरूप प्रतीत हुए। उसने बाइबल के ऐसे ही अंशों को जुटाकर संस्कृत में उनका अनुवाद किया। हिंदुओं को यह समझाया कि तुम्हारे चार वेद तो पाताल लोक से आ गए थे, परंतु एक वेद वही छूट गया था। वह पांचवा वेद लेकर मैं आया हूँ।

यहां जिस सच्चाई की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूँ वह यह कि उसे लगा वेद और पुराण में आस्था रखने वाले ब्राह्मण भी उसी पाताल देश से आए हो सकते हैं जिससे उनके वेदों का उद्धार हुआ था। यह समुद्र पार का पश्चिम ही था। इसके साथ एक मामूली चालाकी भी जुड़ी हुई थी कि यदि ईसाइयत का प्रचार उसे भारतीय मनोभावनाओं के अनुरूप ढालते हुए किया जाए तो भारतीय समाज में इसे आसानी से स्वीकार्य बनाया जा सकता है।

हम यहां जिस समस्या का समाधान करना चाहते हैं वह इस रूप में नोबिली के सामने थी ही नहीं, इसलिए काले लोगों की भाषा पश्चिम में कैसे फैली यह समस्या उसके सामने थी ही नहीं।

लगता है उसे सचमुच विश्वास था कि वेदों की, वेदों की भाषा की. और वेदों काे अपनी अनन्य संपदा समझने वालों की भी मूल भूमि यूरोप ही थी, और प्राचीन काल में हमारा आचार ब्राह्मणों जैसा रहा होगा, इसके बाद भी वह ईसाइयत को सर्वोपरि मानता और उसका प्रचार करना चाहता था और इसके लिए हिंदू जीवन मूल्यों को आदर्श जीवन मूल्य मानते हुए अपनाने का भी समर्थन कर रहा था और स्वयं अपने जीवन से इसका उदाहरण भी पेश कर रहा था। इसलिए गोरे का काला होना या काले का गोरा होना उसकी समस्या नहीं थी। परंतु ईसाई उसकी प्रचार पद्धति को अपना नहीं सके और कट्टर ईसाई होने के प्रयास में अपने तईं इस बात के कायल होते गए की प्रव्रजन तो भारत से ही हुआ है भारत के लोग ही यूरोप में थे। और हम उन्हें की संतान हैं उन्होंने भारत पर बहुत लंबे समय तक शासन किया होगा जो पश्चिमी नवोदित राष्ट्र भावना के विपरीत था। इसलिए उनकी चेतना में काले ब्राह्मणों की औलाद होने या उनके द्वारा लंबे समय तक शासित होने भावना तेज होती गई।

इस समस्या से जूझते, इसका समाधान करने के प्रयत्न में रंगभूमि में उतरने वाले और संस्कृत की महिमा को स्वीकार करते हुए भी इसे किसी अन्य देश के भीतर से आया हुआ सिद्ध करने का उनका प्रयत्न सफल न हुआ। यह मैं नहीं करता कहता हूँ। इसे उनके सभी यूरोपीय विद्वानों ने मानने से इनकार कर दिया। वे किसी अन्य देश की खोज में लगातार व्यस्त रहे कि अंतर्विरोध कम से कम दिखाई दे।

ईरान के साथ उन्होंने भौगोलिक केंद्रीयता का तर्क पेश किया था, उसके उल्टे परिणाम सामने आए। पडोसी होने के नाते अरबी और उनकी परिभाषा की तातारी को संस्कृत से निकटता रखनी चाहिए थी। यहाँ परिणाम उल्टे निकले। ईरान में लैटिन और ग्रीक जनों की उपस्थिति या संपर्क का कोई प्रमाण नहीं मिला। इसलिए उन्हें यह मानना पड़ा कि ब्राह्मण जो संस्कृत बोलते थे ईरान से पूरब की ओर भारत पहुंचे और पश्चिम की ओर इटली आदि में । प्रकारांतर से यह मानना पड़ा कि यूरोप की इन भाषाओं का प्रसार संस्कृत भाषी ब्राहमणों द्वारा किया गया है। ईरान में वह ब्राह्मणों की उपस्थिति का कोई प्रमाण तलाश कर सके। परिणाम यह संस्कृत का प्रचार करने वाले यह लोग भारत से ही वहाँ पहुंचे हो सकते हैं।
चले जहां से वही आखिरी मुकाम भी है ।
परंतु इसके बाद भी यूरोप में यह प्रचारित करके कि संस्कृत भारत की नहीं कहीं अन्यत्र की भाषा रही है काले लोगों की संतान होने की ग्लानि से बचाकर एक नया विश्वास पैदा कर दिया।