#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (12)
विलियम जोंस की व्यग्रता
मेरा इरादा विलियम जोंस की आलोचना करने का नहीं है, उनकी मनोदशा को समझने और उनके विचारों को यथासाध्य निःसंगता से प्रस्तुत करने का है। हम उस घबराहट को समझने का प्रयत्न कर रहे हैं, जो उनके ऊटपटांग बयानों से प्रकट होती है। पिछली पोस्ट के अंतिम उद्धरण की इस पंक्ति पर ध्यान दें Persia seems likely to have sent forth its colonies to all the kingdoms of Asia । इतिहास का इतना बड़ा निर्णय और इसका आधार ‘ऐसा लगता है’ – अंधे को अंधेरे में बहुत दूर की सूझी। इतनी लंबी छानबीन के बाद एक भी प्रमाण नहीं। केवल यह कि यदि किसी क्षेत्र से ये सभी भाषाभाषी समुदाय निकल कर अपने वर्तमान क्षेत्रों में पहुँचे होंगे तो लगता है यह ईरान ही रहा होगा।
मगर क्यों?
क्योंकि यह उन सभी भाषाक्षेत्रों के केंद्र में है। इसी से वे सभी भाषाएँ जातियाँ निकली होंगी जिनमें संस्कृत से निकटता पाई जाती है और इसलिए संस्कृत ईरान में बोली जाती रही होगी। जिस दुखती रग को उन्होंने जाहिर नहीं होने दिया वह यह था, कि यहाँ के लोगों की चमड़ी का रंग ऐसा है जो काला नहीं कहा जा सकता, इसलिए गोरी जातियां भी इससे निकली हो सकती हैं।
परंतु यह भौगोलिक सत्य तो उन्हें इंग्लैंड से रवाना होने से पहले से विदित था। इसकी घोषणा उन्हें पहले ही व्याख्यान में कर देनी चाहिए थी। इसमें उन्होंने इतना समय क्यों लगाया?
अपने सर्वेक्षण के पहले और एशियाटिक सोसाइटी के तीसरे व्याख्यान में उन्होंने ग्रीक लातिन आदि को संस्कृत से सभी दृष्टियों से हीनतर मानते हुए भी संस्कृत की समकक्षता में लाने के लिए और संस्कृत का मूल देश भारत से बाहर कहीं होने और यह जानते हुए कि कोई देश ऐसा तो मिलेगा नहीं, जहां संस्कृत से भी पुरानी भाषा मिल जाए, यह प्रतिपादित किया कि वह भाषा विलुप्त हो चुकी होगी। उसका कोई अवशेष तो लक्ष्य देश में,,और इस लंबी यात्रा के बाद, ईरान में बचा होना ही चाहिए था।
निराश न होइए, विलियम जोंस उसे वहां तलाश तो नहीं कर पाए परंतु इसकी संभावना के लिए एक दलील अवश्य तलाश कर ली। दलील यह थी कि समस्या केवल यूरोप की भाषाओं की नहीं है, वह कोई ऐसी भाषा होनी चाहिए जिससे अरबी, तातारी भाषाएं भी निकली हो। यह संस्कृत से तो नहीं निकल सकती। अपनी खोजबीन में उन्होंने यही सिद्ध किया था कि न तो अरबी का संबंध संस्कृत से है न ही तातारी भाषाओं का, और ईरान की छानबीन करते हुए उन्होंने तुक्के जोड़े कि अरब और तातारी ईरान से ही अपने वर्तमान क्षेत्रों में पहुँचे होंगे। जिस भाषा से भारोपीय मानी जाने वाली भाषाओं के साथ अरबी और तुर्की आदि भाषाएं पैदा हों वह तो संस्कृत से पुरानी रही ही होगी:
The three races whom we have already mentioned (and more than three we have not yet found) migrated from Iran.
बड़ा सीधा वाक्य है, परंतु ऐसे वाक्यों के कितने अर्थ किए जा सकते हैं, इसी पर वकालत का पेशा चलता है। भाषा की बारीकियों को समझने वाले, और अपनी जरूरत के अनुसार भाषा के मर्म को नष्ट करने वाले पेशे का नाम है वकालत, और इस पेशे की रक्षा के लिए बनी संस्था का नाम है न्याय प्रणाली।
भारतीय प्रयोग में मंगली का अर्थ होता है अमंगलकारी। न्याय-प्रणाली का सही नाम अन्याय-प्रणाली, और इसे न्याय के लिए नहीं अन्यायियों की रक्षा के लिए बनाया गया है। इसे मैंने सत्य की रक्षा के कई मुकदमें हारने के बाद समझा।
गांधी इसीलिए इसे जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए जी-जान से तत्पर थे। अच्छा वकील गलत को सही सिद्ध करने के लिए ही इतनी जोरदार दलील दे सकता है, और अच्छा न्यायाधीश सत्य और न्याय की रक्षा का दावा करते हुए कितना अन्याय कर सकता है इसे विलियम जोंस के व्याख्यानों को पढने से पहले समझ नहीं सकता था।
अपराधी कंपनी प्रशासन, अपराधी यूरोपीय श्रेष्ठता बोध, अपराधी रंगभेदी प्रणाली की जमात में शामिल होने के कारण विलियम जोंस अपराध की जड़ों को समझ नहीं पा रहे थे क्योंकि किसी भी व्यक्ति या समुदाय या समाज के लिए अपने अस्तित्व की रक्षा रक्षा पहली जरूरत होती है, न्याय, सत्य और आदर्श की रक्षा इसके बाद आती है । शरीरं आद्यं खलु धर्म साधनं।
यदि कोई ऐसी भाषा हो जिससे वे भाषाएं भी निकली हों जिनका आपस में कोई संबंध नहीं, तो वह संस्कृत तो नहीं हो सकती । जरूर कोई ऐसी भाषा थी जिससे अरबी और तातारी जैसी एक दूसरे से दूर फिर भी शब्दावली आदि के मामले में संस्कृत से आभासिक समानताएं रखने वाली भाषाओं को उससे व्युत्पन्न होना चाहि हो, ‘ शब्एदावली के । यदि आप जानना चाहें कि ऐसा उन्होंने क्यों किया तो इसका जवाब
मैं यह नहीं समझ पाता कि विलियम जॉन्स कितना अपनी समझ से काम ले रहे थे और कितना ईसाई या कहें सामी पुराण कथाओं से प्रेरणा ग्रहण करते हुए एक मूल भाषा के करीब पहुंचने की कोशिश कर रहे थे जिसे कभी आदम बोलते रहे होंगे, यह निश्चित करना कठिन है, परंतु यह समझना आसान है कि ऐसा धर्मांध व्यक्ति वैज्ञानिक विमर्श के लिए भरोसे का नहीं हो सकता।
चलिए आदम के निकट पहुंचने वाली उस पूर्ण भाषा पूर्ण व्यवस्था वाले समाज को कोई नहीं मानेगा, इसके बावजूद यह तो मानना ही होगा कि वह अपनी चेतना के स्तर पर वर्तमान से और विश्वास के स्तर पर सामी पुराण से जुड़े हुए थे, और अपने सिद्धांत निरूपण में वह ठीक उसी का विरोध कर रहे थे जिसे जानते थे कि वह सच है।
उन्होंने कहा था संस्कृत ग्रीक और लातिन आदि की जननी नहीें है और इतने दिन के बाद वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि संस्कृत बोलने वाले केवल भारत की ओर रवाना नहीं हुए वे पश्चिम की ओर भी गए और उसी संस्कृत से भारत की आधुनिक संस्कृत पैुदा जिए पूर्व रूप पैदा हुआ और उसी से ईरान में वहां की भाषाएँ पैदा हुईं:
We may hold this proposition firmly established, that Iran or Persia in its largest sense was the true centre of population, of knowledge, of languages and of arts, which instead of travelling westward only as it has fancifully been supposed, or eastward, as might be, with equal reason have been asserted, were expanded in all directions, in all the regions of the world, in which the Hindu race had settled under various denominations.
यह तो रही लातिन और ग्रीक की बात जिनका संस्कृत से सीधा जुड़ाव उन्हें पहली नजर में दिखाई दिया था, परंतु उन भाषाओं के विषय में क्या कहा जाएगा जिनमें संस्कृत की दिखाई देती है. अनुवाद नहीं करूंगा इसके कारण अन्याय होने की संभावना है, अंग्रेजी छीड़ तकच मूल यह है:
…as from their common country ; and thus Saxon chronicle , I presume from good authority, brings the first inhabitants of Britain from Armenia; while a late, very learned, writer concludes, after all his laborious researches that the Goths or Scythians came from Persia. And another contends with great force that both the Irish and Great Britons proceeded severally from the borders of the Caspian; a coincidence of conclusions, from different persons wholly unconnected, which could scarce have happened, if they were not grounded on solid principles.
और यह था विलियम जोंस का ठोस सिद्धांत जिस पर ऐतिहासिक और तुलनात्मक भाषा विज्ञान की नींव रखी गई।