#रामकथा_की_परंपरा(30)
वाल्मीकि
ऋग्वेद में वाल्मीकि का प्राचीन कवियों के रूप में भी उल्लेख नहीं है। यदि वह आदिकवि हैं तो यह खटकने वाली बात है। प्राचीन कवियों में उशना को बड़े आदर से याद किया गया है। गीता में कृष्ण अपना परिचय देते हुए कहते हैं ‘मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः।।10.37” ।
यद्यपि ऋग्वेद में उशना को कुछ सूक्तों का ऋषि दिखाया गया है, पर अन्यत्र उन्हें बहुत प्राचीन कवि के रूप में याद किया गया है
तक्षद् यत त उशना सहसा सहः वि रोदसी मज्मना बाधते शवः ।
आ त्वा वातस्य नृमणो मनोयुज आ पूर्यमाणं अवहन् अभि श्रवः ।। 1.51.10
उशना ने ही इंद्र को गढ़कर वह शक्ति (आयुध) , वह महिमा प्रदान की जिससे उन्होंने आकाश को धरती से अलग किया। उन्हीं के प्रताप से मनुष्य के मन की बात जानने वाले इन्द्र की इच्छा मात्र से रथ में जुत जाने वाले वायु के अश्व उनकी प्रशस्ति को चतुर्दिक वहन करते हैं।
त्वमिन्द्र नर्यो याँ अवो नृन्तिष्ठा वातस्य सुयुजो वहिष्ठान् ।
यं ते काव्य उशना मन्दिनं दाद् हणं पार्यं ततक्ष वज्रम् । 1.121.12
लोक रक्षक इंद्र वायु के अश्वों से सन्नद्ध आसानी से तुम्हें कहीं भी पहुंचाने वाले रथ पर उस संहारकारी वज्र को लेकर सवार हो जाओ जिसे उशना ने तुम्हारे लिए गढ़ कर तैयार किया है।
इस विषय में कोई दुविधा नहीं रह जाती कि यहां जिस उशना की बात की जा रही है वह इन ऋचाओं से बहुत पुराने ऐतिहासिक चरित्र हैं जिनका अर्ध-दैवीकरण हो चुका है।
उशना जिन्हें शुक्राचार्य भी कहा जाता है कई बहुत महत्वपूर्ण कहानियों के नायक हैं। उनका एक रूप असुरों के गुरु का है। वामन की कथा में बलि जो अपने दान के लिए विख्यात है विष्णु को यज्ञ भूमि दान में दे देते हैं पर दान का संकल्प तभी पूरा हो सकता था जब उसे जेल से अर्चित किया जाए। बलि को रोकने का दूसरा कोई उपाय नहीं रह जाता है तो वह सूक्ष्म रूप धारण करके गड़ुवी की टोंटी में छिप जाते हैं। पानी नहीं निकलता तो वामन उनकी चालाकी को समझते हुए एक तिनका लेकर टोंटी में डालते हैं इससे उनकी एक आंख फूट जाती है।
ये कहानियां बहुत बाद में ब्राह्मणों द्वारा लिखी गई हैं इनके खोल को उतारने के बाद ही सच्चाई उजागर होती है।इस कहानी के अनुसार बली (बलीयांसो वै असुराज्ः) या आहार संग्रह पर निर्भर करने निर्भर करने वाले समाज को अपने अधिकार क्षेत्र से वंचित होकर पलायन करना पड़ता है।
बली पाताल चले जाते हैं।
इस पाताल के दो रूप है एक दक्षिण भारत में जहां बली की पूजा होती है । दूसरा पाताल सुमेरिया है जहां, जलमार्ग से एक दल पहुँचता है जिसे स्थानीय लोग काले लोगों (ब्लैक हेडेड) के रूप में जानते हैं। इन्हें उनसे डर कर अपनी नौका में ही रात बितानी पड़ती है और दिन में वह तट पर आकर अपना सामान रखते हैं लौटकर पीछे अपने वह पोतो में चले जाते हैं और धनुष बाण तानकर प्रहार के लिए तैयार रहते हैं इसलिए कोई उनका सामान लेकर भाग नहीं सकता। स्थानीय लोग उनके माल के बदले में जो उचित मूल्य समझते हैं इतना माल उन उन सामानों के सामने रखते हैं और एक सुरक्षित दूरी पर पीछे हट जाते हैं। यह व्यापारी उतर कर बदले में मिलने वाले माल की किस्म और मात्रा जाँचता है। यदि उसे लगता है कि बदले में मिलने वाला माल ठीक है, सही परिमाण में है तो अपने माल के बदले में मिलने वाले सामान को लेकर वापस नौका में चला आता है और दूसरा व्यक्ति इनका माल उठा लेता। जिस माल को ये नहीं उठाते उसका मालिक सामान की मात्रा बढ़ाता या यदि उसे लगता उससे अधिक माँग की जा रही है तो वह अड़ा रहता है या अपना माल उठा लेता। दूसरा कोई दूसरा कोई सामान उसके बदले मे रखता। इस तरह आरंभ होता है भाषा के ज्ञान के बिना भी आरंभिक बहुदेशीय व्यापारिक सौदेबाजी और निर्यात-आयात।
स्थानीय जनों की तुलना में संख्या में कम होने के कारण वे नौकाओं में ही रहते थे। बाहर सावधानी से निकलते थे। समुद्र में रहने वाले लोगों से सुमेर के लोगों का पहले परिचय न था, इसलिए वे इन्हें आधा मछली आधा मनुष्य समझते थे।
इस दल के नेता को सुमेरी ओएनेस के नाम से जानते थे आप इन्हें उशनावादी कह सकते हैं, क्योंकि महाबली और उनके पौराणिक आचार्य उशना का काल इससे भी हजारों साल पीछे जाता है।
हमने यह समझकर इस प्रसंग को नहीं उठाया था कि हम सभ्यता विमर्श में उलझेंगे, परंतु यदि इसे दर्ज करते हुए न बढ़े तो संभव है बाद में इसे हम स्वयं भूल जाएँ।
यहां हम अपनी अब तक की मान्यता से उल्टे नतीजों पर पहुंचते हैं। पहला यह की बहुदेशीय व्यापार के जनक अतिरिक्त कृषि उत्पाद वाले देव नहीं असुर थे। किसी दूर देश (स्वर्ग) में नगर निर्माण का काम असुरों ने किया था और देवों ने इसकी ख्याति सुनकर सोचा हमें भी नगर बनाना चाहिए। इसके प्रमाण हमारी परंपरा से हस्तांतरित किए जाते रहे और इन्हें संहिताओं में लिपिबद्ध भी किया गया।
परंतु बहुदेशीय व्यापार के विषय में इतनी स्पष्टता से बात नहीं की गई। यह सोचकर हैरानी होती है कि इसका भी आरंभ असुरों ने किया और यदि किया को यह भारत के विचित्र या विशिष्ट प्राकृतिक उत्पाद से आरंभ हुआ लगता है। और इसका भरपूर लाभ देव सभ्यता को मिला जिसने भी कारोबार उनकी तकनीकी योग्यताओं के बल पर कायम रखा और उनकी योग्यता से ही अपने नगर भी बनाए।
यह कथा उशना को केंद्र में रखकर गढ़ी गई हैं इसलिए इन मिथकों पर ध्यान दें:
(1) पश्चिमी पुराण कल्पना के मरमेड आधी मछली और आधी मानवी की कल्पना के पीछे क्या सुमेरी विश्वास का कि वे जन मत्स्याकार मानव थे का कोई हाथ हो सकता है ?
(2) मीणा/मत्स्य जनों से मरमेड की कल्पना का कोई संबंध हो सकता है?
(3) भगवान के मत्स्यावतार धारण करने से, समुद्र के भीतर जा कर धरती के उबारने या वाराहावतार की उद्भावना में इस यथार्थ का कोई हाथ हो सकता है?
उशना द्वारा अपना सब कुछ दान में देने की घटना -उशन्ह वै वाजश्रवसः सर्व वेदसं ददौ – से आरंभ होता है कठोपनिषद जिसमें नचिकेता को यमलोक जाना पड़ता है।
में कहूँगा यह तो प्रत्यक्ष है आप को इसका खंडन करना चाहिए जिससे समीक्षित सत्य सामने आ सके। अभी तक हमने पश्चिमी विचारों के सम्मोहन में पड़ कर अपने को जानने का प्रयत्न तक नहीं किया। यह तक मानने से डरते रहे कि हमारे पास अपनी नजर भी है, यह विश्वास तक खो बैठे कि उनकी मदद के बिना हम कुछ जान या सोच भी सकते हैं।
ओणम का उत्सव सितम्बर में राजा महाबली के स्वागत में प्रति वर्ष आयोजित किया जाता है जो दस दिनों तक चलता है। उत्सव त्रिक्काकरा (कोच्ची के पास) केरल के एक मात्र वामन मंदिर से प्रारंभ होता है। ओणम में प्रत्येक घर के आँगन में फूलों की पंखुड़ियों से सुन्दर सुन्दर रंगोलिया (पूकलम) डाली जाती हैं। युवतियां उन रंगोलियों के चारों तरफ वृत्त बनाकर उल्लास पूर्वक नृत्य (तिरुवाथिरा कलि) करती हैं। इस पूकलम का प्रारंभिक स्वरुप पहले (अथम के दिन) तो छोटा होता है परन्तु हर रोज इसमें एक और वृत्त फूलों का बढ़ा दिया जाता है। इस तरह बढ़ते बढ़ते दसवें दिन (तिरुवोनम) यह पूकलम वृहत आकार धारण कर लेता है। इस पूकलम के बीच त्रिक्काकरप्पन (वामन अवतार में विष्णु), राजा महाबली तथा उसके अंग रक्षकों की प्रतिष्ठा होती है जो कच्ची मिटटी से बनायीं जाती है। ओणम में नोका दौड जैसे खेलों का आयोजन भी होता है।
इसमें विष्णु के क्रमिक विस्तार और इस तरह एक विशाल भूभाग को कृषि-भूमि में रूपान्तरित करने का मूर्तन, महाबली का वर्ष में एक बार धनधान्य के साथ लौट कर आना और इस अवसर पर नौका-दौड़ का आयोजन मुझे प्रतीकात्मक लगता है।
मलयालम के बलि की तरह ही ऋग्वेद की एक ऋचा में उशना को भी समुद्र पार से धन धान्य के साथ लौटते दिखाया गया है। हम इसका मूल ग्रिफिथ के अनुवाद साथ दे कर ही संतोष करेंगे:
उशना यत्परावतोऽजगन्नूतये कवे ।
सुम्नानि विश्वा मनुषेव तुर्वणिरहा विश्वेव तुर्वणिः ।। 1.130.9
As thou with eager speed, O Sage, hast come from far away to help.
As winning for thine own all happiness of men, winning all happiness each day.
संदर्भ के अभाव में ये सभी विवरण विक्षिप्त के प्रलाप जैसे प्रतीत होते हैं। संदर्भ का पता चलते ही इनसे एक जीवंत इतिहास-कथा सामने आती है जो उन तमाम अटकलों का समाधान करती है जो सुमेरियन सभ्यता के जन्मदाताओं के विषय में की जाती रही है। सुमेर की नगर सभ्यता के जनक यही असुर थे जिनकी कृषि कर्म संबंधी वर्जनाओं के कारण उनको भारत में कृषि-कर्मियों के तकनीकी दक्षता वाले सहायकों की भूमिका प्रस्तुत करनी पड़ी, और सुमेर जाकर भी ये पुरोधा शासक बन कर स्थानीय जनों पर अत्याचार करते हुए उनसे खेती कराते रहे, परंतु वहां अपने कौशल के बल पर जिगुरातों में असाधारण वैभव के साथ जीवन यापन करते रहे।
हम बात आदिकवि की करने चले थे। आदि कवि तो उशना ही सिद्ध होते हैं परंतु वह कृषि कथा के गायक नहीं हो सकते इसलिए हम नहीं कह सकते जिस कवि नाम उशना था उसी को बाद में वाल्मीकि कह कर उन्हें रामायण के रचयिता का श्रेय दिया गया।