Post – 2019-10-01

#रामकथा_की_परंपरा (31)
वाल्मीकि -2

राम और रामकथा के अधिकांश पात्रों का किसी न किसी रूप में सीधे या व्याज रूप में पहले भी नाम आया है भले कुछ मामलों में उनका चरित्र मेल न खाता हो। उसमें राम का भी नाम है पर वह कोई अन्य राजा या व्यापारी है।
प्र तद्दुःशीमे पृथवाने वेने प्र रामे वोचमसुरे मघवत्सु ।
ये युक्त्वाय पञ्च शतास्मयु पथा विश्राव्येषाम् ।। 10.93.14
(सायण भाष्य में – पंचशता-पंच शतानि रथानि, युक्त्वाय- अश्वैः युक्ता, विश्रावि – देवानां लोके अथवा श्रावकगुणयुक्तं, दुःशीमे पृथवाने -दुःशीमनाम्नि पृथवाने, असुरे- बलवति, रामे -च एतेषु राजसु , प्रवोचं -प्रवीमि, प्रख्यापयाम, मघवत्सु – धनवत्सु)
परन्तु एक सूक्त (10.110) के ऋषि के रूप में ‘जमदग्निर्भार्गवः, जामदग्न्यो रामो वा’ आया है जिसे परशुराम का पूर्वरूप माना जा सकता है। पूर्वरूप इसलिए कि इसमें परशु नहीं है।

रावण एक तो अराव्ण (उच्चारण के लिए र से पहले अ जोड़ना तमिल की विशेषता है (राजा>अरसन). दशोणि और दशशिप्र के (यथा सोमं दशशिप्रे दशोण्ये स्यूमरश्मावृजूनसि ।। 8.52.2) रूप में। दशरथ का प्रयोग एक अग्रणी व्यापारी के रूप में (चत्वरिंशद् दशरथस्य शोणाः सहस्रस्याग्रे श्रेणिं नयन्ति।), शत्रुघ्न (मम पुत्राः शत्रुहणोऽथः मे दुहिता विराट्।), भरत, लक्ष्मण (लक्ष्मण्यस्य सुरुचो यतानाः) आदि नाम संदर्भ से अलग आए हैं पर व्यक्तिनाम के रूप में भी वाल्मीकि (कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, परशु-राम आदि का नाम नहीं का नाम मेरी जानकारी में रामायण और महाभारत से पहले देखने में नहीं आता।

वाल्मीकि के विषय में एक परंपरा है जिसका एक जनवादी पाठ है दूसरा वर्णवादी। जनवादी परंपरा के अनुसार राम के जीवन को लेकर जनगाथाएं तैयार हुईं जिन्हें लोग बहुत चाव से सुनते थे और इन्हीं गाथाओं मैं एक मार्मिक गाथा वाल्मीकि के नाम थी और लोक भाषा में थी। ऐसी गाथाएं अपने शौर्य और त्याग असाधारण प्रेम के कारण प्रसिद्ध चरित्रों को लेकर बहुत प्राचीन काल से लिखी और सुनी जाती रही है। ऋग्वेद में नाराशंसी गाथाके रूप में याद किया गया है। लोरिक, आल्हा, भरथरी, आदि की गाथाएँ लोग जितनी तन्मयता से सुनते और गाते रहे हैं उतनी तन्मयता से साहित्य की कृतियों का पाठ लोग नहीं करते होंगे। इसलिए इस धारणा को गलत कहना नासमझी होगी। रामायण के अनुसार भी वाल्मीकि की गाथा का गान करते हुए लव और कुश या कुशीलव विचरते हैं।

इसी मार्मिक गाथा को किसी संस्कृत कवि ने, उसका नाम जो भी रहा हो, एक महाकाव्य के रूप में प्रस्तुत किया जिसके विषय में हम यह निवेदन कर आए हैं कि उसका आकार बहुत छोटा था।

बौद्ध मत के विरोध के लिए इस लोक प्रचलित गाथा को सर्वाधिक उपयोगी पाकर संस्कृत कवियों ने बहुत सारी सामग्री इसमें भर कर इसके आकार को और विस्तृत किया। इसके बाद भी पूरा संतोष नहीं हुआ तो बालकांड और उत्तरकांड काफी बाद में जोड़े गए।

इसलिए वर्तमान रूप में उपलब्ध रामायण को किसी एक कवि की रचना नहीं कहा जा सकता।

लोकगाथा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसके अच्छे गायक कुछ समय तक तन्मयता से गाते रहने के बाद स्वयं भी कवि हो जाते हैं और गायन के क्रम में अपनी ओर से भी कुछ जोड़ते बदलते रहते हैं। यदि आल्हा या लोरिकायन के एकाधिक गायकों काे टेपरेकार्ड करें तो पाएँगे कि कथा एक ही रहते हुए प्रत्येक गायक की गाथा एक अलग संस्करण है। पाठ सुनते समय श्रोताओं का जो व्यक्तित्वांतर होता है उसे अनुभव से ही जाना जा सकता है। गुप्त जी ने जाने क्या सोच कर लिखा था, “राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है।” पर लोक साहित्य पर यह पूरी तरह घटित होता है।

एक और बात गाथापरंपरा के साथ यह है कि किसी एक का मानक लिखित पाठ तैयार हो जाने के बाद भी इसके मौखिक पाठ विराम नहीं पा जाते, मानक पाठ से कुछ दब भले जाएँ। वे समानांतर चलते रहते हैं।

सबसे रोचक बात यह है कि लिखित काव्य बनने के बाद भी रामायण लोकगाथा की परंपरा से मुक्त न हो सका। इसकी प्रतिलिपियाँ तैयार करने वाले अपनी ओर से कुछ जोड़ते गए। उनका यह साहस न हो सका कि जो पहले से चला आ रहा था उसका कोई अंश निकाल भी सकें। इसी के कारण इन प्रक्षेपों के बाद भी इसके घटाटोप के नीचे पुरानी कथा की अन्तर्धारा बनी रही जो एक ओर तो हमें मूल कथा को समझने में सहायक होती है, दूसरे इस बात को समझने में भी सहायक होती है कि इसमें जो कुछ भरा गया वह किस इरादे से और कब भरा गया।

इस दृष्टि से विचार करने पर रामायण किसी एक कवि की रचना न होकर जातीय महाकाव्य है जिसके साथ वाल्मीकि का नाम जुड़ गया। ठीक यही बात महाभारत के विषय में कही जा सकती है, जिसके साथ वेदव्यास का नाम जोड़ा गया। ये नाम जोड़ने वाले ब्राह्मणवादी थे।

मैं जानता हूँ यह शब्द कुछ लोगों को क्षोभकर लगता है और इससे बचने के लिए ही हमने ऊपर वर्णवादी का प्रयोग किया, परन्तु वह वस्तुस्थिति पर परदा डालता है। बौद्ध और जैन मतों की लोकप्रियता और इन्हें मिले राजकीय समर्थन और वणिकों के मुक्त दान का किसी अन्य वर्ण पर नहीं केवल ब्राह्मणों पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा था कि उनके लिए यह जीवन-मरण का प्रश्न बन गया और इस चुनौती को उन्होंने इसी रूप में स्वीकार कर इसे परास्त करने के औजारों का आविष्कार किया और अपने समय के सबसे प्रबल आन्दोलनों को सामाजिक तिरस्कार और उपहास का विषय बना दिया और अपनी खोई प्रतिष्ठा को पहले की तुलना में अधिक मजबूती से स्थापित किया।

अतः आज के संदर्भ में इसकी नोक की चुभन को समझते हुए भी इसे किसी अन्य नाम से अभिहित करना सचाई का सामना करने में हमारी असमर्थता को ही प्रकट करेगा।

इसी के चलते वाल्मीकि के नाम और चरित्र की आवश्यकता अनुभव हुई। रामकथा का गायक किसी अन्य जाति का हुआ तो कथा दूषित न भी हो तो भी जिसे इसका आदि गायक माना जाएगा उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ेगी और इसका उल्टा प्रभाव पड़ेगा।

इस आदि गायक को ब्राह्मण तो होना ही पड़ेगा। परन्तु जवाब बौद्ध मत की श्रेष्ठता के लिए गढ़ी गढ़ी गई कहानियों का भी देना था। इन्हीं में थी अंगुलिमाल नामक एक दस्यु के हृदय परिवर्तन की कथा। इसके लिए राम को कष्ट देना जरूरी न था। उस कथा में इसकी जगह भी न थी। अब यह भार भी वाल्मीकि पर ही डालना था। जिन परिस्थितियों में यह हृदय परिवर्तन होता है, उससे अधिकांश पाठक परिचित हैं। वह इतना क्रूर है कि वह राम भी नहीं कह सकता। उसे मरामरा कहते रहने का उपदेश दिया जाता है और इसी से वह सिद्धि पा लेता है।

परंतु बुद्ध को जितनी कठिन साधना के बाद सत्य का साक्षात्कार हुआ था उसका भी जवाब देना है। अब उल्टा नाम जपते हुए भी वाल्मीकि इतने तन्मय हो जाते है कि दीमकें उनके ऊपर बाँबी बना लेती हैं और उन्हें इसका पता तक नहीं चलता। बुद्ध तो वाल्मीकि के सामने भी ठहर नहीं सकते, राम के सामने क्या टिकेंगे?

इस तरह तैयार होता है एक ब्राह्मणवादी वाल्मीकि जिसके बारे में आधा अधूरा आप जानते हैं और जो बाकी है उसे आप्टे या मोनियर विलियम्स के संस्कृत- इंग्लिश कोष से समझ सकते हैं।

वाल्मीकि इसी कारण रामकथा के आदि कवि बनाए जाते हैं और उनका रामायण आदि काव्य बन जाता है।

परन्तु अपनी इन सीमाओं के बाद भी मेरी नजर में कालिदास और व्यास को भी अतिक्रान्त करने वाली अदुभुत रचना है और इससे बड़ी रचना तुलसी का रामचरित मानस ही हौ क्योंकि यह लोकभाषा में पर उसी वैभव के साथ, उन्हीं सीमाओं से ग्रस्त होते हुए भी, अनन्य रचना है।