प्रदीप सक्सेना के लेख को पढ़कर मुझे बड़ी निराशा हुई। लगा वह अलीगढ़ विश्वविद्यालय की जरूरतों के अनुसार लिखना पसंद करते हैं। पूरे लेख में उन्हें शिकायत सिर्फ उन लोगों से है, जिन्होंने रामविलास शर्मा के लेखन की सराहना की है, परंतु उन्होंने इस बात का ध्यान नहीं रखा कि उनकी प्रशंसकों का यह दल उन पर लंबे समय तक किए जाने वाले प्रहारों की प्रतिक्रिया में, अन्याय के विरोध के रूप में पैदा हुआ था। ये प्रहार तब आरंभ हुए थे जब रामविलास जी ने कम्युनिस्ट पार्टी की भाषा नीति का पूरी दृढ़ता से विरोध आरंभ किया था, और इसकी प्रतिक्रिया में मुँहजोर लोगों ने हिन्दी को हिंदुत्व से जोड़ कर भर्त्सना अभियान चलाया था। यह भी ठीक उसी तरह का लेख है और इसमें मुख्यतः हिंदी प्रदेश और नवजागरण को ही रखा गया है। यदि उनके प्रशंसकों को रामविलास जी में कोई दोष नहीं दिखाई दिया, तो प्रदीप सक्सेना को पूरे लेख में उनका कोई गुण भी नहीं दिखाई दिया।
लगता है प्रदीप जी ने न तो रामविलास शर्मा को ध्यान से पढ़ा है न कभी उनके संपर्क में आए हैं। अजय तिवारी के जिस संस्मरण का उन्होंने उल्लेख किया है, उसके उद्धृत अंश को भी नहीं समझ पाए। उसमें रामविलास जी ने साफ कहा है कि मैं इतिहासकार नहीं हूं , आंदोलनकारी हूँ, मेरे पूर्वाग्रह हैं, वह पूर्वाग्रह राष्ट्रवादी हैं उपनिवेशवाद विरोधी हैं।” ऐसे व्यक्ति को पेशेवर विद्वानों की अपेक्षाओं की कसौटी पर कसा जा सकता है?
यदि एक जिम्मेदार लेखक अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर के विषय पर कुछ कह ही नहीं सकता, तो क्या प्रदीप सक्सेना पेशेवर इतिहासकार हुए बिना रामविलास शर्मा के इतिहास पर कुछ कहने का अधिकार रखते हैं?
यदि अजय तिवारी ने पूछा होता कि विद्वानों के बीच में आपको कहां रखा जा सकता तो संभवत है रामविलास शर्मा का उत्तर होता, मैं विद्वान हूं ही नहीं। मैं अध्येता हूँ, आंदोलनकारी हूँ, और आन्दोलन लेखन के माध्यम से भी किया जा सकता है यह मैंने मार्क्स और ऐंगेल्स से सीखा है। मैं समाज को जाग्रत करने के लिए, अपने समाज के अधिकतम लोगों की समझ में आने वाली भाषा में लिखता हूं। विद्वान लोग विद्वानों की बीच में अपनी को स्थापित करने के लिए विद्वानों के बीच स्वीकृत भाषा में लिखा करते हैं, और यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि वे कितने जानकार हैं और अपने हर कथन के लिए स्रोत का हवाला देते हैं। पुस्तक के अंत में शब्दानुक्रमणी देते हैं। विद्वान होता तो उस भाषा में लिखता और इन सारी अपेक्षाओं की पूर्ति करता।
मुझे कुछ ऐसा याद है कि एक बार मार्क्स को ऐसे भी ऐसे ही उल्टे सवाल का सामना करना पड़ा था। उनका साक्षात्कार लेने वाले व्यक्ति ने पूछा था आप तो पत्रकार हैं, अर्थशास्त्र के पेशेवर आदमी ही नहीं है, आप जिस मत का प्रतिपादन करते हैं उसे अर्थशास्त्र पढ़ाने वाला कोई विद्वान पढ़ाता नहीं। मार्क्स ने इसका क्या उत्तर दिया था यह मुझे याद नहीं, परंतु विज्ञान में प्रोफेशन और कुर्सी नहीं देखी जाती, प्रामाणिकता पर ध्यान दिया जाता है और हमेशा किसी की आलोचना इसी आधार पर की जानी चाहिए।
जिन कम्युनिस्ट इतिहासकारों का प्रदीप जी ने उल्लेख किया है वे कैसे मार्क्सवादी थे औपनिवेशक भाषा में लिखते थे औपनिवेशिक इतिहास को दोहराते थे? उनमें से अनेक अपने को जिस काल का अधिकारी बताते थे उसके साहित्य की स्रोत भाषा से ही परिचित नहीं थे। क्या प्रदीप जी को पता है कि इरफान हबीब अपने को वैदिक काल का भी विद्वान मानते हैं? रोमिला थापर मध्यकाल के इतिहास में भी दखल रखती हैं? उन्होंने इतिहासकार के रूप में रामशरण शर्मा के विशिष्ट योगदान के रूप में सामंतवाद पर उनके काम को गिनाया है। मुखिया ने अपने एक लेख में उसका खंडन करके रख दिया उसके बाद लोग उस काम को भूल गए। रोमिला थापर विश्व प्रसिद्ध इतिहासकार है। क्या कोई बता सकता है उनका सबसे महत्वपूर्ण योगदान इतिहास में क्या है? वह कौन सी नई स्थापना उन्होंने दी है जो पहले से किसी न किसी रूप में दी न जा चुकी थी?
कोसंबी महान मार्क्सवादी इतिहासकार हैं, परंतु उन्होंने जिन स्रोतों का इस्तेमाल अपनी व्याख्या में किया है उनकी पड़ताल करने की योग्यता किसी दूसरे मार्क्सवादी में थी? कभी किसी ने उनकी आलोचना की। बिना समझे, बिना जांचे परखे महान विद्वान मानकर आगे पढ़ने से छुट्टी कर लेना यह छोटा रास्ता मार्क्सवादियों ने अपनाया इसके बाद भी उनमें से कोई अपने को विद्वान कहे इससे बड़ी मस्खरी क्या हो सकती है? कुर्सी की रोटी खाने वाले कुर्सी की भाषा में बात करते हैं, और इसी भाषा में रामशरण शर्मा ने कहा था यह हिंदी वाला इतिहासकार कहां से हो गया।
रामविलास शर्मा में बहुत सारी कमियां हैं। अपने क्षेत्र से संबंधित कुछ को मैं भी जानता हूं। परंतु अध्येता के रूप में भाषा विज्ञान और इतिहास के क्षेत्र में उनके जिस योगदान से मैं परिचित हूं वह अनेक कमियों के बावजूद अकेला इतना बड़ा है जिसके सामने प्रदीप जी ने महान इतिहासकारों की जो लिस्ट दी है उन सभी के समस्त काम को तुच्छ सिद्ध किया जा सकता है। 1961 में भाषाऔर समाज में उन्होंने भाषा वैज्ञानिक आधार पर यह सिद्ध किया था कि आर्यों की कोई जाति नहीं थी; कि भारोपीय भाषा का प्रचार भारोपीय क्षेत्र में भारत से हुआ था; कि प्रसारित होने वाली भाषा में द्रविड़ और मुंडारी का भी योगदान था, वह केवल संस्कृत नहीं थी; कि आदिम भारोपीय की ध्वनिमाला वह नहीं थी जिसका दावा तुलनात्मक भाषा विज्ञानी करते हैं। और प्राचीन इतिहास का सारा तथाकथित मार्क्सवादी लेखन, बल्कि बाद के कालों का भी लेखन, उन्हीं अवधारणाओं पर किया जाता रहा जिनका खंडन रामविलास जी ने उस समय कर दिया था जब किसी पुरातत्ववेत्ता की, नजर किसी दूसरे अध्येता की नजर, इस ओर नहीं पड़ी थी और आज यह सर्वमान्य सा है।