#रामकथा_की_परंपरा(21)
विचारधारा का मोर्चा
जैसा कि हम विश्वामित्र और वशिष्ठ के मामले में पाते हैं, ऋग्वेद में वर्णित चरित्र और घटनाएँ रामायण और महाभारत में बदल जाती हैं। उपनिषद काल तक इंद्र की महिमा बनी रहती है। जैन साहित्य में इंद्र की प्रतिष्ठा बनी रहती है। केवल ब्राह्मणवादी साहित्य में इंद्र और विश्वामित्र का पराभव होता है।
इन्द्र के प्रभाव से यज्ञ का प्राचीन रूप जिसमें हिंसा और पशु बलि का विधान था, बदला था। यज्ञ अध्वर या हिंसा से मुक्त हुआ था। ऐसा आसुरी पृष्ठभूमि से आए ऋषियों के प्रभाव के कारण हुआ था। भृगुओं ने यज्ञ के पुराने चलन का परित्याग कर दिया था – हता मखं न भृगवः । जिस इंद्र और अग्नि का उन्नयन अगिरसों और कुशिको ने किया था, वह खनन, धातुशोधन और औद्योगिक गतिविधियों में प्रयुक्त अग्नि और इनमें सक्रिय भाग लेने वाले और संरक्षण देने वाले इन्द्र हैं।
जैसे इस इंद्र को कुशिकों का पुत्र कहा गया है उसी तरह औद्योगिक उपयोग के अग्नि को अथर्वा ने पुष्कर से मथ कर निकाला था (त्वामग्ने पुष्करात् अधि अथर्वा निरमंथत। ऋ. 6.16.13)। इस अग्नि के उत्पादक या जनक अथर्वांगिरस हैं ।
इसे हम पहले भी कह आए हैं कि यह बदलाव बौद्ध और जैन मत के राजकीय प्रश्रय से उत्पन्न दानजीवी ब्राह्र्मणों की आर्थिक दुर्गति के कारण आत्मरक्षा में आरंभ हुआ।
किसी के विषय में दुष्प्रचार या किसी का चरित्र-हनन करके उसको परास्त किया जा सकता है यह ब्राह्मणों का आविष्कार है जिसका आधुनिक युग में नाज़ियों और कम्युनिस्टों ने सबसे अधिक उपयोग किया और आज भी करने का प्रयत्न करते हैं, जब उघरे अंत न होय निबाहू की नौबत आ चुकी है।
शकुंतला और मेनका की उदभावना और विश्वामित्र के तपभंग, उनका राजर्षि से ब्रह्मर्षि बनने के प्रयत्न, वशिष्ठ की नन्दिनी गाय को बल पूर्वक हरण का प्रयत्न और उस गाय की योनि से भारत पर आक्रमण करने वाली जातियों की उत्पत्ति आदि की कहानियाँ इसी काल और इसी बहुमुखी अभियान की उद्भावनाएँ हैं।
इसी के चलते वैदिक काल की एक त्रासदी का जिसमें ऋषि वामदेव अपनी पीड़ा व्यक्त करते हैं कि उन्हें क्षुधार्त हो कर कुत्ते की अंतड़ी पका कर खानी पड़ी (अवर्त्या शुनि आन्त्राणि पेचे)। अब वामदेव की जगह विश्वामित्र को भुक्तभोगी बना दिया जाता है।
इसी त्रासदी का एक अपमानजनक अनुभव है, ऋषि वामदेव ने अपनी आँखों के सामने अपनी पत्नी की इज्जत लुटते देखी (अपश्यं जायां अमहीयमानां) और इसको उलट कर रामायण में इन्द्र को ही मुनि का वेश धारण कर उनकी पत्नी अहल्या से व्यभिचार कराया जाता है (तस्यान्तर विदित्वा च सहस्राक्ष शचीपतिः। मुनिवेषधरो भूत्वा अहल्यामिदमव्रवीत्। ऋतुकालं प्रतीक्षंते नार्थिनः सुसमाहिते। संगमं त्वहमिच्छामि त्वया सह सुमध्यमे।)
आगे ऋषि को इसका पता चलने पर जो शाप आदि दिया जाता और उसका का जो प्रभाव होता है उससे मोटे तौर पर हम सभी परिचित हैं, यद्यपि व्यौरों में मामूली अंतर है।
हम जिस बात पर बल देना चाहते हैं वह यह है कि उपनिषद काल तक इंद्र की प्रधानता बनी रहती है। उसके बाद विश्वामित्र की तरह उनके द्वारा प्रशंसित, लगभग उन्हीं की रचना, इंद्र, का भी चरित्र हनन आरंभ हो जाता है। वह सर्वोपरि देवता नहीं रह जाता। उसकी भी जाति तय कर दी जाती है। वह क्षत्रिय है। असुरों से युद्ध करने वाला, उनके पुरों के ध्वस्त करने वाला क्षत्रिय तो होगा ही। वैसे भी असुर संहार सी जरूरत के कारण अवताकों को क्षत्रिय तो होना ही था।
जिस एक ऋचा के आधार पर विश्वामित्र के चांडाल के घर में चोरी से घुसकर कुत्ते की अँतड़ी पकाकर खाने की और अहल्या के शीलभंग की कथा गढ़ी गई वह निम्न प्रकार है
अवर्त्या शुनि आन्त्राणि पेचे न देवेषु विविदे मर्डितारम् ।
अपश्यं जायां अमहीयमानां अधा मे श्येनो मध्वा जभार ।।4.18.13
मैं आचार भ्रष्ट होकर कुत्ते की अँतड़ी पका कर खाने को विवश हुआ, और किसी देवता ने मेरी मदद नहीं की। मैंने अपनी आंखों अपनी पत्नी का शीलभंग होते देखा, उसके बाद इंद्र ने वर्षा करके हमारे जीवन को फिर खुशहाल बना दिया।
इसके अंतिम वाक्य को शिकायत के रूप में भी दर्ज किया जा सकता है कि क्या यह नौबत आने के बाद ही इंद्र को वर्षा करनी थी।
एक महा दुर्भिक्ष का यह एक दारुण चित्रण है। इसमें इंद्र को ही सबसे प्रभावशाली देवता के रूप में स्वीकार किया गया है। परंतु इसके आधार पर बाद में जो चित्र उपस्थित किया गया वह इरादतन इंद्र को लांछित करने के लिए बहुत सोच समझकर तैयार किया गया।
ऐसा लगता है कि जिसे हम आज की भाषा में थिंक टैंक कहते हैं वैसा कुछ अपनी रक्षा के लिए, आत्मसम्मान की रक्षा के लिए, दूसरी सभी चीजों को दरकिनार करते हुए, एक योजना बनाई गई कि बौद्ध मत का उच्छेदन करने के लिए एक साथ कितने मोर्चे खोले जाने चाहिए और इन सभी पर कितनी सावधानी बरती जानी चाहिए।
एक मोर्चे पर परिभाषाएं बदली जा रही है, पुराने आदर और सद्भाव के शब्दों का अर्थ बदला जा रहा है, श्लाघ्य को गर्हित बनाया जा रहा है। दूसरे पर पुराने और जन-समादृत ऋषियों का नया पर कलुषित अवतार इस चतुराई से तैयार किया जा रहा है कि उनकी महानता भी बनी रहे, जन भावना भी आहत न हो और उनका अधःपतन भी दिखाया जा सके। तीसरे मोर्चे पर इन मतों के लोक समादृत पक्षों का आत्मसात्करण। वे अहिंसा की बात करते हैं और तो परदुखकातर समाज की नजर में ऊपर उठने के लिए हम प्याज और लहसन से भी परहेज करेंगे।
रामायण पुरातन कथा होने के साथ, विचारधारात्मक संग्राम के हथियार के रूप में योजनाबद्ध रुप में तैयार की गई विश्व की एक अनन्य रचना है। इस पक्ष की अवज्ञा करके कृषिकथा के इस चरण को हम समझ नहीं सकते।