#रामकथा_की_परंपरा(20)
इंद्र का आविर्भाव
इंद्र वैदिक देवताओं में सबसे नए माने जाते हैं। सर्वोपरि देव के रूप में इन्हें कुछ ही समय तक रहने का अवसर मिला, फिर विष्णु जिन्हें इनकी प्रतिष्ठा के लिए उपेंद्र बना दिया गया था, सर्वोपरि देवता बन जाते हैं। रामायण के राम इन्द्र के नहीं विष्णु के अवतार हैं।
विश्वामित्र के पुत्र माने जाने वाले मधुछंदा की एक ऋचा है:
गायन्ति त्वा गायत्रिणोऽर्चन्ति अर्कं अर्किणः ।
ब्रह्माणस्त्वा शतक्रत उद्वंशं इव येमिरे ।। 1.10.1
“इंद्र ! गायन करने वाले तुम्हारा गुणगान करते हैं, अर्चना करने वाले तुम्हारी अर्चना करते हैं। जिस तरह नट को बाँस के ऊपर उठ जाता है, उसी तरह स्तुतियों से हमने तुम्हें ऊपर उठा रखा है।”
दावा गलत नहीं है। ऋग्वेद में इंद्र की महिमा स्थापित करने के लगातार प्रयत्न देखे जा सकते हैं। परन्तु प्रयत्न से ऊपर उठाई हुई चीजें अधिक समय तक ऊपर टिकी रह नहीं पातीं। इंद्र के साथ ऐसा ही हुआ। जितनी तेजी से उन्होंने नाम कमाया था, उतनी ही तेजी से बदनाम होकर नीचे आ गए मुँह छिपाने की नौबत आ गई।
इन्द्र के देवत्व के जनक कुशिक थे, यह प्रस्ताव भले ही कुछ चौंकाए, परंतु उनकी माता का नाम शवसी है, इसे सुनकर किसी को विस्मय न होगा। वह शक्ति (शव=बल) के पुत्र हैं। उनके जन्म की कहानी बड़ी रोचक है, इसे तीन ऋचाओं में देखा जा सकता है। हमने स्वयं इनकी व्याख्या करने की जगह इनके साथ ग्रिफिथ का अनुवाद दिया है जिसे भरोसे लायक माना जा सकता है:
आ बुन्दं वृत्रहा ददे जातः पृच्छत् वि मातरम् ।
क उग्राः के ह शृण्विरे ।। 8.45.4
The new-born Vrtra-slayer asked his Mother, as he seized his shaft,
Who are the fierce? Who are renowned?
प्रति त्वा शवसी वदद्गिरावप्सो न योधिषत् ।
यस्ते शत्रुत्वमाचके ।। 8.45.5
Savasi answered, He who seeks thine enmity will battle like
A stately elephant on a hill.
उत त्व मघवञ्चछृणु यस्ते वष्टि ववक्षि तत् ।
यद्वीळयासि वीळु तत् ।। 8.45.6
And hear, O Maghavan; to him who craves of thee thou grantest all
Whate’er thou makest firm is firm.
चरित्र-हनन इंद्र का ही नहीं किया गया। गाथाकारों (व्यासों) ने ही ने ही वेद, पुराण, इतिहास, धर्मशास्त्र उन सभी का उद्धार किया जिन पर ब्राह्मण कब्जा जमा कर अपनी श्रेष्ठता के दावे करते रहे और इसके बाद भी ब्राह्मणों ने लगातार उनका तिरस्कार किया। कभी ब्राह्मण माना ही नहीं। विश्वामित्र को भी गाधि राजा का पुत्र और क्षत्रिय बना दिया। बौद्ध मत के विरोध के साथ यह अभियान तेज हो गया।
जो भी हो, आसुरी समाज से आने वाले और कृषिकर्म में सीधी भागीदारी न करने वाले ये अनुजीवी न किसी एक रक्त के न थे। कृषि की पहल करने वालों से नस्ल या भाषा के मामले में अलग नहीं थे। प्रतिभा की कमी के कारण पिछड़े नहीं रह गए थे। इनमें से बहुतों ने ब्राह्मण वर्ण में प्रवेश किया यह तो आंगिरस और भार्गव जैसे उपनामों से समझा जा सकता है।
जैसे जैन और बौद्ध मतों का विरोध करने के साथ ब्राह्मणवाद ने उसकी अनेक विशेष विशेषताओं को अपना लिया और उसे अति पर पहुँचा दिया, कुछ वैसा ही उससे पहले अपने विशेष कौशलों के साथ कृषिकर्मियों की सेवा में आने वालो के बाद हुआ। सबसे रोचक था देवों और आर्यों का सही अर्थ में असुर और अनार्य बन जाना।
जिस कृषिकर्म के बल पर वे कभी देव और आर्य होने का दावा कर रहे थे, उसी कृषिकर्म से ठीक वैसा ही परहेज करने लगना, जिसके लिए वे असुर समाज की निंदा किया करते थे।
अब वे रुग्णता के (फीटिसिज्म), प्रतीकबद्धता के शिकार हो गए – प्रतीक को वास्तविकता और वास्तविकता को प्रतीक की देन मानने लगते हैं। यज्ञ की वेदी को समस्त उर्वरा भूमि और उर्वरा भूमि समस्त पृथ्वी है इसलिए यह वेदी ही समस्त पृथ्वी है : इयं वेदिः परो अन्तः पृथिव्या अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः ….(1.164.35)।
दुनिया का पूरा भूगोल बैठे-बैठे मालूम हो गया। दुनिया की सारी संपत्ति पर ब्राह्मण का अधिकार हो गया, क्योंकि श्रेष्ठतम कर्म तो वह करता है – यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म। परंतु यह व्याधि केवल ब्राह्मणों तक सीमित नहीं रही। अकर्मण्यता सामाजिक श्रेष्ठता का मानदंड बन गई। व्याधियाँ संक्रामक होती है।
मैंने पूरी पड़ताल नहीं की। परंतु ऐसा लगता है कि छल और धोखाधड़ी आदिम समाज में असह्य था। वे अपने मूल्यों के लिए अपना सर भी कटा सकते थे, परंतु वादे से मुकर नहीं सकते थे। इसे बलि-वामन की कथा में मूर्त किया गया है।
देव संख्या में कम होने के कारण छल प्रपंच से काम लेते हैं। प्रतीक यज्ञ और वास्तविक उत्पादन से परहेज करते हुए भी समस्त धरती पर ब्राह्मण के अधिकार का दावा भ्रम प्रचार नहीं तो और क्या है। इसी को मायाजाल कह कर इसका विरोध विश्वामित्र करते प्रतीत होते हैं। यदि वसिष्ठ ब्राह्मणवाद के जनक हैं तो उनके साथ श्रम से परहेज और दावा आरंभ होता है। विश्वामित्र इसका विरोध करते हुए वसिष्ठ को यातुधान और मायावी कहते हैं। वसिष्ठ इससे अपमानित अनुभव करते हुए कसम खाते हैं कि वह यातुधान नहीं हैं और अपने पर यातुधान होने का आरोप लगाने वाले को शाप देते हैं। शाप भी जादुई शक्ति में विश्वास से प्रेरित है। केवल ब्राह्मण ही शाप से भारी अनिष्ट कर सकता है। विश्वामित्र का आरोप इसी को लेकर है।
हम इसका अनुवाद करने की जगह ग्रिफिथ के अनुवाद से काम चलाएँगे जिसे कुछ सावधानी से पढ़ा जाना चाहिए। :
अद्या मुरीय यदि यातुधानो अस्मि यदि वायुस्ततप पूरुषस्य ।
अधा स वीरैर्दशभिर्वि यूया यो मा मोघं यातुधानेत्याह ।। 7.104.15
So may I die this day if I have harassed any man’s life or if I be a demon.
Yea, may he lose all his ten sons together who with false tongue hath called me Yatudhana.
यो मायातुं यातुधानेत्याह यो वा रक्षाः शुचिरस्मीत्याह ।
इन्द्रस्तं हन्तु महता वधेन विश्वस्य जन्तोरधमस्पदीष्ट ।। 7.104.16
May Indra slay him with a mighty weapon, and let the vilest of all creatures perish,
The fiend who says that he is pure, who calls me a demon though devoid of demon nature.
विरोध यहीं समाप्त नहीं हो जाता, वसिष्ठ यज्ञ के द्वारा इच्छित परिणाम लाने का विश्वास दिला कर सुदास के पुरोहित बन चुके हैं और विश्वामित्र को राजपुरुषों के द्वारा बाँध कर सामने लाने का आदेश देते हैं और जब आदेश का पालन होता है तो विश्वामित्र इसका बदला लेने का संकल्प लेते हैं:
न सायकस्य चिकिते जनासो लोधं नयन्ति पशु मन्यमानाः ।
नावाजिनं वाजिना हासयन्ति न गर्दभं पुरो अश्वान्नयन्ति ।। 3.53.23
इम इन्द्र भरतस्य पुत्रा अपपित्व चिकितुर्न प्रप्रित्वम् ।
हिन्वन्त्यश्वमरणं न नित्यं ज्यावाजं परि णयन्त्याजौ ।। 3.53.24
यह प्रतिस्पर्धा और शत्रुता बहुत प्रबल है, कहानी पुरानी है। इसका पूरा चरित्र मेरी भी समझ में नहीं आता।
रामायण की कथा में भी इन दोनों ऋषियों को स्थान मिलता है, परन्तु पुरानी शत्रुता पर परदा डाल दिया जाता है।