Post – 2019-09-18

#रामकथा_की_परंपरा(19)

रामायण का पुराना नाम शायद रावणवध था (संदर्भ याद नही), और आकार बहुत छोटा था। रामायण के वर्तमान पाठ में भी राम रावण का और उसके साथ राक्षसों का संहार करने के लिए अवतार लेते हैं। उससे पहले का उनका जीवन उसी संग्राम की संभावना पैदा करने के लिए मायावी वृतांत है। ऋग्वेद में इंद्र वृत्रवध करने के लिए जन्म लेते हैं।

हम पीछे कह आए हैं कि इंद्र से पहले कृषि के देवता विष्णु अर्थात् अग्नि थे। उनके माध्यम से ही वन्य भूमि को कृषि भूमि में बदला जाता था। जुताई के अल्पविकसित औजारों के समय कृषि भूमि में उगने वाले झाड़-झंखाड़ को आग से ही जलाया जाता था। पहाड़ों पर आज भी यही तरीका काम में लाया जाता है। रात के अँधेरे में अग्नि के लुकाठों से ही खतरनाक जंगली जानवरों को और नोच खसोट करने वाले वनचरों को भगाया जाता था। अँधेरे में तीरन्दाजी नहीे की जा सकती थी।

राक्षसों द्वारा यज्ञ को नष्ट करने के जो विवरण बाद में मिलते हैं उनमें विध्वंस का असली चरित्र ओझल रह जाता है। वे अँधेरा होते ही उपद्रव आरंभ कर देते थे, इसीलिए उनको निशाचर कहा जाता था, परन्तु आग जलती देख कर सहम जाते थे।

बचपन में हम साँझ होते ही दरवाजे पर बने एक ताखे पर ढिबरी जला कर इसलिए रखते थे कि दिए की रोशनी रहते भूत-प्रेत दूर रहेंगे। [[प्रसंगवश बता दें जिन बोलियों का विलय भोजपुरी में हुआ था उनमें शायद प्रकाश के लिए ढब या ढिब का प्रयोग होता था। इसी के कनढेबर (कन=आँख) निकला है। इसका अल्पप्राणित रूप डब/डिब – पानी मे किसी चाज के डूबने की आवाज> पानी> प्रकाश ]] आग का पोषक और माधुर्य का पक्ष रसोई घरमें ही नहीं भूनने-तताने में भी देखा जाता है जिसके कारण अखाद्य भी खाद्य बन जाता है। उसके इसी गुण के कारण उसे मधजिह्व कहा गया है, उसकी जिह्वा के स्पर्श से स्वाद बढ़ जाता है। इन्हीं का मूर्तन विष्णु के त्राता, पालक और पोषक रूप में होता है।

पूषा अग्नि के ही पोषक और रक्षक रूप के परवर्ती मूर्तन हैं। उनका वाहन अज या बकरा है जिसे अग्नि और सूर्य का रूप माना जाता है अंतर यह कि ये दोनोे एक पाँव वाले अज हैं- अज एकपाद (शं नो अज एकपात् देवो अस्तु, अजस्य नाभावध्येकमर्पितं यस्मिन् विश्वानि भुवनानि तस्थुः ।। 10.82.6 )हैं।

अज और अश्व दोनों सृष्टि के आदि में ही पैदा हो गए थे, जब हिरण्यगर्भ भण् की आवाज करते हुए फटा तो उसके ऊपर जो रस चिपका रह गया वह अज हो गया, जो तेजी से पानी में मिल गया वह रासभ या अश्व हो गया। इसी से अश्व की उत्पत्ति समुद्र से मानी गई है। असलियत यह कि जब यह कथा गढ़ी जा रही थी जंगली गधे/घोड़े कच्छ के टापुओं से फँसा कर लाए जाते थे।

यह है मिथकीय भाषा में कृषि के आरंभ को सृष्टि का आरंंभ बना देना और सबसे पहले पालतू बनाए जाने वाले जानवरों को सृष्टि के आदि में उत्पन्न कल्पित करना। परंतु एक बात पर ध्यान दें कि कृषि या कृत्रिम उत्पादन के आरंभ को हमारे पुराविदों ने सृष्टि का मूल माना, इसे गंगा घाटी (प्रयागराज) मे माना जाता रहा। यदि कृषि (उत्पादन) यज्ञ है, तो इसके लिए इससे उपयुक्त स्थल हो भी क्या सकता था! कमाल का रूपक है (गलत हो तो सुधारें) – अग्नि की उत्पत्ति जल से (आपो ह यद् बृहतीर्विश्वमायन् गर्भं दधाना जनयन्तीरग्निम् । ततो देवानां समवर्ततासुरेकः कस्मै देवाय हविषा विधेम ।। 10.121.7) अग्नि/विष्णु अपने गर्भ समुद्र में सोए रहते हैं। विष्णु से विष्णु (कृषि यज्ञ) की नाभि से निकला कमल (वैभव) और उस पर ब्रह्मा (समस्त प्रकार के विकासों के प्रेरणास्रोत ) विद्यमान। मैं अपनी व्याख्या से पूरी तरह संतुष्ट हूं, परंतु तार्किक संगति के बाद भी यह विश्वास नहीं हो पाता कि इस प्रतीक को गढ़ने वालों के मन में ठीक वे ही विचार रहे होंगे जिनकी हमने उद्भावना की है।

पीछे लौटकर अपने विषय पर आना जरूरी लगता है, और इस विषय में भी मैं जो विचार प्रकट करता हूं वह मात्र एक संभावना है, अकाट्य निष्कर्ष नहीं। हम पहले यह कह आए हैं कि अजपालन का दौर देव युग था। गोपालन से मानव युग आरंभ होता है। परंतु गोपालन युग उस संक्रांति काल का भी निर्णय करता है जिसमें अपनी वन्य संपदा खो चुके आदिम जनों द्वारा मुख्यधारा में अर्थात् उसी संस्कृति में अपने लिए जीवन रक्षा का एक प्रयत्न आरंभ होता है, जिसका वे निरंतर विरोध करते आए थे।उनकी वर्जनाएँ (टैबू) इस समुदाय में जगह बनाने के बाद भी बनी रहती है इसलिए ये साधे कृषिकर्म में भाग नहीं लेते। प्रौद्योगिकी पर एकाधिकार करते हैं। इसके विस्तार में जाने का लोभ संवरण करके ही हम आगे बढ़ सकते हैं।

प्रश्न यह है कि क्या हम विष्णु स्थानीय पूषा को उस संक्रमण काल की अवधारणा मान सकते हैं जब अपने वनांचलों के नाश के बाद आदिम जन कृषि कर्मियों को अपनी सेवाएं देने के लिए बाध्य होते हैं?

मान लिया, परंतु यहाँ प्रश्न उठता है, इंद्र कब और क्यों पैदा हुए?
मेरी कल्पना है और इसे स्थापना के रूप में नहीं रखना चाहता, इसके बाद भी यह निवेदन करने का प्रलोभन होता है कि कृषि के नए देवता के रूप में इंद्र की कल्पना कुशिकों ने की। अपने यशोगान से उन्हें सर्वोपरि देव के रूप में प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न उन्होंने किया। कृषिकर्मियों की सेवा में आने को विवश तो थे, परंतु अपनी सामाजिक वर्जनाओं के कारण वन दहन और कर्षण को धरती माता के प्रति हिंसा मानते थे।

इंद्र का एक नाम कौशिक है – कुशिकों की संतान या उनकी (कुशिकों की गाथापरंपरा की) संतान हैं – आ तू न इन्द्र कौशिक मन्दसानः सुतं पिब। पहली बार इसे पढ़ने के बाद मैने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया था। परंतु ऋग्वेद में उनके प्रति एक दबा हुआ विरोध और सहयोग देखने के बाद मुझे लगा कि इसके पीछे एक ऐतिहासिक सच्चाई छिपी हुई है।इसकी व्याख्या मैं जाना भी चाहें तो आज यह कार्य संभव नहीं है।