Post – 2019-09-17

रामायण की परंपरा (18)
वैदिक रीतिवाद

मैंने अपने शोध विषय के रूप में एक बार ‘प्रयोवाद और रीतिकाल’ का सुझाव रखा था, जिसे डा. नगेन्द्र ने एक झटके में खारिज कर दिया था । मैं आज भी मानता हूं विचार या अनुभूति की कमी और कथन शैली पर अधिक ध्यान देने की स्थिति में कलावाद बढ़ जाता है। संवेद्यता का स्थान चमत्कार ले लेता है। रचना स्वतःस्फूर्त न रह कर प्रयत्नसाध्य हो जाती है।

वैदिक कविता में यह अपनी पराकाष्ठा पर देखने में आता है। ऐसा होना स्वाभाविक था। यदि कवि शिल्पियों से प्रतिस्पर्धा करेंगे तो कविता पर उनकी तरह श्रम भी करना होगा। काव्यसाधना करनी होगी। शिल्पी जैसे अपने पूर्वर्ती कलासिद्धों से अपना ज्ञान और कौशल अर्जित करता है और फिर उसी अभ्यास से कलादृष्टि विकसित करता है और उसमें अपनी ओर से कुछ नया जोड़ते हुए नया कारनामा करता है, नए चमत्कार करता है वैसा ही कवि को भी कर दिखाना होगा।

इस प्रयत्नशीलता के कारण वैदिक कवियों का शिल्प तो अपूर्व और अनन्य है परंतु प्रयत्नसाध्य हो जाने के कारण कविता में भावावेग की कमी हो जाती है। इसे पहली बार लक्ष्य करने के बाद हमने पन्द्रह साल पहले ज्ञानोदय एक लेख लिखा थाः
“नई कविता आंदोलनः पांच हजार साल पहले
“चकित होने के लिए यह शीर्षक ही पर्याप्त है। शीर्षक चुनते हुए मैं स्वयं भी चकित था । आप से भिन्न कारणों से। आप के चकित होने का अर्थ है ‘यह क्या बकवास है! नई कविता और पांच हजार साल पुरानी!’ पर मेरे चकित होने का कारण आप से भिन्न था। उस विस्मय में मैं अपने आप से सवाल कर रहा था कि इससे पहले इस दृश्यमान को किसी ने इस रूप में देखा क्यों नहीं! आप का प्रश्न एक दबी हुई जुगुप्सा हो सकती है, मेरा प्रश्न एक नए साक्षत्कार का आह्लाद था। केवल नई कविता नहीं, एक आंदोलन के रूप में नई कविता! नये पथ की खोज, नये प्रयोग! इसका बोध और दावा भी!”

उस समय मेरा ध्यान वैदिक कविता के असाधारण निखार पर था। कवियों के बीच एक दूसरे को मात देने के लिए किए जाने वाले प्रयोगों पर था इसलिए इस पक्ष पर ध्यान न गया था कि कलावादी साहित्य और कला दोनों समाज से ही नही कट जाते हैं बल्कि स्वयं कवि और कलाकार से भी कट जाते हैं और चमत्कार पसंद करने वाले कुछ कलाविदों के काम के रह जाते हैं।

कवि वामदेव की कुछ ऋचाओं भिक्षु आंगिरस की अभाव की पीड़ा से उपजी कुछ ऋचाओं को और भय और असुरक्षा की कातर पुकारों को छोड़ दें तो मानव संवेदना वैदिक कविता से गायब दिखाई देती है। समाज की भौतिक उपलब्धियों का पता चलता है, उसका लोभ और गर्व देखने में आता है, पर समाज स्वयं गायब मिलता है। व्यापारियों के यात्रापथों को छोड़ कर उनके भूगोल तक का पता नही चलता।

दरबारी कविता में यही होता, जैसे दरबार अपने को समाज से अलग और ऊपर रखने और दीखने का प्रयत्न करता है और अपने आप में एक बंद संसार बन जाता है उसी तरह उसका कवि भी। दानस्तुतियों से इसकी पुष्टि भी होती है कि वे अपनी रचनाएँ संपन्न कलाविदों के लिए किया करते थे।

आश्चर्य इस बात पर होता है कि वैदिक कवियों की ही नहीं, हिन्दी के रीतिकालीन और उर्दू की दरबारी कविता को लोक में जैसी स्वीकृति मिली वैसी स्वीकृति जनवादी और प्रगतिशील कविता को भी नहीं मिली। यदि संस्कृत लोकग्राह्य भाषा होती तो माघ, भारवि और हर्ष भी संभवतः किसी अन्य की अपेक्षा अधिक लोकप्रिय होते।

ऐसा सोचने का आधार यह है कि वैदिक कविता अपने समय के साहित्य रसिकों में जितनी लोकप्रिय थी उतनी ही जनसाधारण में। सिद्धों-संतों तक पहेलियों और सचेत रूप में कविता को दुरूह बनाने की विरासत लोक के माध्यम से पहुँची तो संस्कृत के रीतिवादी और दरबारी कवियों तक साहित्य के माध्यम से। वैदिक कवियों की कविताओं से पता चलता है कि वे अपने समय के और उससे पहले के कवियों की रचनाओं से परिचित थे कई बार उनकी रचनाओं में दूसरे कवियों की पंक्तयाँ या उनके अंश चले आते हैं। यह इतने बड़े पैमाने पर हुआ है कि ब्लूमफील्ड ने वैदिक आवृत्तियों का एक ग्रंथ ही तैयार कर दिया।

इसका एक कारण यह लगता है कि जन साधारण कविता में आनंद लेता था और इसलिए कविसम्मेलन जैसा कोई आयोजन होता था जिसका संकेत दसवें मंडल के 71वें सूक्त में है। मजेदार बात है कि समाज उस काव्य में रुचि ले रहा है जिससे वह स्वयं गायब है। यह साहित्य और कला की सामाजिकता पर पुनर्विचार की माँग करता है। साहित्य समाज का दर्पण बन कर सामाजिक नहीं बनता, वह उसे वस्तु जगत से उठाकर, कुछ समय के लिए एक आनंदलोक में पहुँचा कर क्षणिक मुक्ति देता है। यही गुण उसे ब्रहमानंद सहोदर बनाता। यह भावलोक भी हो सकता है और चमत्कार लोक भी। इसलिए चमत्कार भी व्यर्थ नहीं होता और उसकी भी एक परंपरा होती है।

अब हम केवल एक उदाहरण से इसे समझने का प्रयत्न करेंगे। चमत्कार-प्रदर्शन के लिए दो अलंकार सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं: श्लेष और यमक। ये दोनों भाषा पर असाधारण अधिकार को प्रमाणित करते हैं परंतु इसके कारण ही वे पंक्तियाँ श्रोताओं को मुग्ध कर देती है और उनके मानस पर गहरे अंकित हो जाती हैं जिनमें इसका प्रयोग होता है।
ने के कारण
बिहारी को कवि के रूप में कुछ लोग उनके एक दोहे से जानते हैं ‘कनक कनक तें सौगुनी मादकता अधिकाय।…’ संस्कृत में भाषा पर अधिकार के लिए माघ जाने जाते हैं – गर्वोक्ति है, माघ (शिशुपाल वध) के नव सर्ग पर अधिकार हो जाए तो कोई नया शब्द न मिलेगा – नव सर्गे गते माघे नव शब्दो न विद्यते ।
उनके वसंत वर्णन की पंक्ति:
नव पलाश पलाश वनं पुरः स्फुट पराग परागत पंकजम्‌, मृदुलतांत लतांतमलोकयत्‌ स सुरभिं-सुरभिं सुमनो भरैः।
मेरी चेतना मे आज तक गूँजती है। परन्तु यह याद नहीं कि उन्होंने इसका किस सीमा तक निर्वाह किया है।

वैदिक कवियों में अनेक ने छंद और अलंकार में एक साथ प्रयोग किए हैं और जिसका भी चयन किया है उसका निर्वाह एक पंक्ति में नहीं पूरे सूक्त में किया है। हम इसके लिए केवल एक सूक्त लेंगे जिसके कवि
परुच्छेप दैवोदासि हैं, विषय अग्निः और छंद अत्यष्टि है, केवल एक ऋचा अतिधृति में हैं। हम इनकी सविस्तार व्याख्या में जाएं तो उससे समझ नहीं ऊब पैदा होगी, इसलिए हम उन शब्दों या पदों को कोष्ठबद्ध करके ही संतोष करना चाहेंगे जिनको अलग अलग अर्थों में दुहराया गया है।

अग्निं होतारं मन्ये दास्वन्तं वसुं सूनुं सहसो (जातवेदसं) विप्रं न (जातवेदसम्)
य ऊर्ध्वया स्वध्वरो देवो देवाच्या कृपा ।
घृतस्य विभ्राष्टिमनु वष्टि शोचिषाऽऽजुह्वानस्य सर्पिषः ।। 1.127.1

यजिष्ठं त्वा यजमाना हुवेम ज्येष्ठमंगिरसां विप्र (मन्मभिः)विप्रेभिः शुक्र (मन्मभिः) ।
परिज्मानमिव द्यां होतारं चर्षणीनाम् ।
शोचिष्केशं वृषणं यमिमा (विशः) प्रावन्तु जूतये (विशः) ।। 1.127.2

स हि पुरू चिदोजसा विरुक्मता दीद्यानो भवति (द्रुहंतरः) परशुर्न (द्रुहंतरः) ।
वीळु चिद् यस्य समृतौ श्रुवत्वनेव यत्स्थिरम् ।
निष्षहमाणो यमते (नायते) धन्वासहा (नायते) ।। 1.127.3

दृळहा चिदस्माँ अनु दुर्यथा विदे तेजिष्ठाभिः अरणिभिः (दाष्ट्यवसे)ऽग्नये (दाष्ट्यवसे) ।
प्र यः पुरूणि गाहते तक्षद् वनेव शोचिषा ।
स्थिरा चिदन्ना नि रिणाति (ओजसा) नि स्थिराणि चित् (ओजसा) ।। 1.127.4

तमस्य पृक्षं उपरासु धीमहि नक्तं यः सुदर्शतरो (दिवातरात्) प्रायुषे (दिवातरात्) ।
आत अस्यायुः ग्रभणवत् वीळु शर्म न सूनवे ।
भक्तं अभक्तं अवो (व्यन्तो अजरा) अग्नयो (व्यन्तो अजराः) ।। 1.127.5

स हि शर्धः न मारुतं तुविष्वणिः अप्नस्वतीषु उर्वरासु (इष्टनिः) आर्तनासु (इष्टनिः) ।(आदत) हव्यानि (आददिः) यज्ञस्य केतुः अर्हणा ।
अध स्मास्य हर्षतो हृषीवतो विश्वे जुषन्त (पन्थां) नरः शुभे न (पन्थाम्) । 1.127.6

द्विता यदीं कीस्तासो अभिद्यवो नमस्यन्त उपवोचन्त भृगवो मथ्नन्तो दाशा भृगवः
अग्निरीशे वसूनां शुचिर्यो धर्णिः एषाम् ।
प्रियाँ अपिधीः( वनिषीष्ट मेधिर) आ (वनिषीष्ट मेधिरः) ।। 1.127.7

विश्वासां त्वा विशां पतिं हवामहे सर्वासां समानं दम्पतिं (भुजे) सत्यगिर्वाहसं भुजे) ।
अतिथिं मानुषाणां पितुर्न यस्यासया ।
अमी च विश्वे अमृतास (आ वयः) हव्या देवेष्व वृत्र (आ वयः) ।। 1.127.8

त्वं अग्ने सहसा सहन्तमः (शुष्मिन्तमो) जायसे (देवतातये) रयिर्न (देवतातये) ।
(शुष्मिन्तमो) हि ते मदो द्युम्निन्तम उत क्रतुः ।
अध स्मा ते परि चरन्ति (अजर) श्रुष्टीवानो न (अजर) ।। 1.127.9

प्र वो महे सहसा सहस्वत उषर्बुधे पशुषे न (अग्नये) स्तोमो बभूतु (अग्नये) ।
प्रति यदीं हविष्मान् विश्वासु क्षासु जोगुवे ।
अग्रे रेभः न जरत (ऋषूणां) जूर्णिर्होत (ऋषूणाम्) । 1.127.10

स नो नेदिष्ठं ददृशान आभर अग्ने देवेभिः सचनाः (सुचेतुना) महः रायः (सुचेतुना) ।
(महि) शविष्ठ नस्कृधि सञ्चक्षे भुजे अस्यै ।
(महि) स्तोतृभ्यो मघवन् त्सुवीर्यं मथीः उग्रो न शवसा ।। 1.127.11