Post – 2019-09-11

रामकथा की परंपरा(13)
पहली नजर में यह लग सकता है कि हम रामकथा की परंपरा से अलग हटकर ऋग्वेद कालीन खनन-उद्योग के दलदल में इस तरह फंस गए हैं बाहर निकलने का रास्ता ही नहीं मिल रहा है। कुछ दूर तक यह आशंका सही भी हो सकती है, क्योंकि हमने पहले से कोई खाका तैयार करके इस विषय पर लिखना आरंभ नहीं किया। लिखने के दौर में ही मुझे स्वयं उन आश्चर्यजनक सच्चाइयों का पता चला जिनकी न तो किसी अन्य लेखक ने कल्पना की थी, न स्वयं मुझे इनका अनुमान था।

परंतु रामायण में ऋग्वेद इस तरह इतने जटिल रूप में उपस्थित है कि हमें लगता है कि बौद्ध धर्म को निष्प्रभाव करने के लिए अपने समय की सबसे लोकप्रिय इतिहास गाथा को महिमामंडित करने के लिए ऋग्वेद की वृत्रकथा का बड़े मनोयोग से समावेश करते हुए, इसे लोकोत्तर बना दिया गया। इसलिए ऋग्वेद के खनन कार्य को समझे बिना रामायण की बारीकियों को समझा ही नहीं जा सकता। उसके अनेक पक्ष या तो धुँधले रह जाते हैं या अनर्गल प्रतीत होते हैं।

ऋग्वेद कालीन आर्थिक गतिविधियां चार दिशाओं में अग्रसर दिखाई देती हैं- पशुपालन, कृषि, व्यापार और उद्योग। उद्योग में हम खनन को भी शामिल कर सकते हैं। यह रोचक है कि रामायण की कथा एक ओर तो कृषि की प्रारंभिक अवस्था की समस्याओं को इस तरह समाहित किए हुए है कि पहली नजर में हमारा ध्यान उधर जाता ही नहीं। वैदिक कालीन कृषि, गोपालन और व्यापार एक पुरानी उपकथा में सिमट कर रह जाते हैं, जिसे हम समुद्र मंथन की जटिल संरचना में बँधा पाते हैं।

यह पहली नजर में एक समस्या प्रतीत होता है, परंतु कुछ रुक कर सोचने पर हमें कृषि और खनिकर्म में गहरी समानता दिखाई देती है। कृषि को धरती का दोहन कहा गया है, और यही बात खनिज संपदा के दोहन पर भी लागू होती है।

इसके साथ पर्वत और बादल का जो आपसी संबंध है, वह इतना मायावी है एक की विशेषता दूसरे पर आसानी से आरोपित की जा सकती है।

हनुमान स्वयं केवल मारुति नहीं है अंजनी के भी पुत्र हैं। अग्नि के भी प्रतिरूप हैं, सूर्य का भी भक्षण कर जाने वाले – लाल देह लाली लसै – हैं। इसीलिए हमें ‘रत्नधातम’ अग्नि की खनन, धातु शोधन, और प्रसाधन में, भूमिका को रेखांकित करना जरूरी प्रतीत होता है। अभी तक अग्नि के तो विविध रूप हमारा ध्यान आकर्षित करते रहे हैं, परंतु यज्ञ (कृत्रिम उत्पादन) का एक ही पक्ष विद्वानों द्वारा प्रस्तुत किया जाता रहा है – यज्ञात् भवति पर्जन्य पर्जन्यात् अन्न संभवः, अन्नात् भवन्ति भूतानि यज्ञो कर्म समुद्भवः। वहां से आगे बढ़ने पर आध्यात्मिक रूप दिया जाता रहा है। इसमें अग्नि का धूमकेतु रूप उजागर है। यज्ञ का वह रूप जिसमें अग्नि के शोचिष्केश रूप को, प्रकाश, लपट और ऊष्मा पैदा करने की उसकी शक्ति को प्रधानता दी जाती रही है, हमारी चिंता के केंद्र में आया ही नहीं। स्वयं मेरी अपनी समझ इस विषय में पूरी तरह स्पष्ट नहीं थी, जो इस लेख माला के चलते हुई।

मैं जब कहता हूँ कि ऋग्वेद विश्व सभ्यता का शिखर बिंदु है तो इसलिए नहीं कि आज की तुलना में भौतिक, औद्योगिक और वैज्ञानिक दृष्टि से वह किसी गिनती में आता है, अपितु इसलिए कि सामाजिक न्याय की दृष्टि से विश्व इतिहास का शिखर बिंदु है। यह बात मैं इस कटु सत्य के बाद भी कह रहा हूँ कि पुरुष सूक्त भी ऋग्वेद में ही है। उसका चालाक लोगों ने जो उपयोग किया वह एक अलग कहानी है।

दूसरी बात यह कि वैदिक काल में न तो आर्थिक समानता थी, न ही सामाजिक समानता थी। दुनिया में आज तक संपत्ति पर अधिकार करने वालों का राज्य रहा है। साम्यवाद आदिम अवस्था की अवधारणा है जिसमें भी इसका समुचित निर्वाह नहीं होता था । साम्यवाद के आधुनिक प्रयोग भी इसलिए विफल रहे कि साम्यवाद की भावना का निर्वाह संभव नहीं हुआ, क्योंकि सामान से भिन्न, एक से बहु, एक जैसे से विविधतापूर्ण की उत्पत्ति सृष्टि का नियम है और साम्यवादी दर्शन अपने अहंकार में इस नियम को उलटने का प्रयत्न कर रहा था, और इसके बावजूद अपने को वैज्ञानिक दर्शन सिद्ध कर रहा था। विज्ञान प्रकृति के नियमों का उल्लंघन नहीं है, उसके नियमों को समझकर उन शक्तियों का समाज हित में उपयोग करने की विद्या है।

हम केवल यह याद दिलाना चाहते हैं कि वैदिक काल में श्रमिकों का उनकी दक्षता के अनुसार इतना सम्मान था कि वे ऋषि माने जाते थे। हड़प्पा की उपादान संस्कृति से भी यह प्रमाणित होता है कि श्रमजीवी वर्ग का जीवन स्तर अन्य प्राचीन और नवीन सभ्यताओं की तुलना में अधिक सम्मानजनक था।

इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए ही हम आप्री सूक्तों को वैदिक, कवियों को और अग्नि की भूमिका को समझने का प्रयत्न कर सकते हैं।

परंतु आज तो भूमिका ही इतनी भारी पड़ गई कि विषय पर आना भी चाहें तो लोग सिर पकड़ कर बैठ जाएंगे । हनुमान की पूंछ की बात जग जाहिर है, पर हमारा यह लेखन भी कितना बढ़ जाएगा, इसका स्वयं हमें भी अनुमान नहीं।