Post – 2019-09-12

रामकथा की परंपरा (14)
आप्रीसूक्त

आप्रीसूक्त मंत्रों का संकलन है, जिसका पाठ एक विशेष अनुष्ठान से पहले, उसके निर्विघ्न निर्वाह के लिए कुछ विधि विधान के साथ किया जाता था। यह आयोजन खनन आरंभ करने से पहले, और अगले सत्रों का आरंभ करने से पहले होता था। यज्ञ का अर्थ ही उत्पादन है, इसलिए पूरा सत्र ही यज्ञसत्र माना जाता था।

इसके लिए समिधा नहीं समिद्ध अग्नि (अंगारों की?) आवश्यकता होती थी (सु समिद्धो न आवह,1.13.1; समिद्धो अग्न आ वह देवाँ अद्य यतस्रुचे, 1.142.1; समिद्धो अद्य राजसि देवो देवैः सहस्रजित्, 1.181.1; समिद्धो अग्निर्निहितः पृथिव्यां, 2.3.1 आदि )। पूरे ऋग्वेद में समिद्ध अग्नि का प्रयोग दो अपवादों को छोड़ कर केवल आप्री सूक्तों में हुआ है और जिन दो को हम अपवाद मान रहे हैं वहां पहले प्रयोग से स्पष्ट है कि यहाँ निर्धूम अग्नि की बात की जा रही है : मित्रो अग्निर्भवति यत् समिद्धो, 3.5.4 और दूसरा प्रातःकालीन अरुणिमा के लिए इसका प्रयोग देखने में आता है : समिद्धो अग्निः दिवि शोचिः अश्रेत् प्रत्यङ् उषसं उर्विया वि भाति। 5.28.1 अतः हम यह मान सकते हैं कि यहाँ कोयले को घी डाल कर प्रज्वलित करने और दहकाते रहने का प्रयत्न किया जाता था। हम जानते हैं की धातु शोधन के लिए लकड़ी का नहीं कोयले का प्रयोग किया जाता रहा है. ऋग्वेद में एक स्थल पर, धातु गलाने के लिए जली हुई लकड़ी अर्थात कोयले को पंखे से लहका कर लोहार द्वारा धातु का उपकरण बनाने का उल्लेख है – जरतीभिर् ओषधीभिः पर्णेभिः शकुनानाम् । कार्मारो अश्मभिर् द्युभिः हिरण्यवन्तं इच्छति, 9.112.2

आप्री सूक्तों में पंखे या ध्मात (धौंकनी) से कोयले को दहकाने का हवाला नहीं नहीं मिलता, इसके स्थान पर कुश और कास या कोई और घास (वर्हि) घी में तर करके आग मेेेें डालते रहने का उल्लेख है।

यहां हम पुनः पाते हैं कि बर्हि काे घी में तर करके आग में डालने का जिक्र केवल आप्रीसूक्तों में ही हुआ है (स्तृणानासो यतस्रुचो बर्हिर्यज्ञे ्ध्वरे,1.142.5; देव बर्हिर्वर्धमानं सुवीरं स्तीर्णं राये सुभरं वेद्यस्याम् । घृतेनाक्तं वसवः सीदतेदं विश्वे देवाः आदित्या यज्ञियासः ।। 2.3.4; सपर्यवो भरमाणा अभिज्ञु प्र वृञ्जते नमसा बर्हिरग्नौ। आजुह्वाना घृतपृष्ठं पृषद्वदध्वर्यवो हविषा मर्जयध्वम्। 7.2.4 आदि)। अन्यथा बर्हि कुश की आसनी या चटाई के लिए प्रयुक्त लगता है जिसे आग के हवाले न करके बैठने के लिए काम में लाया जाता था।

आप्री सूक्तों को छोड़ कर पूरे ऋग्वेद में एक अपवाद को छोड़कर बर्हि का नियमित प्रयोग केवल आसनी या चटाई या बिछावन के लिए हुआ है – (सादय बर्हिषि यक्षि च प्रियम्,1.31.17; आ सीदन्तु बर्हिषि, 1.44.13; सीदता बर्हिः उरु वो सदस्कृतं, 1.85.6; स्तीर्णं बर्हिः आ तु शक्र प्र याहि,1.177.4; आ इदं बर्हिः नि षीदत, 2.41.13 आदि)। जिस अपवाद की हम बात कर रहे हैं उसमें भी घी से तर कर अग्नि के बैठने के लिए बिछाया गया है: औक्षन् घृतैरस्तृणन् वर्हिरस्मा आदिद्धोतारं न्यसादयन्त, 3.9.9।)

अब हम इस बात का दावा कर सकते हैं कि आप्री सूक्तों में आए समिद्ध या सुसमिद्ध अग्नि का लकड़ी के कोयले का औद्योगिक प्रयोजनों के लिए उपयोग में लाने से संबंध है, न कि कर्मकांडीय यज्ञ-विधान से। वह कुहरा जो ऐतिहासिक कालों की गुफाओं से ले कर कई हजार साल पहले की खानों की खुदाइयों तक छाया हुआ था उसका समाधान इन सूक्तों से हो जाता है। उनकी एक प्रमुख समस्या धूम्र रहित प्रकाश पाने की थी। उसे उन्होंने विशाल दीपाधार तैयार करके किया था।