#रामकथा_की_परंपरा (11)
#खनन_का_तंत्र-2
चट्टानों के भीतर किसने हीरे, रतन चाँदी, सोना तथा अन्य धातुओं को छिपा कर रख दिया, यह उत्तरी भारत के मैदानी भाग के लिए, जिसमें न पहाड़ हैं न कोई खनिज धातु, खास करके आश्चर्य की चीज थी। वहां से इन बहुमूल्य खनिजों कहानियां सुनने वालों को यह कुछ और विचित्र लगता था, मानो सब कुछ सोने और चांदी का ही बना हो। इसका बड़ा सुंदर वर्णन रामायण में मिलता है। अंधेरी सुरंग को पार करने के बाद वानरों को एक तपस्वनी मिलती है जिसे वे अपनी व्यथा और हैरानी बताते हैे, “अंधकार से भरे इस बिल में हिम्मत बाँध कर प्रवेश करने वाले हम भूख, प्यास और थकान से निढाल थे और बापर निकले तो जो जो कुछ देखा उसे देख कर दंग रह गए। ऐसा वैभव न सुना या देखा था न देखने को मिलेगा। इसे देख कर तो हमारे होश ही उड़ गए। यहाँ सोने के विशाल भवन (विमानानि) हैं और सामान्य जनों के आवास (गृहाणि) चाँदी के हैं । इतने अलौकिक उत्तम भवन जिसने भी बनाए हों…”
इदं प्रविष्टाः सहसा बिलं तिमिर संवृतम् . क्षुत्पिपासापरिश्रान्ताः परिखिन्नाश्च सर्वशः।
महद् धरण्याविवरं प्रविष्ठाः स्म पिपासिताः इमान् स्तु एवं विधान् भावान् विधान् अद्भुतोपमान्।
दृष्ट्वा वयं प्रव्यथिताः संभ्रान्ता नष्टचेतसः। कांचनानि विमानानि राजतानि गृहाणि च।
येनेन कांचनं दिव्यं निर्मितं भवनोत्तमम्।
तपस्विनी बताती है, “ऐ वानरोत्तम, मय नाम का एक महातेजस्वी रचनाकार (जो है नहीं, संभव नहीं है उसे अपने कौशल प्रतीत कराने वाला, जिस श्रेणी में हम भी आते हैं) उसी ने अपने असाधारण कौशल से ये कंचन के वन निर्मित किए हैं।”
मयो नाम महातेजा मायावी वानरर्षभ। तेनेदं निर्मितं सर्वं मायया कांचनं वनम्। रा.4.51..2,3,5,10,11
इसी का विस्तार है सोने की लंका (कांचनानि विमानानि राजतानि गृहाणि च।) में होता है। सीता के पास पहुंचे हनुमान भी प्यास से परेशान हैं, बस यहां कंचन वन की जगह सचमुच फलों से लदा उद्यान है परंतु उनकी रुचि फल खाने में उतनी नहीं है जितना इस वन को नष्ट करने में ।
यदि इंद्र अपनी माया से प्रबल हुए, अचल, अभेद्य, दृढ़ मायावी शुष्ण को अपनी इच्छा से. अपने प्रताप से, अपने पर्ववान वज्र के प्रहार से चकनाचूर कर दिया:
अया ह त्यं मायया वावृधानं मनोजुवा स्वतवः पर्वतेन ।
अच्युता चिद्वीळता स्वोजो रुजो वि दृळ्हा धृषता विरप्शिन् ।। 6.22.6
तो लगभग वही काम रावण द्वारा रक्षित लंका के साथ राम नहीं राम का दूत करने जा रहा है। उद्यान उजाड़ने के बाद नगर जला देता है । एक भवन से दूसरे भवन पर पर कूदता हुआ।
ऋग्वेद की भाषा में ‘यत् सानोः सानुमारुहद् भूरि अस्पष्ट कर्त्वंम्।
हनुमान लंका में आग लगा देते हैं मरता कोई नहीं है जीवित सभी रहते हैं हाहाकार चारों ओर मचता है। क्या चट्टानों को तोड़ने से पहले उनको आग से दरकाने की पद्धति का यहां अनुकरण नहीं दिखाई देता ? हम पीछे की ओर लौटते हैं।
अग्नि की भूमिका
चट्टानों को तोड़ना आसान नहीं था । इसमें आग की महत्वपूर्ण भूमिका थी। पत्थरों के भीतर अदृश्य परतें होती हैं। लंबे समय तक आग से गर्म किए जाने के बाद ये और खुल जाती हैं इन पर प्रहार किया जाए तो तोड़ना आसान हो जाता है। ऋग्वेद में आग अपनी लपट से शिलाओ को तोड़ देते हैं “दृषदं जिह्वया वधीत्।” यह वर्णन आग की इसी भूमिका के लिए है। यह वाक्य जिस ऋचा में आया है वह ध्यान देने योग्य है:
जामि अतीतपे धनुः वयोधा अरुहत् वनं । दृषदं जिह्वयावधीत् ।। 8.72.4
[[इसका भाष्य करने में संदर्भ से अवगत न होने के कारण सायण ग्रिफिथ की तुलना में अधिक भटक गए है। इसमें आग के द्वारा चट्टान को खूब गर्म करके तोड़ने का चित्रण है जिसमें ईंधन से उठती लपलपाती ज्वाला को उसी लकड़ी पर सवार और तेजी से दौड़ते हुए अपनी जिह्वा से तोड़ते दिखाया गया है। ग्रिफिथ का अनुवाद निम्न प्रकार है:
He hath inflamed the twofold plain: lifegiving, he hath climbed the wood,
And with his tongue hath struck the rock.]]
खनन के प्रसंग में अग्नि की वन पर आरोहण और हनुमान का फल चखने के लिए वक्षों पर आरोहण।
भिनति अद्रिं तपसा वि शोचिषा प्र अग्ने तिष्ठ जनान् अति ।। 8.60.16
वज्र प्रहार
दरकी हुई चट्टान को कभी कभी सीधे ऐसे मुग्दर से जिसके गोलक में गाठें उभरी होती थीं (वज्रेण शतपर्वणा) तोड़ा जाता था या सब्बल से।
सब्बल
मरुतों के जिस ऋष्टि को विद्वानों ने भाला (spears) दुधारी तलवार (double edged sword या lance में से कोई या हताशा में any weapon मान लिया और यह तक नहीं सोचा कि तलवार यदि एक धार वाली हो तो भी कंधे पर नहीं रखी जाती (ऋष्टयो वो मरुतो अंशयोरधि सह ओजो बाह्वोर्वो बलं हितम्। 5.57.6), वह हथियार नहीं ऐसा औजार है जो भारी है और कंधे पर ही रखा जा सकता है।
घन
जिस अन्य औजार का प्रयोग चट्टानों को तोड़ने के लिए किया जाता था वह था ‘घन’ (हैमर) ( वधीर्हि दस्युं धनिनं घनेन एकश्चरन्नुपशाकेभिरिन्द्र )। इसके प्रहार को हनन कहा गया है। वध और हनन दोनों का प्रयोग भंजन के लिए हुआ है।
खनिज दोहन
खनिज पदार्थों के आहरण (extraction) की तुलना दोहन से की गई है, और इस दृष्टि से गायों ( निधियों) को शिलाओं से घेर कर उनकी रक्षा करने वाला वल स्वयं एक गाय बन जाता है
इन्द्रो वलं रक्षितारं दुघाना करेणेव वि चकर्ता रवेण ।
स्वेदांजिभिराशिरमिच्छमानोऽरोदयत्पणिमा गा अमुष्णात् ।। 10.67.6
[[इसका ग्रिफिथ का अनुवाद:
As with a hand, so with his roaring Indra cleft Vala through, the guardian of the cattle.
Seeking the milk-draught with sweatshining comrades he stole the Pani’s kine and left him weeping.
इसमें केवल इतना ही जोड़ा जा सकता है कि ग्रिफिथ ने अमुष्णात् का अर्थ चुराया किया है, जबकि सायण ने अपाहरण जो संदर्भों को देखते हुए अधिक संगत प्रतीत होता है:
अमुष्णाः (1.131.4) बलादपहृतवानसि, made thine own, अमुष्णात् (6.44.22) अपाहरत्, stole away; अमुष्णीतं (1.93.4) अपाहाष्ट्रं, stole.]]
विशेषज्ञ
वैदिक समाज किसी एक खनिज द्रव्य का अपाहरण नहीं करता था। मणि, माणिक्य, सोना, चांदी, ताँबा, जस्ता, सीसा, करायल, कुछ भी असाधारण दीख जाए, उसका कोई न कोई उपयोग तलाशने का प्रयत्न करता था। धातुओं के शोधन का भी प्रबंध खानों के आसपास ही हुआ करता था। इसीलिए उनके दल में धातु विद्या के विशेषज्ञ भी हुआ करते थे। यह कितना विविधता पूर्ण दल हुआ करता था इसका अनुमान हम खनन से जुड़ी गतिविधियों में सम्मिलित लोगों के दैवीकरण से कर सकते हैं: ये हैं अग्नि, इंद्र, मरुद्गगण, बृहस्पति, आंगिरस।
पर्वतों का नामकरण
एक दूसरा तथ्य यह है कि कि विभिन्न धातुओं के स्रोतों या पर्वतों का नामकरण अलग अलग असुरों के रूप में किया गया है। पहले जब खनन का दूर-दूर तक अनुमान नहीं किया जा सकता था तब के अध्येताओं द्वारा इन सभी को या तो बादलों का पर्याय मान लिया जाता था या आसुरी शक्तियों का। आक्रमण और आक्रांता के पाले में रहकर सोचने वाले इनको हड़प्पा का प्रतिनिधि तक बना देते थे, जिनके पुरो को आक्रांता आर्यों के नेता इंद्र ने ध्वस्त कर दिया।
पू, पुर *फू(फूलना, फुलाना, full), भू, भूरि और ग्राम का शाब्दिक अर्थ समूह, बहुतों का एकत्र होना, बढ़ना, पूरा होना आदि है। पुर के साथ अग्रता का भाव भी है जिससे इनका अर्थ अग्रता की दिशा में (पुर एता, पुरोहित) और इसके विपरीत,- पुरा, पुराण भी आ जाता है। पुर का भाव व्रज या गोव्रज, गोष्ठ आदि में भी है। खनिज पदार्थों से भरे हुए पर्वतों को भी इसी कारण व्रज, पुर नाम दिया गया था। यह अपने समय की व्यापारिक कूट भाषा की देन था। वे अपना रहस्य उसी कारोबार में लगे हुए दूसरे लोगों को भी नहीं बताते थे,फिर भी एक दायरे में इन्हें समझा ही न जाए तो संचार का लक्ष्य ही पूरा नहीं होगा। इस कूटनाम को गुह्यनाम कहा जाता था। सच कहें तो हम सभी के असली नाम अलग हैं जिन्हें राशि नाम कहा जाता है। जिस नाम का प्रयोग हम दैनिक व्यवहार में करते हैं वह हमारा नकली या काम चलाऊ नाम, या पुकार का नाम है। असली नाम किसी को बताया नहीं जाता।
अभी इस पृष्ठभूमि में हम उन सभी असुरों को लें, जिनका इंद्र भेदन छेदन या विदारण करते हैं तो स्पष्ट हो जाएगा ये खनिज पदार्थों को चुरा कर अपने पास रखने वाले पर्वत हैं और इन्हीं के विदारण के कारण इंद्र का एक नाम पुरंदर पड़ा। विस्तार भय से हम इनका अनुवाद नहीं करेंगे आप केवल ऊपर की क्रियाओं को ध्यान में रखकर स्वयं यह समझने का प्रयत्न कर सकते है। पुर का भेदन तोड़ने के रूप में (पुरं विभेद अश्मन् एव पूर्वी) क्यों किया जा रहा है:
नि अ विध्यत् इलीबिशस्य दृळहा वि शृंगिणं अभिनत् शुष्णं इन्द्रः । 1.33.12
इन्द्रो यद्वज्री धृषमाणो अन्धसा भिनद्वलस्य परिधीँरिव त्रितः ।। 1.52.5
त्वं शता वंगृदस्याभिनत् पुरोऽनानुदः परिषूता ऋजिश्वना ।। 1.53.8
त्वं दिवो बृहतः सानु कोपयोऽव त्मना धृषता शंबरं भिनत् ।
नि यद् वृणक्षि श्वसनस्य मूर्धनि शुष्णस्य चित् व्रन्दिनो रोरुवद् वना ।…1.54.5
वि शुष्णस्य दृंहिता ऐरयत् पुरः ।। 1.51.11
इन्द्रो यः शुष्णमशुषं न्यावृणङ् मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ।। 1.101.2
अध्वर्यवो यः स्वश्नं जघान यः शुष्णमशुषं यो व्यंसम् ।
यः पिप्रुं नमुचिं यो रुधिक्रां तस्मा इन्द्रायान्धसो जुहोत ।। 2.14.5
वज्रेण वज्री नि जघान शुष्णम् ।। 5.32.4
वृणक्पिप्रुं शम्बरं शुष्णमिन्द्रः पुरां च्यौत्नाय शयथाय नू चित् । । 6.18.8
शतैरपद्रन् पणय इन्द्रात्र दशोणये कवयेऽर्कसातौ ।
वधैः शुष्णस्याशुषस्य मायाः पित्वो नारिरेचीत्किं चन प्र ।। 6.20.4
त्वं कुत्सेनाभि शुष्णमिन्द्रा ऽशुषं युध्य कुयवं गविष्टौ ।
दश प्रपित्वे अध सूर्यस्य मुषायश्चक्रमविवे रपांसि ।। 6.31.3
त्वं पुरं चरिष्ण्वं वधैः शुष्णस्य सं पिणक् ।
त्वं भा अनु चरो अध द्विता यदिन्द्र हव्यो भुवः ।। 8.1.28
नि शुष्ण इन्द्र धर्णसिं वज्रं जघन्था दस्यवि ।
वृषा ह्युग्र शृण्विषे ।। 8.6.14
उतो नु चिद्य ओजसा शुष्णस्याण्डानि भेदति जेषत्स्वर्वतीरपो नभन्तामन्यके समे ।। 8.40.
त्वं शुष्णस्यावातिरो वधत्रैस्त्वं घा इन्द्र शच्येदविन्दः ।। 8.96.17
अहं शुष्णस्य श्नथिता वधर्यमं न यो रर आर्यं नाम दस्यवे ।। 10.49.3
तदिन्न्वस्य परिषद्वानो अग्मन् पुरू सदन्तो नार्षदं बिभित्सन् ।
वि शुष्णस्य संग्रथितमनर्वा विदत्पुरुप्रजातस्य गुहा यत् ।। 10.61.13
और फिर पुर के प्रयोगों पर ध्यान दे सकते हैं:
युधा युधमुप घेदेषि धृष्णुया पुरा पुरं समिदं हंस्योजसा ।
नम्या यदिन्द्र सख्या परावति निबर्हयो नमुचिं नाम मायिनम् ।। 1.53.7
अमात्रं त्वा धिषणा तित्विषे मह्यधा वृत्राणि जिघ्नसे पुरंदर ।। 1.102.7
आ दृळ्हां पुरं विविशुः ।। 5.19.2
त्वं पुरं चरिष्ण्वं वधैः शुष्णस्य सं पिणक् ।
आ न इन्द्र महीमिषं पुरं न दर्षि गोमतीम्
स गोरश्वस्य वि व्रजं मन्दानः सोम्येभ्यः। पुरं न शूर दर्षसि ।। 8.32.5
प्रति यदस्य वज्रं बाह्नोर्धुर्हत्वी दस्यून् पुर आयसींर्नि तारीत् ।। 2.20.8
वृत्रहणं पुरन्दरम्।। 6.16.14