#रामकथा_की_परंपरा (6)
सीता यदि हराई का मानवीकरण हैं तो उसका एक बार स्थापित हो जाने के बाद अपहरण नहीं हो सकता। उस पर अधिकार किसी का हो क्रमशः उसका विस्तार ही होता गया है और जैसा कि हम पीछे देख आए हैं अपनी संगिठत शक्ति के बल पर देव समाज ने जिन वनांचलों को कृषि भूमि और चरागाह में बदल दिया था उन पर निर्भर करने वालों को बाध्य हो कर अन्न के बदले उनको अपनी सेवाएं अर्पित करनी पड़ीं। इसका लाभ उठाकर देव समाज भूमि पर अपना अपरिवर्तनीय अधिकार जमा कर स्वयं श्रमभार से मुक्त हो गया और अब श्रमिक वर्ग (शूद्र वर्ण ) को नियंत्रित करने की व्यवस्था करके खेती का अधिकतम लाभ भी उठाता रहा। उनसे से कुछ वाणिज्य और सुदूर व्यापार में भी सक्रिय हुए। वैदिक काल में व्यापारिक गतिविधियां अपने चरम पर थीं, इंद्र क्षेत्रपति के साथ वणिक बन चुके हैं। उर्वरा भूमि का भले ही अपहरण न हो सके, माल असबाब का अपहरण भी हो सकता था, आहरण भी हो सकता था, उद्धार भी हो सकता था। सीता का नहीं परंतु
श्री या लक्ष्मी का हरण, आहरण और उद्धार तीनों संभव था। रामायण में सीता का अपहरण करने वाला सुदूर देश में, दूसरों के लिए अगम्य प्रदेश में रहता है।
रामायण में यह अगम्यता समुद्री बाधा के कारण है, परंतु लंका की भारत से दूरी को देखते हुए यह बौनी कल्पना हुई । वैदिक कालीन समुद्री व्यापारियों की पहुंच समुद्र पार स्थित रेगिस्तान से भी पार तक थी – समुद्रस्य आर्द्रस्य धन्वस्य पारे । वही सुमेर था, मालामाल होने का अवसर था , इसलिए सुमेरगिरि को स्वर्ण गिरी के रूप में कल्पित किया जाता रहा। हम इसी से तत्कालीन समुद्री व्यापारिक गतिविधियों को. सुमेर के जिगुरातों को, उनके क्रूर शासक पूरोधाओं को समझ सकते हैं। अपने अपने राम लिखने और चर्चा में आने के बाद भी मैं प्रशंसाओं से प्रसन्न नहीं होता था। हर बार यह पीड़ा होती कि मैं लंका के लिए सही सेटिंग न दे पाया। यदि आज लिखता तो लंका सुमेरिया होता, दशानन या दशकंधर उसके नगर – ऊर, ऊरुक, लगाश, निप्पूर, सुप्पारक, गिर्शू, अक्कद, देर, किसुन्ना, मरद को ध्यान में रखता। गल्प और विश्वास में कुछ भी सही नहीं होता, परन्तु जब तक लोग प्रेरित और प्रभावित होते हैं, सत्य की कसौटी वही होता है।
भारत में दो द्वारका थे । एक से आप परिचित हैं, और उसमें समुद्र में डूबा हुआ नगर भी आता है और बेट द्वारका भी आता है। द्वारका यह इसलिए कहा जाता था कि यह निर्यात और आयात का समुद्री व्यापार का द्वार हुआ करता था जिसका सौभाग्य इसके नष्ट हो जाने के बाद शायद भृगुकक्ष को मिल गया। पश्चिमोत्तर में एक दूसरा द्वारका थी जिसकी तलाश इंटरनेट से करने चला, सफलता न मिली। जो भी हो उत्तर से दक्षिण तक हड़प्पा के नगरों का विदेशों से संबंध किसी एक रास्ते से उनके हित के अनुकूल नहीं था। इतना याद रखना उपयोगी होगा कि समुद्रस्य पारे के पूरक रूप में पर्वतों के पार (पर्वतस्य पारे) का भी उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है।
रामायण में समुद्र पार के ठिकाने की बात सबसे अंत में आती है, उससे पहले उन दर्रों की बात आती है जिनके पार जाकर सीता को प्राप्त किया जा सकता है । राम सीता की खोज में किष्किंधा पहुंचते हैं तो सुग्रीव के मुख से वलासुर या बोलन का महत्व मिथकीय कलेवर में सामने आता है। वानरगण को समझाते हुए सुग्रीव दो दुर्गम सँकरे मार्गों का परिचय देते हैं। इनका वर्णन करने से अधिक सुविधाजनक है रामायण में इनका हवाला दे कर अपना काम आसान बनाऊँ:
तत्र पांडुर मेघाभं जांबूनद परिष्कृतम्। कुबेर भवनं रम्यं निर्मिचं विश्वकर्मणा।। तत्र वैश्रवणो राजा सर्वलोकनमस्कृतः। धीमान् रमते श्रीमान् गुह्यकैः सह यक्षराट्।।
क्रौंचं च गिरिमासाद्य बिलं तस्य सुदुर्गमम्। अप्रमत्तैः प्रवेष्टव्यं दुष्प्रवेश्यं हि तत्स्मृतम्।।क्रौंचस्य तु गुहाश्चान्याः सानूनि शिखराणि च। दर्दराश्च नितंबाश्च विचेतव्याः ततस्ततः ।। 4.43.21, 23, ….नील वैदूर्यपत्राख्या नद्यस्तत्र सहस्रशः। 39
साथ ही एक सलाह उत्तर कुरु के विषय में है:
न कथंचन गंतव्यं कुरूणां उत्तरेण वै । अन्येषांमिति भूतानां नानुक्रामति वै गतिः।।56
कहें यहां गोबी के रेगिस्तान के खतरे की ओर संकेत करता है और इससे हम मध्येशिया के एक प्रधान भारतीय उपनिवेश की भौगोलिक स्थिति को समझ सकते हैं। इसके बाद वानर यूथ का भी एक सुरंग से पाला पड़ता है:
तथा च इमे बिलद्वारे स्निग्धाः तिष्ठन्ति पादपाः। इत्युक्तास्तद्बिलं सर्वे विविशुः तिमिरावृतम् ।।4-50-17, 19
प्रविष्टा हरिशार्दूला बिलं तिमिरसंवृतम्। न तेषां सज्जते दृष्टिः न तेजो न पराक्रमः ।।
रामायण का भूगोल सुनी सुनाई बातों पर आधारित होने के कारण काफी गड़बड़ है। हमारे लिए महत्वपूर्ण इनमें आए हुए संकेत हैं। वैदिक काल में भारत का देशांतर का स्थल व्यापार तीन प्रमुख दरों से हुआ करता था। इनमें सबसे पुराना बोलन था, और सबसे नया और सबसे खतरनाक खैबर था, परंतु गंतव्य स्थलों की दृष्टि से सबसे छोटा रास्ता यही था। ऋग्वेद में इनका किस रूप में उल्लेख है इसे हम कल देखेंगे।