Post – 2019-09-01

#रामकथा_की_परंपरा (7)

ऋग्वेद में #कुबेर (खैबर) का उल्लेख नहीं है। कहते हैं कुषाण काल के बाद इससे आवागमन बढ़ा। आज तो यह एशियाई महापथ बन चुका है। पहले इससे होकर आवागमन दो कारणों से दुष्कर था। एक तो रास्ता खतरनाक था, दूसरे इसके पचास किलोमीटर के लंबे प्रसार में इसके निकट बसे जत्थे बहुत उपद्रवी रहे हैं। वे इससे होकर आने जाने वाले व्यापारियों से दर्रा सुरक्षित पार कराने के बदले में मनमानी फीस वसूलते रहे हैं। आनाकानी करने पर जान माल के लिए संकट पैदा करते रहे हैं। संभव है किसी न किसी अनुपात में यह समस्या किसी न कि किसी रूप में दूसरे दर्रों के साथ भी रही हो।

ऋग्वेद इनके उत्पीड़न की कहानियों से भरा है। ये विरोध करने पर खाई में फेक देते थे, हाथ-पाँव बाँध कर नदी में फेंक देते थे, अँधेरी गुफा में बन्द कर देते थे, आग से दागते थे। इन यातनाओं के शिकार लोगों में से जिनकी प्राण रक्षा हो सकी थी – रेभं, वन्दन, कण्व, अन्तक, वय्य, शुचन्तिं, अत्रि, वम्र, कलि, पठर्वा, शर्यात, कुत्स, आर्जुनेय, तुर्वीति, ध्वसन्ति, पुरुषन्ति, अन्धतमस आदि – का नाम गिनाते हुए उल्लेख किया गया है। इनके इस आतंक के डर से व्यापारी भारी रिश्वत देने को बाध्य होते थे।

लूट खसोट ही इनकी जीविका का साधन था इसलिए लगता है वे सता कर अधिक उगाही का प्रयत्न तो करते थे पर जान से नहीं मारते थे कि कहीं आवा-जाही पूरी तरह बंद न हो जाए। इन्हीं के डर से व्यापारी मुकाबले की तैयारी के साथ बहुत बड़े दलों (श्रेणियों) में निकलते थे। इसके बाद भी जान माल लेकर सुरक्षित पार जा सकेंगे या नहीं इसकी चिंता बनी रहती थी। इंद्र को रास्तों को पार कराने वाले के रूप में, अश्वनीकुमारों को संकट के उबारने वाले के रूप में इन्हीं आपदाओं के कारण याद किया जाता रहा है।

पार लगाने की गुहार का समुद्री यात्राओं और पर्वतीय यात्राओं दोनों के संबंध है। कहाँ किसका हवाला है इसको संदर्भ के अनुसार ही जाना जा सकता है। हम यहाँ दुर्ग, या दुर्गम पर्वतीय मार्गो से पार लगाने के कुछ हवालों का उल्लेख कर सकते हैं। इनका अनुवाद इसलिए नहीं करते हैं कि हम से कुछ खींच-तान हो सकती है या यह संदेह किया जा सकता है। इसलिए इसमें जो लोग गहरी रुचि रखते हैं वे इंटरनेट पर उपलब्ध अनुवादों का सहारा लेकर इनकी परख कर सकते हैं:
द्विषो नो विश्वतोमुख आति नावेव पारय । अप नः शोशुचत अघम् । 1.97.7
इन्द्र प्र णः पुरएतेव पश्य प्र नो नय प्रतरं वस्यो अच्छ ।
भवा सुपारो अतिपारयो नो भवा सुनीतिरुत वामनीति ।। 6.47.7
जुषेथां यज्ञं द्रविणं च धत्तं अरिष्टैः नः पथिभिः पारयन्ता ।। 6.69.1
पुरा नो बाधाद्दुरिताति पारय क्षेत्रविद्धि दिश आहा विपृच्छते ।। 9.70.9
सहस्राक्षेण शतशारदेन शतायुषा हविषा अहार्षं एनम् ।
शतं यथा इमं शरदो नयाति इन्द्रो विश्वस्य दुरितस्य पारम् ।। 10.161.3

इस मार्ग से गुजरने का केवल एक संकेत मिलता है। यह है बिना हाथ पाँव वाले असुर कुणारु, या कुनर को चूर करने की घटना (सहदानुं पुरुहूत क्षियन्तं अहस्तमिन्द्र सं पिणक् कुणारुम् । अभि वृत्रं वर्धमानं पियारुं अपादं इन्द्र तवसा जघन्थ ।। 3.30.8)।

कुनर के विषय में विकीपीडिया में निम्न जानकारी मिलती है:
कुनर नदी (पश्तो: کونړ سيند‎, कूनड़ सींद; Kunar) पूर्वी अफ़्ग़ानिस्तान और उत्तर-पश्चिमी पाकिस्तान की एक ४८० किमी लम्बी नदी है। यह पाकिस्तान के ख़ैबर-पख़्तूनख़्वा प्रांत के चित्राल ज़िले में हिन्दु कुश पर्वतों की पिघलती हिमानियों(ग्लेशियरों) से शुरू होती है। यहाँ इसका नाम यरख़ुन नदी होता है और मस्तुज के बाद इसका विलय लुतख़ो नदीसे होता है जिसके बाद इसे मस्तुज नदी के नाम से पुकारा जाता है। चित्राल शहर से गुजरने के बाद इसे चित्राल नदी बुलाया जाता है और फ़िर यह अफ़्ग़ानिस्तान की कुनर घाटी में प्रवेश होती है, जहाँ बाश्गल नदी के साथ संगम के बाद इसका नाम कुनर नदी पड़ जाता है। फ़िर यह जलालाबाद शहर के पूर्व में काबुल नदी में विलय कर जाती है। यह नदी पूर्व में पाकिस्तान में प्रवेश होती है और इसका विलय अटक शहर के पास महान सिन्धु नदी में हो जाता है।

यह याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि दर्रों के नाम उन नदियों के नाम पर रखे जाते हैं जिनके कटाव या वहाव से उनका निर्माण होता है, और ऋग्वेद में इनको भी असुर के रूप में कल्पित किया गया है। बोलान का वलासुर के रूप में उल्लेख हम कर आए हैं।

जिस साँचे के भीतर रख कर ऋग्वेद का अध्ययन किया जाता रहा उसमें इस बात को समझने की संभावना ही नहीं थी, इसलिए सभी को बादलों का पर्याय मान लिया जाता रहा। इनका इकहरा अर्थ करना इकहरी सोच का परिणाम है। शैतान अल्लाह या गाड का काम बिगाड़ने वाला हो सकता है, दुष्ट भी, और नटखट और प्यारा बच्चा भी, प्रिय मित्र भी और अपनी व्युत्पत्ति में सत को परम सत्ता मानने वाला बुद्धिवादी चिंतक भी जिसका आस्थावादी विश्वासों से सीधा विरोध था और इसलिए इनका दैवीकरण कर दिया गया। इसी तरह नमुचि वर्षा किए बिना बढ़ जाने वाला बादल भी हो सकता है, वह धातुपिंड भी जिससे धातु आसानी से अलग नहीं होती, कंजूस भी, और भारी व्याधि या दबोच लेने वाला शत्रु भी। यही पणि आदि पर भी लागू होता है। इसलिए शब्दार्थ से अधिक संगत है संदर्भ जिसके कई पहलू हैं।

#गोमती(गोमल)
ऋग्वेदिक व्यापारिक गतिविधियों का सबसे व्यस्त मार्ग गोमती अर्थात गोमल का लगता है। इसकी पके हुए फलों से लदी हुई डाल से तुलना गई है। गोमती का भी इकहरा अर्थ (गोधन या गो-उत्पाद) और कुछ आगे बढ़ कर नदी विशेष, इसलिए लिया जाता रहा कि संदर्भ का पता ही नहीं था, गो का अर्थ रत्न भी हो सकता है इसकी ओर तो एक रत्न गोमेद है यह देख कर भी ध्यान नहीं जाता । गोमती का शाब्दिक अर्थ है सुजला (क/कन्/ कम् /को/कू तथा ग /गन्/गम्/गो/गू का मूल अर्थ जल निष्पन्न आशय गति, गमनशील.चमक. चमकनेवाला खनिज, ठंड, आदि है) । ऋग्वेद में जिस आत्मीयता से गोमती को याद किया गया है वह किसी अन्य नदी के साथ देखने में नहीं आता और इसका कारण है इस दर्रे से चलने वाला व्यापार और होने वाली आय:
एवा हि अस्य सूनृता विरप्शी गोमती मही ।
पक्वा शाखा न दाशुषे ।। 1.8.8
आ यातु इन्द्रो दिव आ पृथिव्या मक्षू समुद्रात् इत वा पुरीषात् ।
स्वर्णरात अवसे नो मरुत्वान् परावतो वा सदनात् ऋतस्य ।।
स्थूरस्य रायो बृहतो य ईशे तमु ष्टवाम विदथेषु इन्द्रम् ।
यो वायुना जयति गोमतीषु प्र धृष्णुया नयति वस्यो अच्छ ।। 4.21.3-4
एष क्षेति रथवीतिः मघवा गोमतीरनु । पर्वतेष्वपश्रितः ।। 5.61.19
आ न इन्द्र महीम् इषं पुरं न दर्षि गोमतीम् । उत प्रजां सुवीर्यम् ।। 8.6.23
एषो अपश्रितो वलो गोमतीमव तिष्ठति ।। 8.24.30

इसके बाद भी खनिज संपदा के दोहन के लिए तैयार की गई सुरंगो का अभेदीकरण वल से ही किया गया है, क्योंकि वही सबसे पुराना पारपथ था जब कि खनिज रत्नों की तुलना गो और यदा कदा अश्व से की गई है।

ऋग्वेद में सीता हरण की कथा गो-हरण और गो-आहरण की कथा के रूप में आई है, इसे कल देखेंगे।