Post – 2019-09-02

#रामकथा_की_परंपरा(8)
#पणियों_का_गोहरण

पणि कौन थे? विचार बहुत हुआ है, पर हाल यह कि एक की बात दूसरे की समझ में नहीं आती। पणियों को फीनीशियन बताने वाले विद्वानों को यह पता न था, कि फीनीशियन नाम साइप्रस पेड़ से उनके लगाव के कारण हेरोदातस (हरिदत्त) द्वारा दिया गया। पण- सिक्का से पणि के संबंध से इसे धनी का पर्याय माना गया। इस साम्य को पणियों की समृद्धि और सायण द्वारा (जैसे, चोष्कूयमाण इन्द्र भूरि वामं मा पणिर्भूरस्मदधि प्रवृद्ध ।। 1.33.3, में) पणि का अर्थ ‘व्यवहारी’ करने से भी बल मिलता है। एक स्थल पर यह स्पष्ट कहा गया है कि धनी पणियों के साथ इंद्र की मित्रता नहीं हो सकती (न रेवता पणिना सख्यमिन्द्रोऽसुन्वता सुतपाः सं गृणीते।) परंतु इसके अगले ही चरण में उनको नग्न कहा गया है और साथ ही यह कथन भी है कि जो उनकी सेवा नहीं करता है, पकाता नहीं है, वह उनकी दौलत तो छीन ही नहीं लेते हैं, उनका वध भी कर देते हैं (आ अस्य वेदः खिदति हन्ति नग्नं वि सुष्वये पक्तये केवलो भूत्। 4.25.7)। नग्न शब्द के प्रयोग और वैदिक उपासना पद्धति से परहेज के आधार पर, और नग्नों को धनी मानकर, एक उद्भावना यह की गई मानो यह जैन मत की प्राचीनता का प्रमाण हो, और वैदिक आचार पद्धति से जैनियों के बहुत पुराने विरोध को प्रकट करता हो। इसी का दूसरा पाठ यह किया गया कि ऐसा धनी व्यक्ति जो अपनी कंजूसी के कारण दान पुण्य नहीं करता है यज्ञ नहीं करता है, उसके लिए यह प्रयोग है, परंतु नग्न शब्द वहां भी समस्या पैदा करता है। इसके अतिरिक्त दसवें मंडल के 108 वें सूक्त में उन्हें अहिंसा का प्रेमी नहीं, लड़ाकू दिखाया गया है। व्रात्यों के साथ भी इनका संबंध जोड़ने का प्रयत्न किया गया। एक अन्य स्लथ पर पणि के लिए ‘धनी’ शब्द का प्रयोग हुआ है, जहाँ उसे दस्यु कहा गया है और यहां भी इंद्र उसका वध मारतौल (हैमर) से करते हैं (वधीर्हि दस्युं धनिनं घनेनँ एकश्चरन्नुपशाकेभिरिन्द्र, 1.33.4)।

पण्, वण्, भण् किसी चीज के टूटने की आवाज की अनुकृति है। पण्, वण्, भण् तोड़ने, बाँटने, हिंसा करने का भी द्योतक है इसके कारण पणि का प्रयोग उन असभ्य और उपद्रवकारी कबीलों के लिए हो सकता था जो खनिज संपदा से समृद्ध क्षेत्रों में रहते थे, परंतु ना तो उनका दोहन करते थे ना धातु निर्माण करना जानते थे फिर भी यदि बाहर से आया हुआ वही व्यक्ति उनके भूभाग में कोई गतिविधि चलाएं तो उस पर आपत्ति भी करते थे।

पण शब्द बाद में चलन में आया, संभव है इसके नामकरण में उल्टे पणि शब्द की भूमिका हो। पणि का व्याज रूप में प्रयोग धनी, कंजूस, अधर्मी किसी रूप में संभव है, परन्तु ऋग्वेद में जिन पणियों का उल्लेख है उनकी सही पहचान के लिए संदर्भ या उनके भौगोलिक परिवेश पर ध्यान दिया जाना चाहिए था, इसका अभाव ऊपर की सभी कोशिशों में, जिनमें श्री अरबिंद की आध्यात्मिक व्याख्या भी आती है. देखा जा सकता है। सरमा इंद्र की दूती बन कर पणियों के पास जिस देश में जाती है वह उनके उपासकों के देश से “दूरे हि अध्वा जगुरिः पराचैः” बहुत बहुत दूर अगम्य का है।” इसलिए भारतीय भूभाग में किसी उपक्रम या साधना पद्धति या आर्थिक अवस्था की व्यक्तियों से मूल अवधारणा का कोई संबंध नहीं।

पणियों का अपराध
सामान्यतः यह समझा जाता है पणियों ने इंद्र की गायों को चुरा कर किसी कंदरा में छिपा दिया था और उन्हीं की खोज में इन्द्र ओर से सरमा नाम की कुतिया भेजी जाती है (इन्द्रस्य दूतीरिषिता चरामि)। परंतु ऋग्वेद के किसी स्थल से चोरी का अभियोग सिद्ध नहीं होता। यह सच है विशेषण के रूप में उनके लिए एक बार दस्यु शब्द का प्रयोग हुआ है। चोर के लिए ऋग्वेद में तस्कर का प्रयोग देखने में आता है। दस्यु का अर्थ समझने में परेशानी हो रही हो तो दस के नासिक्य उच्चारण दंस और इससे निकले डँसना, दंस के बिगड़े या गढ़े रूप दंश से समझिए और फिर भी समझ में न आए तो ऋग्वेद के ‘यो अस्मान् अभिदासति’ – ‘जो हमें तरह तरह से सताता है’, से समझिए। दास का अर्थ गुलामी करने वाला नहीं होता, सताने वाला, उपद्रव करने वाला होता है, पर सेवा करने वाला आशय भी ऋग्वेद में (अर् = चीरने वाला, आर्य = भूमि को चीरने/ जोतने वाला और अरि = आहत करने वाला के तर्क से) प्रयोग में आ रहा था जो सुदास और दिवोदास में है, इसलिए दस्यु का अर्थ उपद्रवी है, न कि लुटेरा. जैसा बाद में प्रचलित हुआ।

घटना के रूप में, केवल एक स्थल पर पणियों के द्वारा गायों को रोक लिए जाने की उपमा जल धाराओं के रुकने के लिए दी गई है। जल के बिल को वृत्र ने उसी तरह रोका था जैसे पणियों ने गायों को। इंद्र ने वृत्र का वध करके जल धाराओं को खोल दिया (दासपत्नीः अहिगोपा अतिष्ठन् निरुद्धा आपः पणिना इव गावः । अपां बिलं अपिहितं यत् आसीत् वृत्रं जघन्वाँ अप तद् ववार ।। 1.32.11)।

पानी इंद्र का नहीं था, वह प्रकृति-प्रदत्त था, इसलिए सार्वजनिक था। इसको किसी रूप में, कोई भी, किसी अन्य अन्य को उपयोग करने से रोकता है तो वह उपद्रवी है। इसी तर्क से वैदिक समाज यह मानता था कि हवा पानी की तरह ऐसे खनिज पदार्थ भी जिनका स्थानीय जन दोहन नहीं करते हैं, वह सर्वसुलभ है, और उनके दोहन पर आपत्ति करने वाले, उनको रोककर रखने वाले, ऊपद्रवी हैं।

इसी तर्क से ऋग्वेद में एक सूक्त में मगध क्षेत्र की चांदी की खानों को भी गायों, उनके खनिज भंडार को दूध, उनके शोधन को दूध पका कर दही जमाने के रूप में चित्रित किया गया है और उनके दोहन को अपने अधिकार के रूप में पेश किया गया है:
किं ते कृण्वन्ति कीकटेषु गावो नाशिरं दुह्रे न तपन्ति घर्मम् ।
आ नो भर प्रमगन्दस्य वेदो नैचाशाखं मघवन् रन्धया नः ।। 3.53.14

वही तर्क यहां भी लागू होता है। पणि अपने भूभाग की खनिज संपदा का किसी अन्य के द्वारा दोहन का विरोध करते हैं, और वैदिक व्यापारी प्राकृतिक संपदा को उसकी संपदा मानते हैं जो उनका उपयोग करना चाहता है और जिसे उनके उपयोग से वंचित किया जा रहा है। समस्या अपहरण की नहीं है, चोरी की नहीं है, अपनी क्षेत्रीय प्राकृतिक संपदा पर अपना अधिकार जताने की है।

सरमा का पणियों के देश में पहुँचना
किसी चीज की खोज के लिए कुत्तों, कुतियों का प्रयोग स्वाभाविक है। उनमें इसकी नैसर्गिक क्षमता है। बंदर इसके लिए नहीं जाने जाते, यद्यपि छलांग लगाने के मामले में उनका कोई जवाब नहीं। रामायण में एक बंदर को दूत बना कर भेजना पड़ा इसलिए कपीश्वर को असाधारण बुद्धिमान, अर्थात कवीश्वर भी बनाना पड़ा।

सरमा पणियों के देश में उसी तरह पहुंचती है जिस तरह लंका में हनुमान पहुंचते हैं। हनुमान को अपनी यात्रा में परीक्षा के लिए सुरसा के मुंह में प्रवेश करके उसका ग्रास बनने से बचते हुए बाहर निकलना होता है, तो सरमा को रसा की धारा को पार करना होता है । रसा इतनी विकट नदी है कि इसे पार किया ही नहीं जा सकता। पणि सरमा से पूछते हैं कि उसने रसा को पार कैसे कर लिया (कथं रसायाः अतरः पयांसि), वह बताती है, इन्द्र की कृपा से उसन बिना भयभीत हुए छलांग मार कर उसे पार कर लिया (अतिष्कदो भियसा तन्न आवत्तथा रसाया अतरं पयांसि, 10.108.2)। रामायण में रसा में सु उपसर्ग लगा कर एक विचित्र चरित्र सुरसा का गढ़ना पड़ा, क्योंकि अलंघ्य जल को समुद्र के रूप में कल्पित किया गया।