Post – 2019-09-03

#रामकथा_की_परंपरा(9)

यह बात आसानी से समझ में नहीं आएगी कि किसी क्षेत्र की प्राकृतिक संपदा उन सभी की है जिन्हें उनकी जरूरत है और जो उनका उपयोग कर सकते हैं। मनुष्य का अधिकार केवल उस पर है, जिसे उसने अपने श्रम से अर्जित किया या रूपांतरित किया हो। यही वह न्याय है जिससे एक बार वन्य भूमि को उर्वरा भूमि में बदलने के बाद ऐसा करने वालों का तो उस पर अधिकार हो ही जाता था, उस पर उसके वंशधरों का अधिकार भी बना रहता था। जिन्होंने ऐसा नहीं किया वे भूमि पर अधिकार जमाए लोगों के आश्रित बने रहे। राजा जिस भूभाग पर विजय प्राप्त कर लेता था उसकी समस्त संपदा पर उसका अधिकार हो जाता था। अब अपने अर्जित क्षेत्र के उत्पाद का एक अंश राजा को देना होता।

प्राकृतिक स्रोतों से उपलब्ध हवा, धूप और पानी पर किसी का अधिकार नहीं। सभी उनका उपयोग कर सकते हैं। परंतु जहां राजसत्ता नहीं थी उन क्षेत्रों के कबीले अपने विचरण क्षेत्र की समस्त संपदा का स्वामी अपने को मानते थे। जलाशयों तक पर यक्षों का अधिकार इसी न्याय पर आधारित था, इससे यह भी तय किया जा सकता है कि मूलतः वे किस भौगोलिक क्षेत्र के निवासी थे। इसकी झलक ऋग्वेद में भी जल स्रोतों को बाँध रखने के हवालों में मिलती है। अपने क्षेत्र से होकर गुजरने वाले मार्गों पर वहां के कबीलों का नैतिक दावा इसी का परिणाम रहा हो सकता है। हम आज उन कालों के नियमों का सही अनुमान नहीं लगा सकते।

जो भी हो, सरमा के रूप में प्रतीकबद्ध खोजी जिन ‘गायों’ पर अपना दावा पेश करता है, वे गायें नहीं विपुल निधियाँ है। पणियों के पूछने पर कि सरमा वहां किस लालसा से आई है, वह स्वयं कहती है : ‘मह इच्छन्ती पणयो निधीन् वः’, मैं तुम्हारी विपुल निधियों की चाह से यहां भेजी गई हूं। इस कथन से स्पष्ट है कि जिस धन की तलाश है उस पर इंद्र का स्वामित्व नहीं है, पणियों का दावा अवश्य हो सकता है।

पणियों को यह पता है कि उस द्रव्य के बदले में किसी तरह की वस्तु पाई जा सकती है। वह गोरू हो, अश्व हो या कोई भी दूसरी वस्तु। यह निधि चट्टानों के भीतर (अद्रिबुध्न) है, परंतु ठीक कहाँ मिलेगी, यह भरोसा नहीं (रेकुः पदं, रेकृ शंकायाम्)। पणि इनके स्वामी नहीं हैं बल्कि पूरी तत्परता से इनकी रक्षा करते हैं।
अयं निधिः सरमे अद्रिबुध्नः गोभिः अश्वेभिः वसुभिः नि/ऋष्टः ।
रक्षन्ति तं पणयः ये सुगोपा रेकु पदं अलकं आ जघन्थ ।। 10.108.7

इस कथन के पीछे एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक सचाई छिपी हुई है। यह प्रश्न तो मन में उठता ही है कि वैदिक व्यापारियों को यह कैसे पता चला कि किसी पर्वत के भीतर रत्न भरे हुए हैं? जब पता चला तो उन तक वे पहुंचे कैसे?

इस अभियान से बहुत पहले यह सिलसिला आरंभ हुआ था। नदियों के कटाव और बहाव से चट्टानों के टूटने के बाद उनके खंड धारा में बह कर आते थे। नदी का जलस्तर कम होने पर उसकी पेटी मे ये रत्न बिखरे मिलते जिन्हें स्थानीय जन अपने आभूषण के रूप में पहनते रहे हो सकते हैं।

पहले गाय गधा खाने पीने की चीजों के बदले में इन्हें लिया जाता था। फिर क्रमशः इस विषय की जानकारी और खनिकर्म में उन्नति के बाद वे यह निश्चय कर सके कि यदि इन पहाड़ों के भीतर छिपे रत्नों का दोहन कर सकें तो आसानी से बिना कुछ दिए मालामाल हो सकते हैं।

1987 में हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य में हमने अफगानी विद्वान ए. नासिरी के The Lapis lazuli in Fghanistan, Afghanistan, xii, 4, 48-56 के साक्ष्य पर लिखा था, “लाजवर्त संगमरमर की मोटी चट्टानों के नीचे पाई जाती है। बदख्शाँ की लाजवर्द की खानों में इसके टुकड़े 1 ग्राम से लेकर अंडे के आकार तक के पाए जाते हैं। सारी सुंग (सर-ए-संग) में पुरदर्रा और रोबोट के चरागाह के बीच पुरदारा मे एक का जो विवरण उन्होंने दिया है उसके अनुसार खान घाटी के तल से 350 मीटर की चढ़ान पर संगमरमर की मोटी परत काटकर निकाली गई है। इसमें कई गलियारे खोदे गए हैं जिनमें उत्तर की ओर जाने वाला गलियारा तो कई हजार वर्ष पहले खोदा गया था और इसकी खुदाई लंबे समय तक चलती रही थी। यह सुरंग 75 फीट लंबी है जिसके अंतिम सिरे पर एक विशाल गुफा सी बन गई है। इस गुफा की चौड़ाई 10 मीटर, लंबाई 340 मीटर और ऊंचाई 25 मीटर है। यहां खनन क्षेत्र 6 से 8 मीटर तक गहरा है। खुदाई करने वालों को खुदाई के लिए इस क्षेत्र तक पहुंचने के लिए एक पतली सुरंग का प्रयोग करना पड़ता था।

नासिर कुछ दूसरी खानों का भी उल्लेख करते हैं जिन तक पहुंचने का रास्ता अधिक कठिन है और जिनकी ऊंचाई भी बहुत अधिक है उदाहरण के लिए प्रोरा में स्थित चलमक घाटी से 450-500 मीटर के चढ़ान पर स्थित है। वह आगे लिखते हैं, “ प्राचीन काल में टोहपरक खननों के प्रयोग लगभग संगमरमर की सभी चट्टानों पर किए गए हैं। उन्हें जहां कहीं लाजवर्द का तनिक भी आसार दिखाई देता, वे गड्ढे और सुरंग खोदना शुरू कर देते थे। इसी तरह की एक प्रायोगिक सुरंग सर-ए-संग घाटी में मूल खानों के निकट पूर्व-पश्चिम रुख में खोदी गई है। इन खदानों को चार गर्तों में जो विविधआकारों के हैं, पूरा कर लिया गया था। यह लगभग 20 से 50 मीटर लंबी डेढ़ से 3 मीटर गहरी और डेढ़ से 3 मीटर चौड़ी टोहपरक सुरंगे हैं।

रामायण में जिसे क्रौंच पर्वत कहा गया है वह कोकनद या कोकचा नदी से सटा बदख्शाँ का संगमरमरी पहाड़ लगता है। कोकचा के विषय में विकीपीडिया की निम्न पंक्तियां ध्यान देने योग्य हैं:
कोकचा नदी (फ़ारसी और पश्तो: کوکچا‎, अंग्रेज़ी: Kokcha) उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान की एक नदी है। यह आमू दरिया की एक उपनदी है और बदख़्शान प्रान्त में हिन्दू कुश पहाड़ों में बहती है। बदख़्शान प्रान्त की राजधानी फैज़ाबाद इसी नदी के किनारे बसी हुई है। कोकचा नदी की घाटी में सर-ए-संग खान स्थित है जहाँ से हज़ारों सालों से लाजवर्द(लैपिस लैज़्यूली) निकाला जा रहा है।[1] २००० ईसापूर्व में अपने चरम पर सिन्धु घाटी सभ्यता ने भी यहाँ के शोरतुगई इलाक़े के पास एक व्यापारिक बस्ती बनाई थी जिसके ज़रिये लाजवर्द भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा प्राचीन मिस्रऔर मेसोपोटामिया की सभ्यताओं तक भी पहुँचाया जाता था।”

नदी का प्रवाह खतरनाक है। इसमें नौचालन संभव नहीं है। जोखिमपरस्त संतरण के एक साहसी के कथनानुसार यह दुनिया की सबसे खतरनाक नदी है और इन पहाड़ियों तक पहुंचने का दूसरा रास्ता नहीं है। सुरक्षा का यह प्रधान कवच था, परंतु वैदिक साहसी किन तरीकों का इस्तेमाल करते थे कि वे इन तक पहुंचने में ही सफल नहीं हुए थे अपितु खुदाई के मौसम में इसका लगातार दोहन करते रहे। पणियों को इस बात पर आश्चर्य होता है। कैसे, किस तरह, मनचाहा विचरण कर लेती है तू? तू जिस इंद्र की दूती है वह कैसे है, उनकी शक्ल सूरत कैसी है”
और सरमा कहती है, प्रचंड से प्रचंड नदी की धारा इंद्र के रास्ते को रोक नहीं सकती और वह पणियों को धमकाती है कि यदि उन्होंने आपत्ति की प्राण से हाथ धोना पड़ेगा:
न तं गूहन्ति स्रवतो गभीरा हता इन्द्रेण पणयो शयध्वे ।। 10.108.4
जीना समुदायों का जी का का आधार कृषिकर्म नहीं रहा है वे क्रूर जितने भी क्यों ना हो, बहुत बड़ी संख्या में एकत्र नहीं रख सकते थे, और यही अंतर वैदिक व्यापारियों को इंतकाम खतरों से निबटने में सहायक हो

ता था। पणि इस कथा के अनुसार इस बात के लिए तैयार हो जाते हैं कि इन्द्र अनुगामी आएँ और वे उनके अधीन उनके साथ काम करने के लिए तैयार हैं -(आ च गच्छाती मित्रं एना दधाम अथा गवां गोपतिर्नो भवाति ।। 10.108.3) परंतु इससे ही खनन के तरीकों का पता पणियों को चल जाता, इसलिए यह शर्त उन्हें स्वीकार नहीं है। कोई और चारा न रह जाने के बाद वे भी धमकाते हैं ‘हम भी किसी से कम योद्धा नहीं हैं और बिना हमें पराजित किए कोई इनपर एधिका नहीं कर सकता:
कस्त एना अवसृजात् अयुध्वी उत अस्माको आयुधा सन्ति तिग्मा ।। 10.108.5
परंतु सरमा उनके सीमित जत्थे को इंगित करते हुए उनका उपहास करती है:
असेन्या वः पणयो वचांसि अनिषव्याः तन्वो सन्तु पापीः ।
अधृष्टो व एतवा अस्तु पन्था बृहस्पतिर्व उभया न मृळात् ।। 10.108.6

हम रामकथा पर विचार कर रहे हैं। उसमें हड़प्पाकालीन खनन प्रविधियों पर विस्तार से विचार करने की छूट नहीं है, फिर भी कुछ बातों को रेखांकित करना जरूरी लगता है। हमने केवल लाजवर्द की खानों की चर्चा की है, परंतु रामायण में अफगानिस्तान से लेकर उत्तर कुरु तक की समृद्धि का मुक्त कंठ से बखान है, और रत्नों के अतिरिक्त सोने, चाँदी आदि की भी उन्हें इतनी ही व्यग्रता से तलाश थी। कोकनद के ऊपरी सिरे कर इसके लिए शोरतुगई मे एक अड्डा कायम किया गया था जिसके विषय में केनोयर की निम्न पंक्तियों का अवलोकन उपयोगी होगा:
Another source of gold was along the Oxus river valley in northern Afghanistan where a trading colony of the Indus cities has been discovered at Shortughai. Situated far from the Indus Valley itself, this settlement may have been established to obtain gold, copper, tin and lapis lazuli, as well as other exotic goods from Central Asia. Ancient cities of the Indus Valley Civilization, Jonathan Mark Kenoyer, Jonathan Mark Kenoyer, Oxford University Press, Page 96, 1998, ISBN 0-19-577940-1

परन्तु इससे भी अधिक रोचक यह तथ्य है कि उन्होंने खनिज संपदा की खोज में उन रेगिस्तानी क्षेत्रों को छान मारा था जहाँ जाने की रामायण में वर्जना है। उनके अड्डे किजिल कुम (लाल रेत का रेगिस्तान) में भी है, कारा कुम (काली रेत के रेगिस्तान) में भी और गोबी में भी जिनके निवासियों को तुषार के रूप में याद किया गया है और जहाँ से तुषारी (तोखारी क और ख) के भारतीय अभिलेख मिले।

एक अन्य रोचक जानकारी यह कि अफगानिस्तान (आर्याना) के कोकनद की सार्थकता तो समझ में आती हे, इस नाम की आवृत्ति उन्होंने तुर्कमीनिया के खोकन्द और उजबेगिस्तान में फरगाना के कोकन्द में कर रखा था जब कि ये नद नहीं नगर हैं।

इसके अतिरिक्त यह जानकारी भी प्रासंगिक हो सकती है कि हमने डरते हुए ऋग्वेद के संदर्भ देकर यह दिखाया था कि इनमें वैदिक समाज की संलिप्तता थी, और इस तरह का कारोबार प्राचीन भारत में हड़प्पा से ही संभव था, दोनों को एक दूसरे से जोड़ा था, आज यह सर्वमान्य है किजिल कुम के निवासी हड़प्पा के व्यारीे थे।

इस खनि कर्म का अन्य महत्वपूर्ण पक्ष यह है, कि खुदाई के काम में सक्रिय भूमिका अंगिरसों या नवग्यों की है
एह गमन्नृषयः सोमशिता अयास्यो अङ्गिरसो नवग्वाः ।
तं एतमूर्वं वि भजन्त गोनामथैतद्वचः पणयो वमन्नित् ।। 10.108.8