#रामकथा_की_परंपरा (10)
ऋग्वेद ऐसा अक्षय भंडा़र है जिसके सही दरवाजे तक का आज तक पता नहीं लगाया जा सका, उसके भीतर की निधि का आकलन तो उसके बाद ही संभव है। रामायण की अनेक गुत्थियों को समझने में ऋग्वेद हमारी सहायता कर सकता है।
ऋग्वेद के पुरातात्विक पक्ष की समझ ऐतिहासिक काल की हमारी असाधारण उपलब्धियों को समझने में सहायक हो सकती हैं।
ऋग्वेद के माध्यम से हम देव संस्कृति के उस दबदबे को समझ सकते हैं जिसके कारण एक ओर तो इसके प्रभाव क्षेत्र के लोग इसकी भाषा, संस्कृति, जीवनशैली को अपना कर इनके जैसा बनने को आतुर थे तो दूसरी ओर इससे भीतर ही भीतर इतना चिढ़ते थे कि देव को शैतान (ई. दएवा, इं डेविल) का पर्याय मान बैठे थे।
सफल व्यवस्थाएँ भले ही शान्ति का राग अलापें, वे दबंग होती हैं। उन्हें शान्ति अपनी शर्तों पर चाहिए। दूसरों को उनके रास्ते में रुकावट नहीं डालनी चाहिए, अन्यथा उनकी खैर नहीं, यह हम पणियों के रूपक में देख चुके हैं।
परंतु, यदि आप ध्यान दें, तो ऋग्वेद से ही हमें भाषा और संस्कृति के प्रसार की दिशा और तंत्र की भी जानकारी मिल सकती है और अनेक झूठे दावों का निराकरण भी हो सकता है।
आगे चलकर हम देखेंगे कि राम की कथा दक्षिण भारत में खेती के प्रचार और प्रसार से किसी न किसी रूप में जुड़े रही है। इस तरह ऋग्वेद पूरे भारत में उस प्रसार की कहानी को भी प्रतिबिंबित करता है।
हम नहीं समझते कि इतने मनोयोग से ऋग्वेद का अध्ययन करने वाले और आधुनिक दृष्टि संपन्न पाश्चात्य विद्वानों में से किसी का ध्यान उन चीजों की ओर नहीं गया होगा जिनकी कामचलाऊ जानकारी के बावजूद, साधन और समय की सीमाओं के होते हुए भी, हमारे जैस औसत प्रतिभा के व्यक्ति ने लक्ष्य कर लिया।
हमारी अपनी सीमा यह है कि हमारे न चाहते हुए भी विषय का विस्तार होता जा रहा है और यह तय करना तक कठिन है कि इनकी चर्चा करें या बच कर द्विवेदी जी की ओर लौटें जिनकी परंपरा की गलत अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए हम इस दिशा में इतना आगे बढ़ गए। जो भी हो कुछ बातों को स्पष्ट करना जरूरी लगता है।
ऋग्वेद का पाठ
इस ऋचा पर दुबारा ध्यान दें:
नि सर्वसेन इषुधीरँसक्त समर्यो गा अजति यस्य वष्टि ।
चोष्कूयमाण इन्द्र भूरि वामं मा पणिर्भूरस्मदधि प्रवृद्ध ।। 1.33.3
सायणाचार्य ने इसमें प्रयुक्त कुछ शब्दों का भाष्य रूप में किया है उसे हमने कोष्ठक के भीतर दिया है:
नि सर्वसेन इषुधीः (निषंगान्) असक्त (नि असक्त नितरां पृष्ठभागे संयोजितवान्) सं अर्यः गा अजति यस्य वष्टि ।
चोष्कूयमाण (अस्मभ्यं प्रयच्छन्) इन्द्र भूरि वामं (धनं) मा पणिः (व्यवहारी) भूः अस्मत्$अधि (अस्मासु) प्रवृद्ध ।। 1.33.3
ग्रिफिथ ने इसका अनुवाद निम्न रूप में किया है:
Mid all his host, he bindeth on the quiver he driveth cattle from what foe he pleaseth:
Gathering up great store of riches, Indra. be thou no trafficker with us, most mighty.
मेरी कई बातों में दोनों से असहमति है। दोनों की सीमा यह है कि प्रयुक्त शब्दों के अर्थ को लेकर खींचतान कर सकते थे, संदर्भ के अभाव में इनका सही आशय नहीं ग्रहण कर सकते थे।
पणि उत्तरी अफगानिस्तान एक कबीला था, जिसे यूनानी लेखकों ने पर्नियन के रूप में पहचाना था। ये उस समय तक भी यायावरी की अवस्था में ही रह गए थे। इसलिए सायण ने इसका जो अर्थ लिया है वह गलत है ग्रिफिथ ने इन्हें रहजन माना है जो पूरी तरह गलत ना होते हुए भी सही नहीं है। पणि का यहां अर्थ है कंजूस या देने से इन्कार करने वाला।
घ्रिफिथ ने ‘नि’ उपसर्ग को इससे आगे के ‘सर्वसेन’ से जोड़कर यह अर्थ किया कि समस्त सेना के होते हुए अकेले इंद्र हैं जो तीर तरकश से सज्जित रहते हैं और जिस भी शत्रु की गोसंपदा को चाहते उसे अकेले ही हाँक ले जाते हैं।
वह जिस साँचे के भीतर समझने का प्रयत्न कर रहे थे उसमे वैदिक प्रतीक विधान को समझा ही नहीं जा सकता था। यह सीमा सभी पश्चिमी अध्येताओं और उन पर भरोसा करने वाले भारतीय विद्वानों की है। संदर्भ का ध्यान उन्हें ही नहीं सकता था।
हम इसका शाब्दिक अनुवाद करने की जगह इससे उभरने वाले निम्न तथ्यों की ओर ध्यान दिलाना चाहते हैं:
1. कारवाँ के सभी सदस्य पूरी तरह तीर तरकश से लैस रहते और संकट की घड़ी में युद्ध के तैयार हो जाते (सर्वसेनः इषुधीः नि असक्त)।
2. दूसरे क्षेत्रों की किसी भी संपदा हासिल करना चाहते थे तो कर ही लेते थे (सं अर्यः गा अजति यस्य वष्टि)।
3. खनन के कार्य में मुख्य भूमिका श्रम करने वालों की होती थी। ये धातु विद्या से परिचित असुर पृष्ठभूमि से आए हुए विशेषज्ञ थे, जिन्हें अंगिरसों और भरद्वाजों के रूप में प्रतीक बद्ध किया गया है (आ इह गमन् ऋषयः सोमशिता अयास्यो अङ्गिरसो नवग्वाः, 10.108.8)। इसमें प्रयुक्त अयास्य ( धातु विद्या के जानकार) विशेष ध्यान देने योग्य है। इनको ऋषियों का दर्जा देना, इस बात को प्रकट करता है की श्रमिकों का वैदिक काल में कितना सम्मान था।
4. इस ऋचा से पता चलता है कि इस कारोबार में पहल बड़े व्यापारियों की हुआ करती थी, जिसे इंद्र के रूप में प्रतीकबद्ध किया गया है। श्रमिकों के खाने पीने की जरूरतें, जिसे सोमपान के रूप में इंगित किया गया है (ऋषयः सोमशिता) वही पूरा करता था ।
5. अभियान सफल होने पर खनिज द्रव्य का बँटवारा हुआ करता था, जिसमें महाजन अधिक से अधिक भाग अपने पास रखना चाहता था, और इस कंजूसी पर कटाक्ष करते हुए, कहा गया है तुम्हारे पास इतना माल हमारी मेहनत के कारण आया है (अस्मत् अधि प्रवृद्धः), हमें हमारा हिस्सा देने में इतनी कंजूसी तो न करो (मा पणिः भू)।
यदि वैदिक ऋचाओं को समझना है, तो यह काम योग्य से योग्य व्यक्ति द्वारा अच्छा से अच्छा अनुवाद करके नहीं किया जा सख्त। पहले आधुनिक समझ और पुरातात्विक तथा नृतात्विक संदर्भों को ध्यान में रखते हुए भाष्य किया जाना चाहिए और समझ जब स्पष्ट हो जाए उसके बाद ही कोई अनुवाद प्रामाणिक रूप में किया जा सकता है।
अभी हमने ऊपर उठाए गए प्रश्नों के एक पक्ष पर विचार किया है। दूसरे पक्ष कम महत्व के नहीं हैं।