#रामकथा_की_परंपरा (5)
#बालि_और_वलासुर
इतिहास से आसक्ति का एक नुकसान यह है इतिहास को नए नए रूप में दुहराते रहते हैं। कई बार इस बात का भी ध्यान नहीं रखते उसकी रक्षा कर रहे हैं, या उसे विकृत कर रहे हैं।
हमने अपने एक लेख में और कद्रू (पृथ्वी) और सुपर्णी (वाणी/ गायत्री छंद) के बीच प्रतिस्पर्धा की चर्चा की थी । यह कथा शतपथ की है। महाभारत तक आकर कद्रू दक्ष की पुत्री, कश्यप की पत्नी सांपों की माता हो जाती है। सुपर्णी का स्थान विनता ले लेती है। यह भी दक्ष की पुत्री, कश्यप की पत्नी है, कद्रू की सौत और गरुड़ सहित पांच पुत्रों की माता है । कद्रू और विनता के बीच वही पहेली बुझाई जाती है जो उस कहानी में सुपर्णी से बुझाई गई थी। विनता के बाजी हारने के बाद कद्रू इसे अपनी दासी बना लेती है। दासता से मुक्ति का पहले में यह उपाय था कि सुपर्णी आकाश से सोम को धरती पर लाए और यह शर्त सोम के रक्षक गंधर्वों के बाण से उसका एक पंख कट कर नीचे गिर जाता है, यही कारण है, गायत्री डेढ़ चरण का छंद है। महाभारत की कथा में स्वर्ग से अमृत लाने की शर्त है जो इसके पुत्र गरुड़ को स्वर्ग से लाना पड़ता है, इसके बाद उसे कद्रू की दासता से मुक्ति मिलती है। इस कहानी में व्याज रूप से यह संकेत भी आ गया है की गरुड़ की सांपों से क्यों शत्रुता है।
इन कथाओं के संकेत ऋग्वेद में हैं, परंतु कथा नहीं है। इसका इतिहास ऋग्वेद से बहुत पुराना है यह तो इससे ही पता चल जाता है कि ऋग्वेद में सोम रस घर-घर (गृहे गृहे) निकाला जाता था। मूल कल्पना यह कि सोमलता जिसमें अमृत जैसा मधुर रस भरा है, धरती की चीज तो हो नहीं सकती। यह तो स्वर्ग से ही आई होगी। किसी की असाधारण गुणवत्ता को रेखांकित करने का भारतीय तरीका है इसलिए प्याज और लहसन के भी स्वर्ग से, पर किसी गंदी जगह पर गिरे अमृत से उत्पन्न बताया जाता है।
समस्या यह कि यह स्वर्ग से धरती पर आया कैसे? उसी के विषय में संभवतः पहले भी कई उद्भावनाएँ की गईं। ऋग्वेद की एक ऋचा के अनुसार स्वर्ग से इसे श्येन ले आया था (आदाय श्येनो अभरत् सोमं सहस्र सवाँ अयुतं च साकम् । 4.26.7) दूसरी में उसका पुत्र (यं सुपर्णः परावतो श्येनस्य पुत्र आभरत्,10.144.4)ले आया था। किन परिस्थितियों में किसे श्येन बनना पड़ा। इसी को लेकर यह कहानियां कहीं गई हैं।
यह अकेली ऐसी कथा नही। बहुत सी घटनाएं हैं जिनको लेकर बाद में तरह-तरह की अटकलबाजियाँ की गई हैं। कुछ में दुराग्रह के कारण अनर्थ कर दिया गया है। उदाहरण के लिए ऋग्वेद की एक ऋचा (3.53.24) में विश्वामित्र यह दावा करते हैं कि वह भरत वंश के हैं। शतपथ ब्राह्मण में केवल यह उल्लेख है कि कभी दुष्यंत के पुत्र भरत ने प्रयाग तक अपने राज्य का विस्तार किया था और वहां पर एक अशवमेध यज्ञ किया था। महाभारत तक आते-आते भरत को उसी विश्वामित्र की पुत्री शकुंतला का पुत्र ही नहीं बना दिया जाता इसे लेकर आगे पीछे कहानियाँ गढ़ ली जाती हैं जिनसे सभी परिचित हैं।
हमने इन परिवर्तनों का उल्लेख इसलिए किया कि यह बात समझ में आ सके की बलि की कथा का ऋग्वेद के वल के प्रसंग से गहरा संबंध है, यद्यपि रामायण में कहानी को इतना बदल दिया गया है कि एक के सहारे दूसरे को समझना आसान नहीं है, यूँ तो वल के रूपक को ही, मेरी जानकारी का कोई इसके लिए हमें उल्टी यात्रा करनी होगी। रामायण में वर्णित कथा के अनुसार बाली की दुंदुभी के पुत्र मायावी से किसी स्त्री के कारण शत्रुता हो जाती है। वह आकर बालि को युद्ध के लिए ललकारता है और इससे क्रुद्ध होकर बालि जब उसका सामना करने को बढ़ता है को मायावी भाग खड़ा होता है। बालि उसका पीछा करता है। सुग्रीव भाई का साथ देने के लिए उसके साथ जाता है। मायावी अपनी प्राण रक्षा के लिए एक बिल में प्रवेश कर जाता है, बालि सुग्रीव को बाहर रहने की हिदायत देकर अकेले उस बिल में प्रवेश कर जाता है। पूरा साल बीत जाता है पर उसका अतापता नहीं चलता (तस्य प्रविष्ठस्य बिलं साग्रः संवत्सरो गतः, स्थितस्य च बिलद्वारि स कालो व्यत्यवर्तत, रा.4.9.15)। फिर किसी के मारे जाने का चीत्कार सुनाई पड़ता है और बिल से फेन सहित रक्त निकलता हुआ दिखाई देता है। सुग्रीव समझता है उसका भाई मारा गया और अपनी रक्षा के लिए भारी चट्टान बिल को बंद करके (पिधाय च बिलद्वारं शिलया गिरिमात्रया, वही, 18) लौट आता है, इसके बाद बालि को मृत मान कर सुग्रीव का राज्याभिषेक कर दिया जाता है। बालि उस चट्टान को हटा कर बाहर आता है और सुग्रीव को परास्त करके उसकी पत्नी को रख लेता है, सुग्रीव जान बचा कर ऋष्यमूक पर रहने लगता है।
यह कथा अपने वर्तमान रूप में कई तरह के घालमेल का परिणाम है जिसके ताने-बाने के कई धागे ऋगवेदिक काल से ही नहीं, कृषि के आरंभ से भी बहुत पुराने हैं और इतिहास की कई असाध्य गुत्थयों का समाधान कर सकते हैं, परंतु उन पर विचार करने का यहाँ अवकाश नहीं। परंतु इसकी मुख्य प्रेरणा ऋग्वेद की वल की रूपकथा है। ऋग्वेद में इंद्र स्वयं वल का भेदन करते हैं, रामायण में राम बालि का वध करते हैं केवल यह समानता है, परंतु भेदन वध नहीं है। जैसे कुबेर खैबर, गोमती गोमल दर्रे का द्योतक है, उसी तरह वल= बोलन दर्रे का। परंतु बोलन दर्रा बहुत पुराना है। हम नहीं जानते कि ऋग्वेद के रचना काल में इसकी किन्हीं बाधाओं को दूर करने में वैदिक व्यापारियों की कोई भूमिका थी या नहीं, परन्तु इन्द्र की महिमा में जिन कारनामों का उल्लेख है वे सभी पुराने हैं, वे जिन विपत्तियों में याद किए जाते हैं वे सभी उस समय की है। इसके कारण वैदिक कालीन खनिज भोडारों की तलाश की गतिविधियों का इन पर आरोपण हो गया। उन गतिविधियों का सीधा संबंध पणियों की कथा से है जिनको आर्यों के विषय में सर्वमान्य बना दिए गए ढाँचे में समझने के प्रयत्न में हमारे पूर्ववर्ती विद्वान तरह तरह की अटकलबाजियाँ करते रहे हैं पर समझ नहीं पाते रहे हैं। बालि की कथा में जिस बिल का जिक्र है, वह खनिज भंडारों के दोपन के लिए बनाई गई सुरंगे हैं। एक स्थल पर स्पष्ट रूप से इसके बिल को खोलने की बात की गई है (त्वं वलस्य गोमतोऽपावरद्रिवो बिलम् । 1.11.5)।
पणियों की कथा सीताहरण और लंकाविजय से है अतः इस पर आज विचार करना संभव नहीं।
आज हम इतना संकेत अवश्य कर सकते हैं कि खनन का काम पूरे साल नहीं चलता था। पुरातत्व के उत्खनन का काम भी नहीं चलता। इसका मौसम होता है। पुरातत्वविद भी सीजन के अंत में खुदे हुए भाग को ढक और पाट देते हैं कि अगले सीजन तक के अंतराल में कोई आदमी या जानवर उसे किसी तरह की क्षति न पहुँचा सके। वेदिक खनिकर्मी भी सुरंग के द्वार को ऐसी शिलाओं, मिट्टी, खर-पतवार से इस तरह बंद कर देते थे कि इसमें कोई जानवर या साँप आदि न घुसने पाए, यहाँ तक कि किसी को इस बात का संदेह तक न हो सके कि यहाँ सुरंग खोदी गई है। अगले मौसम में सबसे पहला काम सुरंग का द्वार खोलना ही होता था। जैसा कि स्वाभाविक है, इसके साथ कोई अनुष्ठान भी होता था। इसका बहुत सुंदर चित्रण ऋग्वेद में मिलता है जिसकी चर्चा भी कल ही करेंगे। इस तरह सुग्रीव द्वारा पर्वतोपम शिला द्वारा बिल का द्वारा बंद करना सार्थकता रखता है।