Post – 2019-08-28

#रामकथा_की_परंपरा (4)
#हनुमान

रामायण के अधिकांश चरित्रों के नाम ऋग्वेद से लिए गए हैं । उनमें ऐसे नामों की संख्या काफी है जो इंद्र की किसी विशेषता को ध्यान में रखकर गए गए हैं। असुरों के नामकरण में इंद्र के शत्रुओं की छाया है:
हनुमान
हनुमान का अर्थ है मजबूत जबड़ों वाला। अक्सर इसका आज ठुड्डी कर लिया जाता है। इंद्र स्वयं भी अपने मजबूत हनुओं के लिए विख्यात हैं (आ ते हनू हरिवः शूर शिप्रे रुहत्सोमो न पर्वतस्य पृष्ठे । 5.36.2)।

मरुद्गण इंद्र के सहायक हैं, उनके भाई हैं (किं न इन्द्र जिघांससि भ्रातरो मरुतस्तव ।) हनुमान मारुति हैं, मरुत के पुत्र और इसलिए उनके सभी गुण इनमें है (गतिः वेगश्च तेजश्च लाघवं च महाकपे। पितुः ते सदृशं वीर मारुतस्य महौजसः)। राम के सेवक और सहायक हैं।

मरुद्गण अंजि धारण करते है (शुभ्रासो अञ्जिषु प्रिया उत, 2.36.2; गोमातरो यच्छुभयन्ते अंजिभिस्तनूषु शुभ्रा दधिरे विरुक्मतः, 1.85.3), हनुमान अंजनी के पुत्र हैं। अंजि और ऋष्टि का ठीक ठीक रूप और अर्थ क्या है, इसे लेकर कुछ भ्रम है। नीचे हमने उस शब्द शृंखला के माध्यम से एक निश्चित अर्थ पहुंचने का प्रयास किया है । अंजि शब्द को ही लें :
अंजन् (2.3.2) व्यक्तीकुर्वन्,lighting up (7.2.5) समंजन् आज्येन समंजन्ति, adorn them
अंजन्ति (1.56.6; 95.6) आद्र्रीकुर्वन्ति, anoint (3.14.6) सिंचन्ति, adorn, अञ्जन्ति (5.3.2) they balm; (6.11.4) सिंचन्ति, तर्पयन्ति,adorn
अंजयः (1.166.10) व्यक्तानि, ornaments
अंजसा (1.139.4) मुख्यत्वेन प्रकृष्टेन; (6.16.3) आर्जवेन, straight on
अंजसि (1.132.2) अभिव्यक्तिमति कपटादिरहिते, straight on
अंजसी (1.104.4) आंजस्योपेताः, Anjasi
अंजि (4.58.9; 7.57.3) आभरणं, adornment
अंजिभिः (1.64.4) रूपाभिव्यंजकैराभरणैः, With glittering ornaments (5.53.4) आभरणेषु,with ornaments
अंजिमन्तः (5.57.5) आभरणवन्तः, Rich in adornment.
इसके साथ हम ध्वनियों के नासिक्य उच्चारण ध्यान में रखते हुए, इनके अननुनासिक उच्चारण को भी लें। एक ही शब्द ध्यान में आता है, वह है अजिर जिसका अर्थ होता है खुली जगह, जहां प्रकाश और हवा मिलती है। इसका प्रयोग आंगन और प्रांगण , घर के भीतर और बाहर की खुली जगह के लिए किया जाता है।

ऊपर के सभी शब्दों पर ध्यान देने के बाद हमारे लिए यह मानना आसान लगता है कि अंज का अर्थ प्रकाश, आलोक और बहुवचन मे प्रकाशरश्मियाँ सकता है। अंजनी का अर्थ हुआ आलोक की जननी, अर्थात् उषा की लालिमा और इसी कारण हनुमान का रूप है – लाल देह लाली लसै अरुधरि लाल लँगूर ।

यही आलोक, यही अरुणिमा, हनुमान या उनके पिता मरुत की विशेषता है और लोक व्यवहार में हनुमान की प्रतिमा को सिंदूर से रंग कर दिखाने की परंपरा अधिक विश्वसनीय है जबकि नाना अलंकारों से भूषित दिखाने की वैदिक परंपरा मूल कल्पना का भोंड़ा चित्रण है। आवेश में नहीं लंबे सोच विचार के बाद आंकड़ों की छानबीन करने पर हम इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि विरोध उत्पन्न होने पर लोक, वेद और शास्त्र से अधिक प्रमाणिक होता है, परंतु शास्त्र के दबाव में वह भी आ जाता है।

वायु में या उसके किसी रूप में नैसर्गिक गुणों की तलाश तो की जा सकती है, मानव निर्मित आभूषणों की नही। यह अनुवादों की गलती नहीं है कि वे अंजि का अर्थ आभूषण करते हैं, ऋग्वेद में उनका ऐसा ही वर्णन मिलता है।
यही दशा उनके आयुध की है, जिसे ऋष्टि कहा गया है। ऋष्टि के अर्थ निम्न प्रकार हैं:
ऋष्टिभिः (2.36.2) स्वकीयैरायुधैः, with spears
ऋष्टिमद्भिः (1.88.1) शक्तिरूपाण्यायुधानि स्थूणाः इत्यन्यैः armed with lances;
ऋष्टिविद्युतः (1.168.5) मेघभेदनायुधेविशेषेण विद्योतमानाः, armed with lightning-spears; ऋष्टिविद्युतः (5.52.13) आयूधैर्विद्योतमानाः, with lightnings for their spears
सायण की समझ में नहीं आता कि इसका रूप क्या था। ग्रिफिथ, मोनियर विलियम्स, आप्टे बर्छी या दोधारी तलवार मानते हैं। यहां पुनः रीतिनिर्वाह पर ध्यान दें रुद्र का बाण और शिव का त्रिशूल जब कि हनुमान का आयुध गदा है जिसे ऋग्वेद में वज्र (वज्रेण शतपर्वणा), द्रुण ( अर्थात् काष्ठनिर्मित मुग्दर)। के रूप में पहचाना जा सकता है।

यह अंतर वैदिक काल के बाद में इसलिए आया लगता है कि वजन में भारी और घुमाने में दुष्कर होने के कारण केवल असाधारण शक्ति के योद्धा ही इसका उपयोग कर सकते थे। अतः यह असाधारण पराक्रम का प्रतीक बन गया। बाद के विष्णु, परशुराम, भीम, सुयोधन, युधिष्ठिर सभी गदाधारी हैं। द्रोणाचार्य का तो शाब्दिक अर्थ ही है द्रोण या गदा का आचार्य।

यह झक कुछ सौ वर्षों की अल्प अवधि में ही रही अन्यथा युद्ध और शिकार के लिए पहले भी और बाद में भी धनुष-बाण, भाला-बरछा और तलवार ही रहा है। फरसा/ गड़ासा तक नहीं, मुग्दर, वाशी और परशु तोड़ने गढ़ने और काटने के औजार के रूप में पाषाण काल से ही काम ही आते रहे हैं।

यह धारणा कि हनुमान इन्द्र से भी प्राचीन चरित्र हैे सभी कसौटियों पर गलत सिद्ध होती है। वह कपि जो इन्द्र, पूषा और विष्णु से भी प्राचीन है, वृषाकपि है जो उस सामाजिक अवस्था का द्योतक है जब समाज सभी प्रकार के प्रतिबंधों से मुक्त था, परवर्ती काल की मर्यादाएँ आरंभ नहीं हुई थीं।

ऋग्वेद का 10 वें मंडल के सूक्त 86 में जिसमें ही वृषा कपि का उल्लेख है, अनेक बातें सामाजिक वर्जनाओं के दबाव के कारण, शब्दार्थ का पता चलने पर भी हमारी समझ में नहीं आती । इसकी कुछ ऋचाएँ इतनी अश्लील है कि ग्रिफिथ इनका अनुवाद करने का साहस नहीं जुटा सके ‘I pass over stanza 16 and 17 which I can not translate into decent English.

परंतु इसमें कुछ सूचनाएँ ऐसी हैं जो हमारे काम की हैं। 1. इसके रचनाकाल में ऐसे लोगों की संख्या पर्याप्त थी जो इंद्र के अपना आराध्य और उपास्य नहीं मानते थे (नेन्द्रं देवममंसत) । 2. उनके बीच वृषाकपि की पूरी आवभगत की गई है (यत्र अमदत् वृषाकपिः अर्यः पुष्टेषु मत्सखा), और यहां, हमने देखा, इंद्राणी उसे अपना सखा कह कर संबोधित करती है। 3. वह उसे अपनी सभी प्रिय वस्तुओं को नष्ट करने का आरोप लगाती है (प्रिया तष्टानि मे कपिर्व्यक्ता व्यदूदुषत्)। 4. इंद्राणी को मां का कर भी संबोधित करता है और अश्लील संकेत भी करता है (उवे अम्ब सुलाभिके यथेवांग भविष्यति ।
भसन्मे अम्ब सक्थि मे शिरो मे वी इव हृष्यति)। 5. जहां मरुद्गण गाय को और धरती को अपनी मां समझते हैं, वृषाकपि उनके भक्षण की बात करता है (उक्ष्णोहि मे पञ्चदश साकं पचन्ति विंशतिम् । उताहमद्मि पीव इदुभा कुक्षी पृणन्ति मे)। यहाँ यह स्पष्ट कर दें कि ऊक्षण उन बछड़ों को कहा जाता था जिनका समय से बधियाकरण नहीं हो सका था और जो साँड़ बनने के ऊपयुक्त नहीं होते थे अतः इनके और वशा या बन्ध्या गाय के विषय में वह वर्जना न थी जो शेष गोधन के विषय में रही लगती है।

इसमें संदेह नहीं रह जाता कि यह हनुमान से भिन्न, बहुत प्राचीन अवस्था का वर्षा का देवता है और इंद्राणी उर्वरा भूमि का मानवीकरण है। परंतु यह कृषि से पहले का देवता है। वर्षा का देव धरती को सींचने के कर्म के कारण उसमें रेतःसेक करता हुआ दिखाया जाता है। अश्लील संकेतों के पीछे का यथार्थ यही है।

यह फर्क न कर पाने के कारण, रामायण की ऐसी कथाएँ भी हैं, जिनमें लंका में सीता से हनुमान के संवाद में कुछ अश्लीलता बरती गई है।

संक्षेप में कहें तो वृषाकपि उसी इंद्र विरोधी, यज्ञ विरोधी, कृषिविरोधी, मुक्त कामाचार वाले समाज का प्रतिनिधित्व करता है, जिसका उत्तराधिकार सिद्धों, नाथों और हठयोगियों को मिला, और जिनका प्रभाव कबीरदास जैसे संत पर भी पड़ा।

हनुमान इंद्र के सहायक मरुद्गणों के उत्तराधिकारी हैं और उनकी भूमिका के लिए ही वह सबसे अधिक विख्यात हैं (आरुजन् पर्वताग्राणि हुताशन समो/निलः। बलवान् अप्रमेयश्च वायुः आकाशगोचरा । रामा. 4.67.9), मरुद्गणों की ख्याति इसलिए है कि वह पर्वतों (बादलों) को छिन्न भिन्न कर देते हैं और समुद्रों के पार कर जाते है -य ईंखयन्ति पर्वतान् तिरः समुद्रमर्णवम् । ऋ.1.19.7

हनुमान सीधे पहाड़ को ही उखाड़ लेते हैं और उसको लिए दिए उड़ जलते हैं। मरुदगण समुद्र की बाधा को कुछ नहीं समझते हैं, सागर पार करने का काम हनुमान भी करते हैं । मरुद्गण आभूषणों के शौकीन है, देवताओं में अकेले हनुमान हैं जो सभी तरह के आभूषण पहने दिखाई देते हैं। मरुदगण का एक शौक मधुपान का भी है। यह कमजोरी अकेले हनुमान की नहीं सभी उनके दल के सभी वानरों की है (अव्यग्रमनसो यूयं मधु सेवत वानराः, रामा. 5.62.1; पपुः सर्वे मधु तदा रसवत् फलमाददुः, रामा. 5.62.7) ।
मरुद्गण जहां भी रहें पूरी प्रकृति नाचती और गाती प्रतीत होती है, इसलिए वे नाच गाने के शौकीन न होते तो ही विस्मय होता। हनुमान उनसे कुछ बढ़कर हैं, (त्वयि एव हनुमन् अस्ति बलं, बुद्धि पराक्रमः। देशकालानुवृत्तिश्च नयश्च नय पंडित। 4.44.7)।