Post – 2019-08-26

#रामकथा_की_परंपरा (3)

हम पहले किसी अन्य प्रसंग में अरा के लांगल में बदलने की यात्रा के माध्यम से उस लंबे अंतराल का संकेत करने के बाद ऋग्वेद में रामायण के चरित्रों और अंतर्वस्तु पर विचार करेंगे। जिस अरे से जमीन में रेखा खींच कर उसमें बीज डालकर खेती आरंभ हुई थी, उसे पत्थर की उसी वाशी से तैयार किया गया था जिसे पूषा का आयुध बताया गया है। इस अरा की एक कमी यह थी कि यह आसानी से टूट जाता था मोटा रहने पर लकीर गहरी नहीं की जा सकती थी। इसलिए इस अंतराल में कई तरह के सुधार और बदलाव किए गए। इनमें से एक था लकड़ी की जगह सींग का प्रयोग करना। इसके बाद एक प्रयोग सींग के खोंखले सिरे में नुकीला पत्थर फँसाकर लकीर बनाना। फिर लकड़ी का धारदार तलवार नुमा यंत्र बनाया गया जो पतला और नुकीला होने के कारण गहराई में उतर सकता था और अपनी चौड़ाई के कारण पतले डंडे की तुलना में अधिक मजबूत था। इसे ‘स्फ्य’ की संज्ञा मिली। इसका शाब्दिक अर्थ समझने में हमें कठिनाई होती है। यदि ‘स्फ’ वही मबल हो जिसे हम स्फटिक और फा. सफ/सफाई मे पाते हैे तो इसकी उपयोगिता गहराई मे घास पतवार की जड़ें साफ करने में रही हो सकती है। संभवतः इसी चरण पर यह सूझ पैदा हुई कि यदि लकीर या अराई खींचने में दो लोग साथ काम करें तो काम अधिक, पहले से अधिक अच्छा और अधिक आसानी से होगा।

यह सूझ रस्सी बटने की कला के विकास के कुछ समय बाद ही संभव थी। कौशल और ज्ञान-विज्ञान के किसी क्षेत्र का विकास दूसरे क्षेत्र की समस्याओं के समाधान में प्रेरक और मार्गदर्शक दोनों की भूमिका निभाता है। फिर उन्हें यह सूझा कि सीधे नीचे दबाने की जगह नोक को कुछ तिरछा रखा जाय तो अधिक सुभीता हो। इसी का परिणाम था, वृक (यवं वृकेण अश्विना वपन्ता’)। संभव है यह वैसा ही यंत्र रहा हो जिसका नमूना हड़प्पा के खिलौनों के अवशेषों में मिला है। इसके पक्ष और विरोध में ऐसी दलीलें दी जा सकती हैं जिनसे मदद मिलने की जगह उलझन और बढ़ जाए। कर्मकांड की तरह बच्चों के खिलौनों में भी बहुत पुरानी चीजें बची रहती हैं। ऋग्वेद के समय तक उस हल (लांगल) का आविष्कार हो चुका था, उसके बाद आगे कोई सुधार भारतीय मेधा के द्वारा नहीं हुआ। यह ठहराव सभी क्षेत्रों में देखने में आता है। इसीलिए मैं मानता हूँ कि ऋग्वेद भारतीय सर्जनात्मकता का शिखर है और इसे समझे बिना न हम बाद के इतिहास को समझ सकते हैं न बाद की बौद्धिक व भौतिक उपलब्धियों को।

ऋग्वेद का रामायण इन्द्रायण है। ऋग्वेद के लंबे रचना काल से पहले ही इन्द्र के अग्रज पूषा अनुज या अनुचर की भूमिका में आ चुके हैं। उपेन्द्र का प्रयोग ऋग्वेद में नहीं हुआ है, परन्तु विष्णु को उसी दौर में पदावनत किया जा सकता था जब यज्ञ कृत्रिम वर्षा कराने की युक्ति के रूप में काम में लाया जा रहा था। तर्क यह कि यदि यज्ञ विष्णु हैं और अब उनकी मुख्य भूमिका इन्द्र और वायु (वायु आ याहि वीतये) आदि को तुष्ट करने, उन तक जाने और लेकर आने आदि की ही है तो विष्णु इन्द्र से छोटे तो हुए ही। इन्द्र सर्वोपरि हैं (विश्वस्मात् इन्द्र उत्तरः)। यह बात अलग है कि कृषि की तुलना में व्यापारिक गतिविधियों का आकर्षण बढ़ जाने के कारण, वह महाधन बनते हैं। कृषिकर्मी से वणिक बनते हैं, सार्थवाह के नेता बनते हैं (इन्द्रं अहं वणिजं चोदयामि स नो एतु पुर एता नो अस्तु), और विदेशी अड्डों प्राकारवेष्ठित स्वर्गों (काइजिल कुम, डैश्ली, सपल्ली, वसुकनि आदि) में मौजमस्ती करते हुए, इस अंदेशे से चिन्तित रहते हैं कि कहीं कोई दूसरा उनके स्वर्ग पर अधिकार न कर ले।

इन स्वर्गों पर भी असुरों का प्रहार होता रहता है और संकट बढ़ जाने पर भारतीय राजाओं और पराक्रमी लोगों से सहायता के लिए गुहार लगाते हैं और सहायता के लिए जाने वाले राजा पुरस्कार से मालामाल हो कर लौटते हैं। ऐसे राजाओं में ही दो नाम हमारे लिए खास महत्व के हैं। एक रघु, जिनके कुल में राम जन्म लेते हैं और दूसरे दुष्यन्त जो स्वर्ग से वापस लौटते समय मैनाक गिरि को पार करते हैं और वहाँ मेनका के पुत्र को शेर से खेलते देखकर उस पर मुग्ध हो जाते हैं, और अंत में पता चलता है कि उन्हीं का पुत्र है। इसी पुत्र भरत के नाम पर कहते हैं इस देश का नाम भारत पड़ा था। भरत नाम के भाई भी राम कथा में स्थान पा जाते हैं।

कुबेर के खजाने का पता न हो तो खैबर के पार खोकचा (कोकनद) से सटे बदख्शाँ की संगमर्मरी चट्टानों के भीतर तान हजार साल पुरानी सुरंगों का पता करें जिनसे लाजवर्द की मणियाँ निकाली जाती थीं।

व्यापारिक गतिविधियों में संलग्नता के बाद भी, कृषि उत्पाद पर उनका परोक्ष अधिकार बना रहता है (परोक्षा, परोक्षप्रिय हि देवाः)। पशु व्यापार तो वाणिज्य में भी शामिल था। इस तरह वैश्य के कार्यभार में कृषि, वाणिज्य और गोरक्षा तीनों शामिल हो जाते हैं।

इन विविध गतिविधियों के कारण इंद्र के युद्ध के चार रूप हो जाते हैं- एक वर्षा के लिए, जल चुराकर भागने वाले बादलों के विरुद्ध, दूसरा, लुटेरों और सार्थवाहों को बाधा पहुंचाने वाले जनों के विरुद्ध, तीसरा खनिज भंडार का कोई उपयोग न करते हुए हुए भी, उसका खनन करने का विरोध करने वाले स्थानीय कबीलों के विरुद्ध, और चौथा विदेशी अड्डों पर उनके कार्य- व्यापार में बाधा पहुंचाने वाले अंचलों के उपद्रवकारियों के विरुद्ध।

इन युद्धों के वर्णन में इस तरह का स्पष्ट भेद नहीं किया जाता इसलिए वृत्र का प्रयोग बादलों के लिए भी होता है, रहजनों के लिए भी होता है, घेरने या अवरोध पैदा करने वाली किसी अन्य परिघटना के लिए भी और व्यंजना में ऐसी वस्तु के लिए जो जल या रस से भरा हुआ है। इस तरह सोम भी वृत्र है (वृत्रो वै सोम आसीत्, श. 3.4.3.13) , चंद्रमा (अथ एत एव वृत्र यच्चन्द्रमा, श. 1.6.4.13) भी वृत्र है।

व्यापार की गतिविधियों के कारण इंद्र की भूमिका तो बदलती ही है, साथ ही वरुण, पूषा, अश्विनीकुमार सबकी भूमिका बदलती है। वरुण समुद्र नौचालन में कप्तान हो जाते हैं, जलोदर रोग उनके प्रकोप से ही होता है। वह हवा (trade wind) का रुख पहचानते हैं (वेद वातस्य वर्तनिं), अंतरिक्ष में दिशाबोध के लिए छोडे़ जाने वाले पक्षियों (कबूतर और कौआ) की उड़ान को जानते हैे (वेद यो वीनां पदं अंतरिक्षेण पतताम् ), हल में जुतने वाले अश्विनीकुमार भोर होते ही, माल से भरा हुआ रथ लेकर चलने लगते हैे या समुद्री जहाज चलाने लगते हैं उनका मानवीकरण और अतिमानवीकारण हो जाता है, जानवर से मनुष्य ही नहीं मनुष्यों में सबसे प्रबुद्ध, देवताओं के चिकित्सक बन जाते हैं।

वर्षा के पुराने देव, रूद्र की महिमा को आंच नहीं आती, परंतु उनके पुत्र मरुद्गण इन्द्र के सहायक बन जाते हैं (इन्द्र ज्येष्ठा मरुद्गणा देवासः पूषरातयः)। ये स्वयं भी इंद्र की सहायता से वृत्रों का विनाश करते हैं (हत वृत्रं सुदानव इन्द्रेण सहसा युजा)।