Post – 2019-08-24

#रामकथा_की_परंपरा(2)

श्रुति शब्द से ही यह ध्वनित है कि ऋग्वेद का रचना काल उसमें वर्णित अनेक कथाओं के घटना काल से बहुत बाद का है। कुछ मामलों में यह अंतराल 5-6 हजार साल का है। इतिहास के प्रति इतना गहरा लगाव कि कहते -सुनते इतने लंबे समय तक महत्वपूर्ण उपलब्धियों को सुरक्षित रखा गया, इसका प्रमाण मिलने के बाद भी विश्वास करना कठिन होता है, और इसी समाज को सिरफिरे इतिहास विमुख सिद्ध करते रहे। इस स्मृति में रीतिनिर्वाह और भाषा की बहुत बड़ी भूमिका थी।

भाषा के कुछ बहुत रोचक नमूने मुझे उस क्षेत्र के स्थान नामों में मिले जिसे भारोपीय भाषा का आदिम क्षेत्र मानता हूँ । अपने एक लेख में हम यह स्पष्ट कर आए हैं कि नून, तिल/तेल, पय, घी/ घृत, बिस/विष, मूत, लार/लाल/ लाला, पुरीष सभी का पुराना अर्थ पानी था। आज इनका पुराना अर्थ विस्मृत है, ये उन विशेष पदार्थों के लिए रूढ़ हो चुके हैं। परंतु पूर्वी उत्तर प्रदेश के तटीय स्थान नामों में इनमें से अधिकांश का प्रयोग आज तक बचा हुआ है, नून (नूनखार), तिल(तिलसर)/तेल(तेलगगरा), पय(पैना), घी(घेवरपार)/ घृत, बिस(बिसौली/ बिस्टौली)/विष, मूत, लार(लार, लाररोड)/लाल(लालकुआँ)/ लाला, पुरीष(पुरिसौली) जिससे पता चलता है बहुत मामूली बस्तियां भी कितने हजार साल पहले अस्तित्व में आ चुकी थी।

यही हाल वैदिक नाम विशेषण और उपकरणों के साथ देखने में आता है। हमने कहा पूषा कृषि के बहुत पुराने देवता हैं। उनके दो हथियार हैं। एक है वाशी जो पहले पैनी धार वाला पत्थर (अश्मन्मयी वाशी) होता था। यह बाद में धातु का बनने लगा (हिरण्मयी वाशी) तो इसकी शक्ल बदल कर हस्तकुठार या बसूले जैसी हो गई। [हिरण्य = आहृत, extracted (from ore) अर्थात् कोई धातु, जब कि यह सोने के लिए रूढ़ हो चुका है] लकड़ी, बाँस आदि काटने चीरने का औजार यही था। इसके सही उपयोग के संबंध में पुरातत्वविदों में काफी गलत धारणा है जो उनके द्वारा इसके नामकरण -स्क्रैपर – से पता चलता है।

हलाई=हल से पड़ी लकीर का पुराना नाम अराई मान सकते हैं, क्योंकि आरंभ में जमीन में लकीर लकड़ी के नुकीले डंडे (पैने) से खींची जाती थी। इसका मूल ची/सी है। इससे ही चीर, चीरनी, सी, सीर-हल (सीरं युंजंति), सी-मंत आदि की व्युत्पत्ति है। इस अराई या हराई का सीता नामकरण इसी कारण पड़ा। अरा/आरा- से ही आर्य – अरा/आरा चलाने वाला, ‘खेती करने वाला’, निकला है। आर्य श्रेष्ठता का द्योतक इसलिए बन गया क्योंकि खेती को श्रेष्ठतम कर्म माना जाता था – यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म । उत्तम खेती मध्यम बान। अनाज का अभाव हो जाए तो आपको भी विश्वास हो जाएगा की खेती श्रेष्ठतम कर्म है।

आर्य और अर्य पूज्य हो गए इसका लकीर खींचने की ध्वनि जिसके कारण अर को अपनी संज्ञा मिली, से कोई संबंध नहीं है, परंतु, अरि, अरा (पहिए का), आरा (लकड़ी चीरने का यंत्र). आला (मुँह में डाता जाने वाला ) थर्मामीटर, आंड़-डंक से हो सकता है। अर/आर की ध्वनि जल के प्रवाह से भी उत्पन्न होती है, इसलिए अर-जल, अर्ण, अर्घ, अर्घ्य, आर्द्र आदि उसी से निकले हैं और अर्य/आर्य शब्द के साथ पूज्य का भाव उससे निकला है। जल की गति के कारण आर्य चलने वाला (अर-गतौ) का इसी स्रोत से संबंध है। परंतु इन सब का विवेक न होने के कारण सभी का घालमेल आर्य शब्द में हो गया।

ऋग्वेद में पूषा से हमारा सामना उस चरण पर होता है जब लांगल या उस यंत्र का विकास हो चुका है जिसमें हरीस, जुआठ, बरही, पुठ, और फाल का प्रयोग हो रहा है और इस तरह एक संयंत्र (combine) अस्तित्व में आ चुका है। इसके परिणाम स्वरूप पूषा भी एक बार हल चलाते हैं या चलाते दिखाई देते हैं यद्यपि यह किसी ऐसे चरण का यंत्र है जिसके लिए छह बैलों की जरूरत होती थी । एक का रूप क्या था इसका सही अनुमान नहीं हो पाता : उतो स मह्यमिन्दुभिः षड् युक्ताँ अनुसेषिधत् । गोभिर्यवं न चर्कृषत् ।। 1.23.15

हम कल्पना करते रह जाते हैं कि इसके पीछे कारण क्या रहा हो सकता है। क्या यह उस चरण की याद है, जब बधियाकरण से साँड़़ को बैल नहीं बनाया जा सका था, और किसी युक्ति से बछिया और बछड़े को ही जोत दिया जाता था? हम इस ऊहापोह मे न पड़ कर इतना ही कहना चाहेंगे कि सीता का जन्म अर/ अरा/ आरा या hoe, (पैना, जिसका बाद में अष्ट्रा या पशु साधनी के रूप में होने लगा) ‘या ते अष्ट्रा गोओपशा ऽऽघृणे पशुसाधनी’ के लिए प्रयोग में आने लगा। जो भी हो, इस अष्ट्रा का प्रयोग करने वाले भी पूषा ही हैं।

पूषा रक्षा के देवता के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके हैं। वही संकटाकीर्ण यात्राओं में, रक्षा का भार संभालते हैं, भटके हुए लोगों को रास्ता दिखाते हैं, खोए हुए पशुओं को तलाशने में मदद करते हैं, परंतु इससे भी अधिक यह कि ये पोषण के देवता है। इसी से निर्धारित होती है विष्णु की रक्षक और पालक की भूमिका। त्रिदेवों में वही हैं जिनकी भूमिका पालन और रक्षण की है।

परंतु इस चरण पर भी वह जिस यंत्र से काम लेते हैं वह है आरा। इस पहले ही चरण से उनसे निवेदन किया गया है कि तुम जैसे आरा से भूमि को चीर कर उस की कठोरता को कम करते हुए मुलायम बना देते हो, उसी तरह पणियों के बंजर हृदय को चीर कर उसे मुलायम बनाओ: आ रिख किकिरा कृणु पणीनां हृदया कवे । अथ ईं अस्मभ्यं रन्धय । यां पूषन् ब्रह्मचोदनीं आरां बिभर्ष्याघृणे। तया समस्य हृदयमा रिख किकिरा कृणु ।। 6.53.7-8

जमीन को चीरने वाली आरा से इस आरा की भूमिका बदल चुकी है, यह ब्रह्मचोदनी है, हृदय बदलने के लिए प्रेमपाती या ‘विनयपत्रिका’ लिखने के लिए अनुरोध किया जा रहा है। यहां दो बातें स्पष्ट हैं। एक यह कि केवल लांगल का विकास नहीं हो चुका है, लेखन कला का विकास हो चुका है। दूसरा यह कि वेदिक आर्य अपनी सत्ता बाहुबल से नहीं बुद्धि बल और आर्थिक प्रगति से की थी।

अब हम पूषा के माध्यम से कृषि कथा के ऋग्वेद तक की विकास की यात्रा को संक्षेप में रखना चाहेंगे। सीता के आविष्कारक, जनक या पति पूषा है। ऋग्वेद तक आते-आते भूमिका बदल जाती है। कारण, इस बीच उत्पादन करने वाला (कीनाश) कोई दूसरा है। उत्पाद पर अधिकार करने वाला क्षेत्रपति पैदा हो चुका है। असली स्वामी वह है। इसलिए सीता का पाणिग्रहण वह करता है, पहले का उत्पादक और सीता का स्वामी उसके पीछे चलता है, उत्पादन से अधिक जोर अधिक से अधिक क्षेत्र पर अपना अधिकार जमाने पर है:
क्षेत्रस्य पतिना वयं हितेनेव जयामसि । गामश्वं पोषयित्न्वा स नो मृळातीदृशे ।
क्षेत्रस्य पते मधुमन्तमूर्मिं धेनुरिव पयः अस्मासु धुक्ष्व । मधुश्चुतं घृतमिव सुषूतमृतस्य नः पतयो मृळयन्तु । शुनं वाहा शुनं नरः शुनं कृषतु लांगलम् ।शुनं वरत्रा वघ्यन्तां शुनमष्ट्रामुदिङ्गय ।… इन्द्रः सीतां नि गृह्णातु तां पूषानु यच्छतु । सा नः पयस्वती दुहामुत्तरामुत्तरां समाम् । शुनं नः फाला वि कृषन्तु भूमिं शुनं कीनाशा अभि यन्तु वाहैः । शुनं पर्जन्यः मधुना पयोभिः शुनासीरा शुनमस्मासु धत्तम् ।4.57.1,2,4, 6-8

भू स्वामित्व कृषिकार्य से विरत लोगों के हाथ में चला गया है। अब उत्पादक भूस्वामी के सहयोगी बन जाते हैं, इंद्र सीता के पति बनते हैं तो पूषा उनके अनुगामी बन जाते हैं और यहां से एक नया चरित्र पैदा होता है जो पहले कृषिलक्ष्मी का स्वामी था, अब वह सीता के पति का अनुचर, लक्ष्मण बन जाता है और राम कथा में एक नए चरित्र की उद्भावना होती है। परंतु आगे चलकर पूषा के पोषक पक्ष को अलग करके भरत का चरित्र का आना कम रोचक नहीं है ।
मैं जो लिख रहा हूं वह सही नहीं है। हमारे दुर्भाग्य से वह गलत भी नहीं है। इसलिए जिसे यथालिखित को पढ़कर हम सही मानते आए थे, उस पर भी पुनर्विचार करने की जरूरत है कि वह सही है या नहीं।