#कबीर# की समझ
ऋग्वेद में कूटविधान के रूप (1)
ऋग्वेद में कूटविधान की आवश्यकता क्यों पड़ी?
एक कारण तो यह था कि कविता में यदि वही भाषा प्रयोग में लाई जाए जिसका व्यवहार हम सामान्य जीवन में करते हैं तो वह कविता कैसे हुई? उसमें किसकी रुचि होगी। यदि कहानी मैं उन्हीं लोगों का जीवन और अनुभव प्रस्तुत किया जाए तो फिर वह कहानी कैसे हुई ? इसके लिए उन्होंने भाषा को विलक्षण बनाने का प्रयत्न किया, और चरित्रों को विचित्र. साधारण से अलग कल्पित किया। काव्य का वर्ण्यविषय भी असाधारण रखा।
भाषा को विलक्षण बनाने के लिए अन्य अलंकारों के साथ(1) अतिरंजना, (2) प्रतीप, अर्थात् कार्य-कारण के संबंधों को उलट कर दिखाने और (3) समाज वर्जित को सामान्य व्यवहार की तरह पेश करने, (4) प्रकृति का मानवीकरण और पाशवीकरण करते हुए अभेदरूपक और रूपकथाएं रचने के साथ वैचित्र्य या असंभव को संभव दिखाने की युक्तियां विशेष रूप से काम में लाई गईं।
ऋग्वेद की ऋचाओं के रचनाकार कौन थे, यह तय नहीं किया जा सकता। जैसे रामायण या महाभारत के विभिन्न चरित्र जो कुछ कहते हैं वह वे नहीं वाल्मीकि या व्यास उस पात्र से कहलवाते हैं, पर इन दोनों महाकाव्यों में इतना जोड़ा और भरा गया है कि यह भी निश्चय के साथ नहीं कह सकते कि जिसका श्रेय हम वाल्मीकि या व्यास को दे रहे हैं वह सचमुच उन्हीं की सूझ है उसी तरह हमें यह पता नहीं कि किसी सूक्त का रचनाकार कौन है। सामान्य धारणा यह है कि सूक्तों में जिसे ऋषि बताया गया है वही उसका रचनाकार है, परन्तु यह सही नहीं है। इसके तीन प्रमाण हैं:
अनेक सूक्तों में अनेक ऋषि हैं।
अनेक के अमानवीय – परमेष्ठी, इन्द्र, मछलियां – जैसे ऋषि हैं।
शौनक ने बृहद्देवता में संवादसूक्तों के विषय में स्पष्ट कहा है कि संवाद जिसके मुँह से कहलवाया गया हे वह उसका ऋषि है।
इसी तरह देवता का अर्थ है वर्ण्यविषय। इसलिए ऊपर की तीनों शर्तें देवता पर भी लागू होती हैं। इसलिए हम कह सकते हैं कि जिन ऋषियों को पात्र बनाया गया है वे पुराने जमाने के वे महापुरुष हो सकते हैं जिनको ऋग्वेद में – नमो ऋषिभ्यः पूर्वेभ्यः पथिकृद्भ्यः – कह कर याद किया जाता है।
वर्ण्यविषय कितने रूपों और भूमिकाओं में आ सकता है इसका कोई ठिकाना नहीं। अग्नि विष्णु हैं, वामन हैं, पक्षी हैं. सिंह हैं, समस्त देव वही हैं, मनुष्य की कोई ऐसी भूमिका नहीं जिससे वह न जुड़े हों – कवि, विप्र, यज्ञ भी, यज्ञ के संपादक – पुरोहित, ऋत्विज, होता, पोता, ब्रह्मा, मंत्र, ब्राह्मण, दूत, राजदूत, हरकारा, वाहन। इन से जो चमत्कार पैदा होता है उसका अनुमान किया जा सकता है। अग्नि पर इतनी ऋचाएं और ऐसी विलक्षण उदभावनाएँ. अपने आप में विस्मयकारी है। हमारे लिए अच्छी बात यह कि इनके साथ अग्नि शब्द का प्रयोग हुआ इसलिए भटकाव कम हो जाता है अन्यथा ऋग्वेद हड़प्पालिपि से भी अधिक दरूह सिद्ध होता।
पहले ही सूक्त को लें इसमे अग्नि को पुरोहित, यज्ञ का देव, ऋत्विज, होता, रत्नदाता, प्राचीन कवियों और नवीन दोनों ही ऋर्षिभियों द्वारा पूज्य, देवों को ढोकर लाने वाला, यशस्वी, सबसे बड़ा वीर, यज्ञ को समग्रतः घेरने वाला, देवों के पास जाने वाला, देवों के साथ आनेवाला, होता, कविक्रतु, सत्य, विविध कीर्तियों से युक्त, अंगिरा, अध्वरों (जिनको कोई हिंसित न कर सके) में देदीप्यमान, अमृत का धाम, जगमग करते रहने वाले, अपने घर में वर्धमान, पुत्र के लिए पिता की तरह सदा उपलब्ध। पहली नजर में ये सारी उपमाएं बेतुकी लगती हैं पर दुबारा सोचने पर पुरोहित= सम्मुख रखा हुआ, देव= देने वाला, चमकने वाला, जलाने वाला; ऋत्विज- नियत काल पर यज्ञ करने वाला, रत्नधा= मनके (खास कर के टिक्कल मनके (microbeads). ढोलकाकार मनके, (drum-beads), अंतःखचित मनके (intercarved beads), तो ताप के सहारे बनाए ही जाते थे मणियों को मणिक्य बनाने के लिए, इच्छित आकार देने, उनमें छेद बनाने के लिए उनको गर्म करना होता था। इसी तरह अन्य प्रयोगों को भी समझा जा सकता है जिनके लोभ में पड़ गए तो दूसरे पक्ष छूट जाएंगे।
कभी कभी वैदिक कवि अपने प्रतीक विधान को अधिक खींच लेते हैंः
वृक्षेवृक्षे नि यता मीमयद्गौस्ततो वयः प्र पतान् पूरुषादः ।
(वृक्ष वृक्ष पर गायें बँधी है, वे मिमिया रही हैं, और उस वृक्ष से मनुष्यभक्षी पक्षी उड़ रहे हैं।)
इसमें साहचर्य संबंध को उस की पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया गया है, वृक्ष= वानस्पतिक उत्पाद या उससे से निर्मित अर्थात कोदंड, गो= पशुप्रजात ताँत या प्रत्यंचा, निमियाना = प्रत्यंचा का स्पंदन,पूरुषाद वय= धनुष सेे प्राणलेवा उड़ने वाले (तीर)। पसीने छूट जाते हैं इनका अर्थ करते हुए, मुहावरा चरितार्थ होता है खोदा पहाड़ निकली चुहिया।
चौंकाने का एक तरीका है वर्जना या सामाजिक टैबू जिसका उल्लंघन करने पर मनुष्य को प्राणों से हाथ धोना पड़ सकता था, उनको हास्यकर या वास्तविक की तरह पेश करना।
नाथ पंथियों का गो मांस खाना, और वारुणी पीना अपने समय की वर्जनाओं को भले प्रकट करें, ऋग्वेद के समय में ये वर्जित नहीं थे। ऋग्वेद के काल की वर्जनाएँ उस कोटि में आती हैं जिसे वर्जित संबंध incest कहा जाता है। इसके कारण, बहन का यार (स्वसुः जार), बाप का बाप (पितुः पिता असत्), मैंने अपने बाप को पैदा किया (अहं सुवे पितरं), जैसे प्रयोग देखने में आते हैं। व्याख्या में पता चलता है एक ही रात से उषा और सूर्य जो अग्नि के रूप, दोनों पैदा होते हैं, अतः सगे भाई बहनहैं। सूर्य उषा का जार. उसे जला देता है।
बहन-भाई का संबंध वैदिक काल में सबसे पवित्र माना जाता था और इसलिए बहन को लेकर ऐसी उक्तियाँ हैं जिनसे बाद के कालों में बहन से संबंधित गालियां पैदा हुई हो सकती हैं।
ऋग्वेद में अपने भाई यम के पीछे पागल यमी पर एक पूरा सूक्त है। यम=दिन और यमी=रात अनंतकाल से एक दूसरे के पीछे भाग रहे हैं। वह एक ही महाकाल की संताने हैं, इसलिए परस्पर भाई बहन हैं, यमी प्रेम निवेदन करती दिन का पीछा कर रही है परंतु भाई बरजता रहता है, इसलिए संबंध स्थापित नहीं हो पाता। ऐसी ही एक उद्भावना मन और बुद्धि को लेकर है, जिसमें कहा जाता है की मनु ने अपनी दुहिता को ही बाहु पास में ले लिया, मनुर्ह वै दुहितरं अधिदध्यौ, इसी का दूसरा रूप ब्रह्मा के अपनी पुत्री सरस्वती अथवा वाणी पर आसक्त होने के रूप में रचा गया। दूसरे को लेकर तो कई अंतर्कथाएं रची गईं जिनका सबसे रोचक पक्ष है वैदिक मूल्यों और मर्यादाओं के निर्वाह का भार उस रूद्र द्वारा वहन किया जाना , जो वैदिक आचार के उल्लंघन के लिए विख्यात हैं। अब इसके दंड स्वरूप चतुरानन ब्रह्मा को पंचानन बनाकर उनके ऊपर के सिर को रूद्र द्वारा काट दिया जाता है।
सिद्धोंं और नाथ पंथियों की गौ मांस पर शब्दक्रीड़ा ऋग्वेद में विद्यमान है:
श्रोणामेक उदकं गामवाजति मांसमेकः पिंशति सूनया भृतम् ।
अश्व का मांस नहीं उसका महत्व:
ये चार्वतो मांसभिक्षामुपासत उतो तेषामभिगूर्तिर्न इन्वतु ।।
पहेलियों के लिए ऋग्वेद का पहले मंडल का 164 वां सूक्त सर्वाधिक विख्यात है। यह ऋग्वेद के सबसे बड़े सूक्तों में से एक है। इसमें एक बार वाणी के लिए सहस्राक्षरा का प्रयोग हुआ है। इसकी चर्चा हम कल करेंगे।