Post – 2019-07-10

रीतियां, रूढ़ियां और विश्वास (अन्तिम)

कामदेव की मारक शक्ति की पहचान
मोहम्मद साहब को मनुष्य की है सीमाओं और शक्तियों की बहुत अच्छी समझ थी। वह जानते थे की महान से महान योद्धा सुंदरियों के आगे घुटने टेक देता है। इसे वह अपनी मानवीय दुर्बलता के कारण जानते थे, या मानव स्वभाव की बहुत अच्छी समझ के आधार पर, यह तय करना कठिन है। उन्होंने स्वयं उस ढलती आयु में आत्म संयम खो दिया, जब महिलाएं अनासक्ति का शिकार हो जाती हैं परंतु इसके अतिरिक्त उनका यह आचरण उनकी युवावस्था के संयम को देखते हुए भी अविश्वसनीय प्रतीत होती है।

संभवतः यह भी एक कारण है जिससे मुस्लिम व्याख्याताओं ने उनकी कामान्धता को पर-दुख-कातरता के दुर्लभ नमूने के रूप में पेश किया है। मोहम्मद साहब ने जिस तरह अपने जीवन में सभी मर्यादाओं से मुक्त होकर स्वछंदता का रास्ता अपनाया और अपनी दुर्बलता के लिए अल्लाह को जिम्मेदार ठहराया, उसी तरह उन्होंने प्राणिमात्र की इस दुर्बलता को समझते हुए स्वर्ग की ऐसी कल्पना की जिसमें एक-एक बंदे के हिस्से में बहुभोग्या चिरकिशोरी हूरों का हरम हासिल हो, बल्कि इस जीवन में भी इतनी खुली छूट धार्मिक समर्थन के साथ दी जो आदिम अवस्था के पाशविक स्वैराचार की याद दिलाती है।

विवाह और विवाहेतर संबंध
अरब समाज में पहले विवाहेतर संबंध कुछ पारिवारिक दायरों के बाहर ही चलन में थे। सभी को सामाजिक मर्यादाओं का ध्यान रखना होता था। मोहम्मद भी इनका तब तक निर्वाह करते रहे जब तक उनकी निरंतर उग्र होती लालसा में कोई वर्जना बाधक नहीं बनी, क्योंकि उस दशा में अल्लाह का फरमान आ जाता जिसका उल्लंघन वह नहीं कर सकते थे, इसलिए दूसरों पर वह प्रतिबंध लागू रहता, केवल उन्हें उसकी छूट मिल जाती ; –
तुम्हारे लिए हराम है तुम्हारी माएँ (विमाताएं और दादियाँ) बेटियाँ (और पोतियाँ), बहनें (पिता से पैदा, पिता से विवाह से पहले उसी माँ से पैदा) फूफियाँ, मौसियाँ, भतीतियाँ, भाँजिया, और तुम्हारी वे माएँ जिन्होंने तुम्हें दूध पिलाया हो और दूध के रिश्ते से तुम्हारी बहनें और तुम्हारी सासें और तुम्हारी पत्नियों की बेटियाँ जिनसे तुम सम्भोग कर चुक हो (परन्तु यदि सम्भोग नहीं किया है तो इसमें तुम पर कोई गुनाह नहीं), और तुम्हारे उन बेटों की पत्नियाँ जो तुमसे पैदा हों और यह भी कि तुम दो बहनों (साथ ही उसकी भतीजी, बुआ और मौसी) से एक साथ निकाह कर सकते हो; जो पहले जो हो चुका सो हो चुका। निश्चय ही अल्लाह अत्यन्त क्षमाशील, दयावान है।[]

यह छूट तो सामान्य मुसलमानों के लिए थी। मोहम्मद साहब के लिए ये बंधन लागू नहीं होते थे, पैगंबर बनने के बाद वह सामान्य मनुष्य नहीं रह गए थे। इसलिए:
ऐ नबी हमने तुम्हारे वास्ते तुम्हारी उन बीवियों को हलाल कर दिया है जिनको तुम मेहर दे चुके हो और तुम्हारी उन लौंडियों को (भी) जो खु़दा ने तुमको (बग़ैर लड़े-भिड़े) माले ग़नीमत में अता की है और तुम्हारे चचा की बेटियाँ और तुम्हारी फूफियों की बेटियाँ और तुम्हारे मामू की बेटियाँ और तुम्हारी ख़ालाओं की बेटियाँ जो तुम्हारे साथ हिजरत करके आयी हैं (हलाल कर दी और हर ईमानवाली औरत (भी हलाल कर दी) अगर वह अपने को (बग़ैर मेहर) नबी को दे दें और नबी भी उससे निकाह करना चाहते हों मगर (ऐ रसूल) ये हुक्म सिर्फ तुम्हारे वास्ते ख़ास है और मोमिनीन के लिए नहीं और हमने जो कुछ (मेहर या क़ीमत) आम मोमिनीन पर उनकी बीवियों और उनकी लौंडियों के बारे में मुक़र्रर कर दिया है हम खू़ब जानते हैं और (तुम्हारी रिआयत इसलिए है) ताकि तुमको (बीवियों की तरफ से) कोई दिक़्क़त न हो और खु़दा तो बड़ा बख़्शने वाला मेहरबान है (33.50)

[] Muhammad Farooq Khan and Muhammad Ahmed के अनुवाद में कुछ अंश छूट गए थे, उन्हे हमने पूरा कर दिया है इसलिए अंग्रेजी अनुवाद : 4.23. Forbidden to you (O believing men) are your mothers (including stepmothers and grandmothers) and daughters (including granddaughters), your sisters (including full sisters and half-sisters), your aunts paternal and maternal, your brothers’ daughters, your sisters’ daughters, your mothers who have given suck to you, your milk-sisters (all those as closely related to you through milk as through descent), your wives’ mothers, your stepdaughters – who are your foster-children, born of your wives with whom you have consummated marriage; but if you have not consummated marriage with them, there will be no blame on you (should you marry their daughters) – and the spouses of your sons who are of your loins, and to take two sisters together in marriage (including a niece and her aunt, maternal or paternal) – except what has happened (of that sort) in the past. Surely God is All-Forgiving, All-Compassionate.

इस्लाम के साथ जन्नत बनी
इस्लामी पुराण शास्त्र के अनुसार नरक पहले से था, स्वर्ग की स्थापना इस्लाम कबूल करने वालों में अल्लाह और पैगंबर के कहने के अनुसार चलने वालों के लिए हुई। कहा जाता है कि खादिजा ने मोहम्मद से अपने उन दोनों बच्चों के भविष्य के बारे में पूछा जिनका मोहम्मद को इल्हाम होने से पहले इंतकाल हो गया था, तो पैगंबर ने कहा, वे नरक में हैं, क्योंकि वे इस्लाम से पहले पैदा हुए थे, और मुसलमान बनने से पहले मर गए थे।
[] On the authority of ‘Ali a Tradition is recorded stating that Khadija once asked about the present condition of her two children, who died before the days of Islam. The Prophet said they were in hell, but that her children born after Islam, that is, his children, would be in paradise. Mishkatu’l-Masabih (Madras ed., A.H.1274), p. 23. cited by Sell.

यही हाल मोहम्मद के माता, पिता, दादा और चाचा का भी था। इस्लाम की जन्नत कायनात में सबसे बाद में जुड़ने वाली बस्ती है जिसमें केवल मुसलमान ही प्रवेश कर सकते हैं।

रोजा
रमजान का महीना पहले भी पवित्र माना जाता था और इसमें कुछ लोगों व्रत भी रखते थे और आत्म शुद्धि के लिए साधना भी करते थे यह हम देख आए हैं। परंतु मुसलमानों के लिए इसे अनिवार्य बनाने का मदीना पहुंचने के डेढ़ साल बाद यहूदियों से तालमेल बैठाने के प्रयत्न में आरंभ किया गया और संबंध सुधारने के लिए केवल इतना ही जरूरी नहीं लगा अपितु नमाज काबे की ओर रुक कर के करने की जगह यरुशलम की तरफ करके की जाने लगी क्योंकि यहूदी हर दृष्टि से मदीना में अधिक प्रभावशाली और दूसरों से आगे बढ़े हुए थे।
The change of the Qibla and the appointment of the Ramadan fast were made in the second year at Madina, about seventeen or eighteen months after the Hijra.
fn. The change of the Qibla and the appointment of the Ramadan fast were made in the second year at Madina, about seventeen or eighteen months after the Hijra. Other changes were also made [See RabbiGeiger in Judaism and Islam (S.P.C.K., Madras), pp 157-9.]. The law laid down in Suratu’l-Baqara (ii) 230 is opposed to Deut, xxiv. 1-4. See H. D. Qur’an, pp. 122-3. Sell, p. 103.

चालीस की संख्या
चालीस की संख्या का इस्लाम में बहुत महत्त्व है, इसका धार्मिक और वैज्ञानिक विश्लेषण करने का भी प्रयत्न किया गया परंतु वास्तविक कारण यह है कि मोहम्मद साहब को 40 वर्ष की आयु में पैगंबरी प्राप्त हुई थी ।

नामकरण
मुसलमानों में नाम के कुछ प्रमुख स्रोत दिखाई देते हैं। एक है इब्रानी परंपरा- इब्राहिम (अब्राहम), इजराइल, याकूब, इद्रीस, इसहाक (आइजैक), दाऊद (डेविड), सुलेमान, हारू, यूसुफ (यीकूब का बेटा) फिरवान (फराऊन), सारा, आसिया, अज़ीज़आदि।

दूसरा है, वे मानवीय गुण जिनकी मुहम्मद ने मक्का के दौर में प्रशंसा की : रज्जाक – रोजी दोनेवाला (अल्लाह), रफीक- मित्र, सहायक, सादिक – सत्यनिष्ठ, सलीम- शांत, शांतिप्रिय,>सलमा>सलामत (हुसेन), सलमान, गफ्फार – क्षमाशील> गफ्फूर> गफरुल्लाह, रफीकुद्दीन। इसी तरह, रहीम, करीम आदि जो एक ओर तो ईश्वरीय गुणों से जुड़े हैं, दूसरी ओर मनुष्यों से जिनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे इन गुणों को अपनाते हुए आत्मोत्थान करेंगे। नाम के गुण के अनुसार यदि संतान बन पाती तो मेरी चारों ओर पूजा हो रही होती, प्रभाव नहीं होता इसलिए इससे इतना ही पता चलता है किसी समाज की आकांक्षाएं क्या है? परंतु यदि ऐसे ही शब्दों के साथ दीन ( गफूर उद्दीन), करीमुद्दीन लग जाए तो आशय बदल जाता है। सदाकत हुसैन हुसैन के प्रति सत्यनिष्ठ हो सकते हैं, दूसरों के साथ उनके व्यवहार का अनुमान नहीं किया जा सकता।

एक तीसरी परंपरा मुहम्मद साहब के जीवन और उसके दौरान घटित घटनाओं और पात्रों से संबंधित है जिसका विस्तार अपेक्षित नहीं है- उस्मान, जाफर, अब्बास, तालिब,आयशा, कुलसुम, फातिमा, जुवैदा, जैनब, अली, हाशिम, कुरैशी, आदि ।
यहां हम दो बातों ओर ध्यान दिलाना चाहते हैे। पहला है, इब्राहीमी और उसके बाद ईसाई प्रभाव अरब में इतना गहरा हो चुका कि लोग उससे जुड़ने में गर्व अनुभव करते थे, पृष्ठभूमि में भारतीय आकर्षण काम कर रहा था, जिसे अयूब, मरियम, हिंद जैसे नामों में देखा जा सकता ।
दूसरा अल्लाह के पर्यायों का नामकरण में वृद्धि और उसके साथ दासता, दीनता और समर्पण भाव प्रकट करने वाले विशेषण या संज्ञाओं की भरमार। इस्लाम के भारत में आगमन के बाद इस प्रभाव से हिंदुओं में भी देवों देवियों का नामकरण में प्रवेश और उनके साथ दास भाव का गौरवान्वित होना- कबीरदास, तुलसीदास, सूरदास, नाभादास, हरिदास, रविदास, रामदास, राम चरण, शिचरण, कालीचरण – आदि।