फितरत, हिंसा और क्रूरता का दौर
भूमिका
मोहम्मद के जीवन में आए इस निर्णायक मोड़ की चर्चा इससे पहले दो बातों को जिनका उल्लेख पीछे कर आए हैं दोबारा दोहराना चाहते हैं। पहला उनके ऐसा हो और बचपन से संबंधित है और दूसरा उस योजना से जिसके लिए मोहब्बत को सबसे उपयुक्त पाया। उनके पिता का देहांत जन्म से पहले ही हो गया। जन्म के बाद माता ने नहीं, मां की नजरों से दूर, एक बद्दू स्त्री इनाम की उम्मीद में दूध पिलाया। ऐसी स्त्री तंगहाल ही हो सकती थी। उसे दो बच्चों को पालना पड़ रहा था। आदर्श स्थिति में भी वह अपने बच्चे का दूध भले बांट दे, आश्रित समझकर पोषित बच्चे की देखभाल करे, परंतु मातृस्नेह नहीं बांट सकती थी, जिसका नियंत्रण उसके हाथ में नहीं, महामाया के हाथ में है।
पुरस्कार की आशा में उचित देखभाल के बावजूद सगे शिशु की तुलना में अपने को उपेक्षित अनुभव करने की उस शिशु की पीड़ा को हम समझ नहीं सकते। दो साल की उम्र के बाद जब पोषिका उसको सगी मां के पास लेकर आती है तो मां उसके स्वास्थ्य को देखते हुए मां को इतनी प्रसन्नता हुई कि उन्होंने आगे के पालन पोषण संतुष्ट होकर उसे इनाम इकराम देकर बच्चे को दुबारा उसी के हवाले कर देती है। एक भी विधवा जिसके भावनात्मक संतोष के लिए सबसे जरूरी उसकी संतान होती है, जिसे अभिजात्य की जरूरतों के अनुसार दूसरे का स्तनपान कराने बाध्यता थी, उस बाध्यता के पूरे होने के बाद भी वह उसे अपने साथ नहीं रखना चाहती। दो साल और गुजरने के बाद हलीमा बच्चे को लेकर फिर मक्का आती है। मां ने उसे फिर रेगिस्तानी जिंदगी के अनुभव के लिए उसके हवाले कर देती है। अपने स्वजनों के द्वारा ही ठुकराए जाने की पीड़ा के साथ यह बोध कि मुझे कोई नहीं चाहता, और फिर पाँच साल के बाद पालिका उसके व्यवहार में आई ऐसे परिवर्तनों से जिससे उसके जीवन में भी समस्या पैदा होने लगती है, उसे मां को यह कह कर लौटाती है क्यों उसने कुछ ऐसी विचित्र घटनाएं देखी है जिसके बाद वह इस बच्चे को अपने पास रख ही नहीं सकती। कोई चारा न रह जाने के बाद मां को उसे रखना पड़ता है, परंतु उसका स्नेह और संरक्षण भी उसे नहीं मिल पाता। कुछ यूं जैसे कोई प्यासा पानी का प्याला मुंह से लगाए कि घूंट मरने से पहले ही प्याला हाथ से छूटकर नीचे गिरे और टूट जाए। साल भर के भीतर ही मां भी चल बसी।
पारिवारिक दासी के हाथों दो साल तक दादा की देखरेख में पला कि दादा भी चल बसे। यह बोध कि मैं अवांछित हूं, मेरा कोई नहीं, मैं अपशकुन हूं, मुझे कोई नहीं चाहता, उस शिशु की मानसिकता को कितनी गहराई से प्रभावित करता है इसे कोई दूसरा नहीं जान सकता। पूरी दुनिया में मेरा सगा कोई नहीं, यह दुनिया मेरी नहीं है, एक ओर यह आंतरिक भटकाव और दूसरी ओर आजीवन किसी संरक्षक की तलाश। कस्तूरी कुंडल बसे मृग ढूंढे बन माहि। कवि सत्य है परंतु कई बार कविसत्यों के माध्यम से मानव मन की ग्रंथियां जिस तरह उस तरह कोई विश्लेषक उन्हें बयान कर सकता है। पिता के संरक्षण की तलाश मां की ममता की तलाश, जो है नहीं उसकी तलाश, वो मिले तो भी अतृप्ति बनी रहे, नेदं नेदं नान्यं विद्यते (यह नहीं, यह भी नहीं, पर और कुछ न है न संभव है) समझौता करो, जो है उससे अधिक कुछ सुलभ नहीं है। अनाथ होने और अनाथता के बोध की असंख्य अनुभूतियाँ हैं। कोई नहीं जानता कि कौन, किस को, कहां ले जाएगी।
मोहम्मद को संरक्षक दो मिले। अबू तालिब जिनमें वह अपने पिता की छवि ढूंढता पचीस साल तक बच्चे की तरह उनके साथ लगा रहा। अपनी तंगी में उन्हें कहना पड़ा अब बड़ा हो गया, कुछ काम कर और काम कहां मिलेगा यह भी बताया।
संरक्षिका उन्हीं की पत्नी बनकर मिली। कुछ लोगों को यह समझने में दिक्कत होगी कि मोहम्मद ने अनमेल विवाह क्यों किया, और कुछ इसका समाधान उस दौलत में तलाशेंगे जिसकी स्वामिनी खादिजा थीं। परंतु यह दुनिया मेरी नहीं है, इसमें कोई मेरा नहीं है, इस उदासीनता में भटकने वाले युवक की दिलचस्पी दौलत में नहीं हो सकती थी, मोहम्मद की भी कभी नहीं रही। यह खादिजा का निश्छल विश्वास और उसमें दिखाई देने वाली मां की छवि थी जिसने उन्हें अभिभूत कर दिया।
उनकी मृत्यु के बाद मोहम्मद से किसी ने पूछा, ‘आपको उनका अभाव बहुत खल रहा होगा’. तो जवाब में उन्होंने कहा, वह मेरी पत्नी की थी और मां भी। इस जवाब में उन सभी प्रश्नों का हल छिपा है कि खादिजा के जीवन काल में मोहम्मद क्यों उनके आज्ञाकारी पति क्यों बने रहे।
जिस दूसरे तथ्य को दोहराना चाहता हूं, वह है, वह योजना जो खादिजा के दिमाग में थी और जिसके लिए उन्होंने मोहम्मद को सबसे उपयुक्त पाया था। यह थी कबीलाई अहंकार और आपसी तकरार में डूबे हुए अरब जगत में शांति और राष्ट्रीय एकता की भावना पैदा करना, और अबीसीनिया, रोम और फारस के बढ़ते हुए दबाव से मुक्ति, जिसके साथ गौण रूप में यहूदी, ईसाई और ईरानी अग्निपूजकों धार्मिक हस्तक्षेप से मुक्ति अपने आप जुड़ जाती थी।
प्रसंग वश, याद दिला दें, यमन पर अबीसीनिया का 75 साल तक अधिकार रहा था। जब सना में उसने एक विशाल कैथेड्रल बनवाया और उसे मक्का से बड़ा तीर्थ बनाने की कोशिश की और इसके लिए वहां के शासक अब्राहा ने हाथी पर सवार होकर अपनी सेना का संचालन करते हुए काबा को ध्वस्त करने के लिए आक्रमण किया, जिसके कारण आक्रमण के वर्ष को ही हाथी-वर्ष के नाम से जाना जाता है, उसमें उसको भारी पराजय मिली।
जानते हैं कैसे? मक्का की सेना बहुत मामूली थी उसका सामना कर ही नहीं सकती थी। दैव कृपा से पक्षियों का एक बहुत बड़ा झुंड एकाएक आया। एक-एक पक्षी ने तीन-तीन पत्थर ले रखे थे – दो दोनों पंजों में और एक चोंच में। उन्होंने सेना पर पत्थर बरसाए और उसी ने अब्राहा घायल होकर मरते मरते बचा और उसकी सेना का सफाया हो गया। यह उस वर्ष की घटना है जिसमें मोहम्मद का जन्म हुआ बताया जाता है। आप चाहे तो इसे उनके चमत्कार से भी जोड़ सकते हैं।
खैर इसके साथ अबीसीनिया की ताकत घट गई। अरबों ने उन्हें भगाने के लिए फारस से मदद माँगी। वे मदद को आए और ईसाइयों को वहां से भगा दिया, परंतु खुद कब्जा जमा बैठे। मक्का पर कब्जा जमाने के लिए रोम के सम्राट हेराक्लियस ने भी उस्मान को, जो पहले हनीफ था, पर बाद में ईसाई बन गया था, 610 में मक्का का गवर्नर बना कर भेजा था, लेकिन मक्का वालों ने विदेशी शासन कबूल न किया और उसे भागना पड़ा था। मक्का के राजनीतिक और धार्मिक माहौल में यही परिस्थितियां थीं जिनमें एक नया प्रयोग किया जा रहा था, इसलिए मैं इस बात को दोहराना चाहता हूं कि यह अभियान शांति-व्यवस्था, स्वतंत्रता और अरब जगत की एकता के लिए आरंभ हुआ था। राजनीतिक आंदोलन आरंभ नहीं किया जा सकता था क्योंकि उस दशा में कबीलों का अपना अहंकार किसी अन्य के नेतृत्व को स्वीकार करने में बाधक था और इसलिए मोहम्मद की साधना और असाधारण सिद्धि को ओट के रूप में इस्तेमाल किया गया। यह एकेश्वरवाद के विरुद्ध बहुदेववादियों का प्रतिरोध था जिसके कारण अपने मत के प्रचार के लिए उन्हें मदीना उपयुक्त दिखाई दिया और मदीने के धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक यथार्थ ने पूरा रास्ता ही बदल दिया।
यहां हम मोहम्मद की मनोग्रंथि के उस पहलू को लेना चाहेंगे जिसमें उन्हें लगता था कि इस दुनिया में कोई मुझे नहीं चाहता। यह दुनिया मेरी नहीं है। इस हीनता ने अपने दोनों संरक्षकों के न रहने पर अवरुद्ध आवेग के जलाशय के टूटे हुए तटबंध का अनियंत्रित रूप ग्रहण कर लिया और जिससे वंचित रहे उसको हर कीमत पर पाने और अपने अधिकार से बाहर न जाने देने की झक क्रमशः उग्र से उग्रतर होती चली गई। एक सुंदर, नवोढ़ा और दूसरी अनुभवी और समर्पित प्रौढ़ा के होते हुए 52 साल के, ढलती उम्र के, किसी व्यक्ति को सुखी रहने ने के लिए कोई और झंझट पालने की जरूरत नहीं थी। झमेला तो एक के बाद दूसरी के आने के साथ ही आरंभ हो गया था, परंतु जो कुछ भी है उस पर कब्जा जमा कर अपना बनाने की वह भूख ही थी जिसने सभी उपलब्ध स्त्रियों को अपनी पत्नी बनाने और उनके अतिरिक्त भी रखेलों का हरम बसाने का कारण बना। यह काम उद्वेग नहीं था, तीतर के खालीपन को भरने का अवचेतन दबाव था, जिसने उनको अपनी समस्याएं बढ़ाने के लिए बाध्य किया।
इसी पृष्ठभूमि में हम उनके निरंतर मानव द्रोही होते जाने वाले आचरण की पड़ताल करेंगे।