फितरत, हिंसा और क्रूरता का दौर (2)
शुरुआत
मुहम्मद मक्का में शांति और सद्भाव के ही पक्षधर थे इसका एक प्रमाण यह भी है कि मदीना से आने वाले जिन पाँच लोगों को उन्होंने 620 के हज के अवसर पर दीक्षित किया था, उनके माध्यम से वहां के लोगों को जो संदेश मिला था वह यह था कि वह सामाजिक शांति और सौहार्द के प्रचारक हैं और इसलिए अगले साल आपसी कलह में डूबे रहने वाते खजराज के साथ अबस कबीले के दो लोग इस आशा और अनुरोध के साथ आए कि वह यथ्रीब चल कर अपनी मध्यस्थता से उनके आपसी कलह का अंत करें।
अगले वर्ष आए पचहत्तर जन भी नया मजहब अपनाने नहीं अपितु अपनी तकरार खत्म करने में उनकी मध्यस्थता की आशा में ही आए थे, यह दूसरी बात है कि उनके साथ संधि में एक दूसरे की प्राणपण से रक्षा करने की शर्त भी थी जो मदीना के इतिहास सामाजिक अशांति को देखते हुए जरूरी थी।
मक्का से रवाना होते समय या मदीने की रास्ते में उन्होंने या दूसरे मुहाजिरों ने ऐसा कुछ नहीं किया जो उपद्रव की श्रेणी में आता हो।
उन्होंने मदीना पहुंचने के बाद की आरंभ में शांति का ही रास्ता अपनाया। यद्यपि उन्होंने तत्काल स्थानीय कलह को कम करने की दिशा में सीधे कुछ नहीं किया, फिर भी जिन दो समुदायों के बीच में सबसे अधिक तकरार दो सौ साल से चलती आई थी उनके कुछ सदस्यों के इस्लाम कबूल कर लेने के कारण आपसी सद्भाव का एक वातावरण तैयार हुआ।
मदीना में पहुंचने वाले मुहाजिरों की आर्थिक दुर्दशा उनकी तात्कालिक समस्या थी। इसे दूर करने के लिए उन्होंने अंसरों (इस्लाम कबूल कर चुके स्थानीय लोगों )से मुहाजिरों का मेलजोल कराते हुए एक दूसरे का दुख सुख बांटने रास्ता निकाला। यतीमों के लिए रहने और गुजारा करने की व्यवस्था उन्होंने मस्जिद इलाके में की थी और मुहाजिरों को एकत्र बसाया था जिसे वे संगठित रह सकें। इन हथकंडों के कारण उनकी लोकप्रियता में और इस्लाम की स्वीकार्यता में बहुत तेजी से वृद्धि हुई।
इस्लाम के प्रसार में कितनी मेल मिलाप की भावना काम कर रहीं थी, कितने जन्नत में अपनी सीट रिजर्व कराने और हूरों के साथ रंगरेलियां करने के सपने कितने सहायक थे, मोहम्मद आप सचमुच पैगंबर हैं इसका प्रचार कितना कारगर था, इसका सही आकलन नहीं किया जा सकता, परंतु यह कहा जा सकता है मोहम्मद साहब के पास कोई ऐसा विचार नहीं था जिसके आधार पर वह लोगों को अपना अनुयायी बना सकें। एकमात्र विचार राष्ट्रीय एकता शांति और व्यवस्था का था, परंतु कबीलों के सरदारों की अहंमन्यता के कारण उसकी स्वीकार्यता बहुत सीमित थी ।
इसलिए मदीना में उनका आरंभिक प्रयत्न ‘ईमान वालों को’ अधिक ‘ईमानदार’ बनाने अर्थात् अधिक अंधविश्वासी बनाने तक सीमित था जिसका उनसे भी पहले उपयोग भारतीय परिदृश्य में ब्राह्मणों ने किया था और जिसकी चेतना आज भी समाज में विद्यमान है। इनमें स्वर्ग नरक का पुरस्कार और दंड भी था, ईश्वरीय संबंध या विधान से श्रेष्ठता का दावा भी था और उस के बल पर अपने कथन, आशीर्वचन, शाप की शक्ति में अनन्य विश्वास पैदा करने का प्रयत्न भी था। इसी प्रयत्न में मुहम्मद ने ‘ईमान वालों’ को कुछ कठिन परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने की शर्त भी रखी।
पहले रमजान के पवित्र महीने में कुछ लोग यदा-कदा उपवास भी करते थे, प्रायश्चित के लिए साधना भी करते थे, परंतु बहुदेववादी समाज में जैसे किसी भी देवता को मानने की और न मानने की छूट होती है, उसी तरह किसी व्रत- नियम को मानने या न मानने की बाध्यता नहीं होती। यह और केवल यह स्वतंत्रता ही बहुदेववाद की सबसे बड़ी शक्ति है, और इसका अभाव इस्लाम को गुलामों की फौज तैयार करने की कूट-योजना में बदल देता है जिसके बाद इसमें धर्मतत्व की छाया तक मिट जाती है। जो भी हो, गुलामों ने मालिकों के हुक्म का सदा पालन किया है, इसलिए जितनी आसानी से वह महाशक्ति में बदल जाते हैं वह स्वतंत्र लोगों के लिए असंभव होता है। मुहम्मद ने पूरे महीने रोजा रखने को अनिवार्य बना दिया।
मदीना में सबसे अधिक संगठित और शक्तिशाली समुदाय यहूदियों का था। मोहम्मद ने उनको नाराज किए बिना, बल्कि उनका सहयोग प्राप्त करते हुए एक करार किया, जिसका मुख्य लक्ष्य था मुसलमानों को संगठित करना और उनमें इस विश्वास को प्रबल बनाना था कि वह अल्लाह के पैगंबर हैं और उनकी आज्ञा का उल्लंघन करना महा पातक है। यहूदी उनको पैगंबर मानने के लिए तैयार नहीं थे इसलिए उन पर यह बंदिश नहीं थी। कुछ इतिहासकारों ने इसे जिस रूप में पेश किया है उसमें उनकी ओर से किया गया कुछ फेरबदल भी हो सकता है, फिर भी इसकी निम्न पंक्तियां ध्यान देने योग्य हैं:
Whosoever is rebellious, or seeketh to spread iniquity, enmity, or sedition, amongst the believers, the hand of every man shall be against him, even if he be the son of one of themselves. No believer shall be put to death for killing an infidel; nor shall any infidel be supported against a believer. Whosoever of the Jews followeth us shall have aid and succour; they shall not be injured, nor shall any enemy be aided against them. Protection shall not be granted by any unbeliever to the Quraish of Mecca, either in their persons or their property. Whosoever killeth a believer wrongfully shall be liable to retaliation; the Muslims shall join as one man against the murderer.
‘The Jews shall contribute with the Muslims, so long as they are at war with a common enemy. The several branches of the Jews — those attached respectively to the Bani ‘Auf, Bani Najjar, Bani Aws, etc., are one people with the believers. The Jews will maintain their own religion, the Muslims theirs. As with the Jews, so with their adherents; excepting him who shall transgress and do iniquity, he alone shall be punished and his family. No one shall go forth but with the permission of Muhammad. None shall be held back from seeking his lawful revenge, unless it be excessive. The Jews shall be responsible for their own expenditure, the Muslims for theirs. Each, if attacked, shall come to the assistance of the other. Madina shall be as sacred and inviolable for all that join this treaty.
आरंभिक अवस्था में जब उनकी और उनके अनुयायियों की संख्या बहुत कम थी, तब शांति और मेलजोल के मार्ग पर चलने के अलावा उनके पास और कोई चारा भी नहीं था।
मदीने में अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ने के साथ उनको गैर-मुसलमानों को उत्पीड़ित करने की छूट दी गई या मदीना के लोगों के खड़जंगी स्वभाव के अनुरूप उन्होंने ऐसा करना आरंभ किया, यह पता नहीं । परंतु इसका यह परिणाम हुआ कि यहूदियों को छोड़कर दूसरे सभी अरब या तो इस्लाम कबूल कर बैठे या या दिखावा करने को मजबूर हुए कि वे मुसलमान हैं जबकि वे अपने पुराने रीति रिवाज को छोड़ने के लिए वे तैयार नहीं थे और इसलिए जिनको मोहम्मद भरोसे लायक नहीं मानते थे। उनकी स्थिति भारत के मेवाती राजपूतों जैसी थी जिन्हें हाल के दिनों में पक्का मुसलमान बनाने के प्रयत्न होते रहे।
मदीना के लोगों में लूटपाट खून खराबा शर्म नहीं गर्व की बात समझी जाती थी। मोहम्मद की अपनी और दूसरे मुहाजिरों की आर्थिक तंगी और मक्का के कुरेशियों के प्रति क्रोध, उनके द्वारा मक्का की अपनी परिसंपत्तियों से वंचित किए जाने के क्षोभ का मिला-जुला परिणाम था कि उन्होंने रमजान के पवित्र महीने में यह पता चलते ही कि कुरेशियों का बहुत बड़ा काफिला सीरिया से मक्का को लौट रहा है, उन्होंने इस महीने की पवित्रता की चिंता किए बिना हम्जा को तीस मुहाजिरों के साथ उस पर कब्जा करने के लिए रवाना किया। रमजान के महीने की पवित्रता भंग करने का आदेश अल्ला से मिलना ही था, इसलिए इसका इलहाम भी हुआ भी था:
They will ask thee concerning war in the sacred mouth: say, ‘To war therein is bad, but to turn aside from the cause of God, and to have no faith in Him and the sacred Temple, and to drive out its people, is worse in the sight of God; and civil strife is worse than bloodshed.’ Suratu’l-Baqara (ii) 214.
अल्लाह के हुक्म के बाद भी लूट के इस प्रयत्न में उन्हें सफलता नहीं मिली। सेल ने इस पर टिप्पणी की है:
There was nothing seriously wrong from an Arab point of view in one tribe attacking the property of another. Muhammad did nothing more than any other Arab chief, and such he now was, would have done; so there seems no reason to ignore the historic fact that the Muslims began the strife of arms, that they, and not the Meccans, were the first to seek for plunder. The former sorely needed it; the latter did not. This is a simple explanation of the fact and nothing is gained by disguising it. In some way or other means of sustenance had to be provided, and so on the seventh day of the month Ramadan, that is, seven months after his arrival in Madina, Muhammad appointed Hamza bin ‘Abdu’l-Muttalib to the charge of a small expedition.
इसके बाद ऐसे ही लूट के छोटे मोटे दो प्रयत्न उबैदा और साद की अगुआई में हुए। ये भी विफल रहे। जो भी हो हथियार उठाने की यही आरंभिक घटनाएं हैं। इन्हें भले मजहबी रंगत देने की कोशिश की गई हो परंंतु ये आर्थिक कारणों से की गई लूटपाट की घटनाएँ, जिसमें हाथ कुछ नहीं आया। एक अधिकारी विद्वान मांटगोमरी वैट्स के अनुसार “Most of the participants in the [early Islamic] expeditions probably thought of nothing more than booty … There was no thought of spreading the religion of Islam.” Ahmed Al-Dawoody (2011), The Islamic Law of War: Justifications and Regulations, p. 87. Palgrave Macmillan. द्वारा उद्धृत, विकीपीडिया, जिहाद.