फितरत, हिंसा और क्रूरता का दौर (3)
मुझे अरबी का ज्ञान नहीं है इसे आप मेरे कहे बिना भी जानते हैं, सरिया और शरिया/ शरीयत के बीच कोई संबंध है या नहीं यह भी नहीं जानता और इसे बताना पड़ रहा है । जानने की कोशिश की तो इतना ही पता चला कि सरिया का प्रयोग उन अभियानों के लिए किया जाता था, जिनका नेता या सिपहसालार कोई मुसलमान होता था जिसे उसकी जिम्मेदारी मोहम्मद सौंपते थे। शरिया/शरियत/ शरीयत की परिभाषा कोलिंस शब्दकोश ने यूँ दिया है: the body of canonicalanonical law based on the Koran that lays down certain duties and penalties for Muslims.
लगता है, दोनों में संबंध है, और यदि हो तो मुस्लिम शरिया मुस्लिम समाज को दंडित करने के अधिकार को मुल्लों को सौंपने का दूसरा नाम है। इसमें न्याय के लिए कम जगह है अत्याचार के लिए खुला दायरा है।
गजवा का प्रयोग उन अभियानों के लिए किया गया जिनका नेतृत्व, या जिनकी सिपहसालारी मोहम्मद करते थे।
मैं असमंजस में हूं कि मैं इसका अर्थ सही समझता हूं या नहीं। कारण जब गजवा ए हिंद जैसे जुमलों का सामना होता है , तो लगता है इस जिम्मेदारी को अपने ऊपर लेने वाले अपने को पैगंबर समझते हैं, या यह मानते हैं कि पैगंबर की जिम्मेदारी निभा रहे हैं अर्थात उनकी समझ के अनुसार और हमारी नासमझी के कारण, यह संदेश जाता है कि मोहम्मद शांति दूत नहीं थे। धार्मिक नहीं थे। मानवतावादी नहीं थे। सिर्फ और सिर्फ उपद्रवकारी थे।
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कौन कर रहा है ऐसे काम! मुहम्मद या उनके प्रतिनिधि ?
बच्चे स्कूल में पढ़ रहे हैं, जिहादी चुपके से घुसकर गोलियों से उन्हें भून देते हैं। नमाजी मस्जिद में नमाज पढ़ रहे हैं उनको गोलियों से भून दिया जाता है। लोग तीर्थ यात्रा पर जा रहे हैं, घात लगाकर उनकी हत्या कर दी जाती है। हम चारों ओर से यह शोर सुनते हैं कि पवित्र महीने में ऐसा नहीं होना चाहिए था । यह शरीयत के अनुकूल नहीं हैं। मजहब निरीह बच्चों की हत्या की इजाजत नहीं देता। मगर सच यह है कि ऐसी घटनाओं पर परेशान होने वाले मुसलमान यह नहीं जानते कि क्यों उनका आचरण इस्लाम के विरुद्ध और जाहिलिया के अनुरूप है।
इस तरह के कायरतापूर्ण काम जाहिलिया के दौर में ही नहीं किए जाते थे। अरब, राजपूतों की तरह, स्वभाव के सरल, बहादुर और आन के पक्के हुआ करते थे। मक्का में. और कुछ महीनों तक मदीना में भी. मोहम्मद का यही स्वभाव था। इसी का नाम इस्लाम था। इसी का पैगाम. अपनी अंतःसंज्ञा या इलहाम के बल पर दुनिया को एक नई दिशा दिखाने के लिए जो पैगंबर आया था, उसकी मदीना में हत्या हो गई, वह मरा नहीं पुनर्जीवित हुआ एक नए पैगंबर के रूप में। एक नए अल्लाह के साथ, एक नई नैतिकता के साथ जिसमें नैतिकता के लिए जगह नहीं थी। जिसमें वह जो जी में आए करे, वही नैतिकता की कसौटी बन जानी थी। इसे समझना हिंदू या मुसलमान की समस्या नहीं है समूची मानवजाति की समस्या है।
प्रश्न यह है कि कितने प्रतिशत मुसलमान मक्का के अल्ला और मक्का के पैगंबर के साथ अपने को जुड़ा समझते हैं और कितने मदीने के अल्ला और पैगंबर और उनके उन प्रतिनिधियों के साथ जो अपने को मुसलमान नहीं समझते पैगंबर के दर्जे का समझते हैं। यदि ऐसा न होता तो गजवा ए हिंद जैसे शब्द की जरूरत न होती।
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मोहम्मद साहब ने मदीना में अपने विश्वस्त लोगों की संख्या कम होने के कारण, एक संकटकालीन स्थिति में, जो रास्ता अपनाया उसने उनके अनुयायियों को ऐसे फितरती, धोखेबाज और कायरों की जमात में बदल दिया जिसके सही होने की एकमात्र कसौटी उसका सफल होना था। इसके लिए वे कुछ भी कर सकते थे। इसके लिए वह कुछ भी करते रहे हैं।
मुसलमानों में सबसे बड़ी संख्या उन लोगों की है जो मक्का के पैगंबर और मक्का के अल्ला को अपना पैगंबर और अल्ला मानते हैं, परंतु यह साहस नहीं जुटा पाते कि कह सकें कि हम मदीना के अल्ला को अल्ला नहीं मानते वह मुसलमानों का नहीं मुल्लों और जिहादियों का अल्लाह है जिसकी चले तो मुसलमान इंसान न रह जायें, और मुसलमान इस्लाम के पाबंद हो जाएं, मक्का के इस्लामी मूल्यों को मानकर चलें, तो आज की उन समस्याओं का निराकरण हो जाए जिन्हें पैदा करके पश्चिमी देश एशिया को, विशेषतः मुसलमानों को, क्योंकि अल्लाह की मेहरबानी से उनकी धरती से पिघला सोना बाहर आने लगा जिस पर इस्लाम विशेष की कृपा से वे अधिकार कर बैठे हैं और इसे छोड़ना नहीं चाहते।
आज की समस्याएं इस्लाम के कारण नहीं है, पूंजीवादी षड्यंत्र के कारण हैं, जिसे न हिंदुत्ववादी समझ पाते हैं न इस्लामपरस्त। दोनों की आवेश गर्भित नामझी वह कंपोस्ट है जिसे पश्चिमी कूटनीति हमारी खेती के लिए अपनी जरूरत से तैयार करती है।
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इसी पृष्ठभूमि में हम मदीने के मोहम्मद को समझने का प्रयत्न कर सकते हैं।
अरबों के बीच प्राचीन परंपरा से कुछ महीनों को ( पहला, सातवाँ, ग्यारहवां और बारहवां) बहुत पवित्र माना जाता था। इनमें उन कबीलों के बीच भी, जिनमें आपस में ठनी रहती थी किसी तरह की छेड़छाड़ नहीं होती थी। लोग बिना हथियार के कहीं भी आ जा सकते थे। ऐसा लगता है कि मक्का के व्यापारी प्रायः इन्ही महीनों में माल-असबाब के साथ दिसावर के लिए निकलते और वापस लौटते थे। हमारा यह अनुमान इस बात पर आधारित है कि मोहम्मद ने मक्का के काफिलों पर प्रायः इन्हीं महीनों में हमले किए, इसके लिए अल्ला के हुक्म का बहाना भी तलाश लिया। हम पीछे हमजा की सरदारी में लूट की नाकाम कोशिश का उल्लेख कर आए हैं जो रमजान के महीने में किया गया था।
पिछली तीन विफलताओं के बाद हमले की कमान मुहम्मद ने स्वयं सँभाली। इससे पहले के तीनों हमले दूसरे मुहाजिरों के नेतृत्व में किए गए थे, इन्हें सरिया कहा जाता है। अबवा के गज़वा इस्लामी इतिहास का पहला गजवा था। इसके लिए जिल हज्ज का महीना चुना गया था जिसकी पवित्रता के विषय में कहते हैं स्वयं पैगंबर ने कहा था, “No good deeds done on other days are superior to those done on these (first ten days of Dhal Hajja).” Then some companions of the Prophet said, “Not even Jihad?” He replied, “Not even Jihad”, except that of a man who does it by putting himself and his property in danger (for Allah’s sake) and does not return with any of those things.”(Bukhari 15: 86)।
यह हमला भी कुरेशियों के कारवां पर ही ही किया गया था। इसमें भी विफलता हाथ लगी। यही हाल बुवात और उशैरा के गज़वा का रहा। पर इस बीच एक समझौता उन्होंने कुरेशियों के एक कुनबे बानी धमरा से किया कि धनी कुरेशियों पर हमला हो तो वह उलकी सहायता न करे।बानू मुआलिज से संधि की कि मक्का वालों से टक्कर होने पर वे किनारा कस लेंगे। जिस एकमात्र हमले में कुरेशियों के एक काफिले को लूटने मे सफलता मिली वह नखला का सरिया था, पर इसे भी छोटे हज का बहाना बना कर अब्दुल्ला ने उनके तंबू के करीब तंबू लगा कर या उस समय किया जब वे खाना खा रहे थे। जो भी हो इस बार उनके हाथ पहली बार लूट का माल लगा।
बद्र का युद्ध भी कारवाँ लूटने की तैयारी में और पवित्र महीने में हुआ। सीरिया जाते समय अबू सूफियान कुरैश को उशैरा में घेरने का मुहम्मद का जाल बिछता इससे पहले ही वह हाथ से निकल गया था इसलिए वापसी पर सामना होगा इसका उसे अनुमान था। उसने पहले से मक्का से अपने बचाव के लिए मदद मांग रखी थी और बचाव दल रवाना भी हुआ पर उसने अपना रास्ता बदल लिया और यह सोच कर कि वह अब सुरक्षित है बचाव दल को वापस जाने का संदेश भेज दिया। दूसरे सभी लौट गए केवल एक सरदार अबू जह्ल था जिसने बद्र तक जाने का निश्चय किया।
बद्र के जंग का और इसकी पृष्ठभूमि पर विस्तार से विचार करना होगा क्योंकि इस्लामी इतिहास में यह एक निर्णायक मोड़ है।