रीतियां, रूढ़ियां और विश्वास
बीच वाला आदमी
मुझे जीविका के लिए सरकारी नौकरी करनी पड़ी। मैं भारत के राष्ट्रपति के नाम पर नियुक्त हुआ, संविधान और सेवा शर्तों के अनुसार, मैं उनके अधीन काम करता था जिसके अधीन उन्हीं सेवा शर्तों को मानते हुए तीनों अंगों के उच्चतम पदों पर काम करने वाले। परंतु जिससे मेरा पाला पड़ता था वह बीच वाला आदमी या मेरे ठीक ऊपरी पद पर काम करने वाला आदमी, मेरे लिए, जितना ताकतवर था उतना राष्ट्रपति, चाह कर भी नहीं हो सकते थे। अपने अनुभवों से जानता हूं यह बीच वाला आदमी राष्ट्रपति से अधिक ताकतवर होता है। भगवान के नाम पर पेश किया जाने वाला भोग और चढ़ावा पुजारी भोगता और सहेजता है। जहां चढ़ावा नहीं है, वहां की स्थिति इससे अच्छी नहीं है।
इस्लाम की ओर से किया जाने वाला यह दावा कि अल्लाह और बंदे के बीच कोई मध्यस्थ नहीं है, सही नहीं लगता।
ईसा मसीह ने अपने बारह अनुयाई चुने और उन्हें अपने मत का प्रचार करने का उत्तरदायित्व सौंपा था और उसी की तर्ज पर मोहम्मद ने भी करार को प्रामाणिक रूप देने के लिए अपने-अपने कबीलों के ठीक बारह सरदारों को आमंत्रित किया था (कबीले न सही, कुनबे ही सही) और उनको अपने प्रभाव क्षेत्र में इस्लाम के प्रचार करने का उत्तरदायित्व दिया ऐर यह प्रचारित करने का जिम्मा दिया था कि मुहम्मद अल्लाह के पैगंबर हैं और जो कोई उनका कहा नहीं मानता है वह भारी गुनाह करता है जिसकी सजा उसे मिल कर रहेगी और उनके साथ सबका दायित्व अपने ऊपर लिया था। खुदा और बंदों के बीच मध्यस्थता का काम कयामत के दिन भी बना रहता है।
पदक्रम
हम देख खाए हैं कि ईसाइयत का नाम लेते हुए उन्होंने अपनी व्यवस्था आरंभ की थी। ईसाइयत में इससे पोप, बिशप और पादरी का पद क्रम तैयार हुआ था। इस्लाम में इसने खलीफा, इमाम और मुल्ला के पदक्रम का रूप लिया। ईसाई तंत्र में कम से कम ईसाइयों के भीतर इस क्रम का सम्मान किया गया। इस्लाम में इसका निर्वाह नहीं हो सका। इसका विस्तार से अध्ययन किया जाना चाहिए।
महिलाओं का दर्जा
बौद्ध ढांचे में भिक्षुओं के साथ भिक्षुणियों को स्थान मिला था, ईसाई ढाँचे में ननों को प्रवेश मिला, इस्लाम में इसके लिए संभावना अधिक थी । मदीना से मुहम्मद को मना कर ले जाने वाले 73 पुरुषों के साथ मदीना से दो महिलाएं भी आई थीं। इस्लाम में इस ढांचे का आरंभ, ( जैसा हम देख आए हैं), अकवा के दूसरे करार के साथ ही हो गया था। इस्लाम में यकीन रखने वाले, उनके ऊपर उनके सरगना और सबसे ऊपर स्वयं मोहम्मद जो कयामत के दिन भी मध्यस्थ के रूप में बने रहेंगे। बात चढ़ावे की नहीं है, उसमें दमड़ी जाती है पर चमढ़ी बची रहती है। दूसरे विकल्प में दमड़ी बचा ली जाती है चमड़ी चली जाती है। कहां जाता है इस्लाम में महिलाओं को सबसे अधिक आर्थिक सुरक्षा प्रदान की गई है, परंतु किस कीमत पर? आत्मसम्मान और सुरक्षा की कीमत पर? इस्लाम के आने से पहले महिलाओं को जितनी सुरक्षा और स्वतंत्रता प्राप्त थी उसमें इतनी कमी आई कि विवाहिता स्त्री भी सुरक्षित अनुभव नहीं कर पाती।
जुमे की नमाज
मोहम्मद साहब हिजरत के दौरान जिन अनुभवों से गुजरे उनका एक परिचय संक्षेप में दे आए हैं। एक ढांचा तैयार करने की दृष्टि से उन्होंने इस दौरान क्या किया इसका उल्लेख रह गया। आठवें दिन वह हिजरी 1 के पहले महीने (रबीउल औवल) के आठवें दिन कूबा पहुंचे और सार्वजनिक इबादत के लिए एक मस्जिद का शिलान्यास किया। यहां से मस्जिदों का आरंभ होता है। इसे पहली मस्जिद के रूप में याद किया जाए यह स्वाभाविक ही है। इसी दिन अली उनसे आ मिले थे। सभी आगे बढ़े तो बानी सलीम जिस घाटी में रहते थे, उसमें रुके। यह शुक्रवार था। यहां उन्होंने जहां सजदा किया, वहां मस्जिद बनाई गई। इसे शुक्रवार की मस्जिद या जुम्मे की मस्जिद कहा जाता है। इस अवसर पर उन्होंने एक तकरीर भी दी थी। तभी से जुम्मे की नमाज को विशेष महत्त्व दिया जाता है, जिस पर एक तकरीर दे कर मुसलमानों की मानसिकता को नियंत्रित किया जाता है।
मस्जिद की जमीन
कहते हैं, जब वह रवाना हुए तो अपने अपने इलाके में उन्हेंअपनी ऊंटनी से नीचे उतरने का आग्रह करने लगे। वह किसकी बात मानते किसकी नहीं, उन्होंने कहा इसका फैसला ऊंटनी ही करेगी। वह जहां जाकर बैठ जाएगी वहीं पर उतरूंगा। ऊंटनी मदीना से पूरब की तरफ एक खुली जगह में बैठ गई। मोहम्मद साहब ने वहां मस्जिद बनाने का इरादा किया। जमीन दो अनाथों की थी । इसे उन से खरीदा गया। इसी के आधार पर यह कहा जाता है कि मस्जिद किसी जमीन या मकान पर जबरदस्ती कब्जा करके नहीं बनाई जा सकती। यह शरीयत के अनुरूप नहीं है।
यह एक तरह का झांसा है, क्योंकि यदि यह सच है तो मध्यकाल में जितनी भी मस्जिदें भारत में बनी उनमें उन मस्जिदों को छोड़कर जो इस नियम के अनुसार नहीं बनी है शरीयत के खिलाफ मानकर हिंदुओं को सौप देना चाहिए, उन मस्जिदों को तो हर हाल में जिनके बारे में पुरातात्विक या अभिलेखीय प्रमाण है कि उन्हें मंदिरों को तोड़ कर बनाया गया है। कम से कम ऐसे मुस्लिम विद्वानों को मौखिक रूप में इस बात का समर्थन करना चाहिए कि ऐसी सभी मस्जिदें शरीयत के खिलाफ हैं और उन्हें हिंदुओं को लौटा देना चाहिए क्योंकि इसके अनुसार वे नापाक जगहें हैं।
ऐसा करने की जगह वे इतिहास को कयास से उलट देंगे और यह समझाएंगे कि यदि मस्जिद बनी है तो किसी तरह की जोर जबरदस्ती की ही नहीं गई होगी। भारत में शरीयत की दुहाई आज तक किसी आदर्श के निर्वाह के लिए नहीं किया गया, कट्टरता को जायज सिद्ध करने के लिए किया जाता है।
सच्चाई यह है कि ऐसे लोगों को मालूम है अभी तक मोहम्मद साहब ने हिंसा का सहारा नहीं लिया था, लूटपाट आरंभ नहीं किया था। एक बार जब उस रास्ते पर चल पड़े तो उनके लिए कोई भी कुकर्म कुकर्म नहीं था क्योंकि अल्लाह उन्हें ऐसा करने का संदेश भेज देता था जिसकी अवज्ञा वह कर नहीं सकते थे।
मुसलमानों का कहना है, अल्लाह एक है, सर्वोपरि है, उसके अलावा कोई दूसरा अल्लाह नहीं। परंतु असलियत यह है कुरान शरीफ के अनुसार ही दो अल्लाह है। एक मक्का का, दूसरा मदीने का। एक की बात दूसरा उलट-पुलट देता है। पहला इंसान को किसी को भी सजा देने की इजाजत नहीं देता, गुनाहगारों को स्वयं सजा देता है और नेक बंदों के लिए जन्नत का इंतजाम करता है। दूसरा अल्लाह हर तरह के गुनाह का समर्थन करता है, गुनाह करने में कोई झिझक हो तो उस पर फटकार लगाता है और करने को मजबूर कर देता है। सभी मुसलमान इस सचाई को जानते हैं, और इसलिए दूसरे मजहब के लोगों को समझाने के लिए वे मक्का के अल्लाह की बात करते हैं, और तहे दिल से उन सभी गलत कारनामों का समर्थन करते हैं, जिनको पहला अल्लाह और पहले का पैगंबर गलत मानता था।
(जारी)