रीतियां, रूढ़ियां और विश्वास (2)
सजदा
इब्रानी परंपरा में सजदा या झुक कर जमीन से माथा लगाकर बंदगी करने का चलन नहीं था। प्राचीन काल में यहूदी आसनी जमीन पर बैठकर प्रार्थना करते थे। उसका स्थान कुर्सियों ने लिया है। प्रार्थना के लिए खड़ा होना पड़ता है। इसका निकटतम आदर्श भारतीय प्रार्थना और प्रणिपात प्रतीत होता है।
परंतु पहले के अरब समाज में इस तरह का कोई चलन रहा नहीं लगता।
इस्लामी मान्यता के अनुसार जब मुहम्मद को इल्हाम हुआ और उसके सम्मोहन से बाहर निकले तो वह घबराए और डरे हुए थे।
उनको भले पता न चला हो कि उन्हें क्या हुआ है, परंतु खदीजा को जिन्होंने उन्हें प्रेरित किया था उन्हें इसका रहस्य पता था । वह उनको लेकर, उनकी बुआ वरक्का के पास गईं और कहा सुनो तो मोहम्मद क्या कह रहे हैं।
वरक्काेन इसी मुद्रा में झुक कर उनसे पूछा, “तुमको क्या दिखाई पड़ा कि तुम्हारा यह हाल हो गया? तभी से ही इस मुद्रा को अल्ला के हुक्म जैसी मान्यता मिल गई।
जाहिर है, यह एक गढ़ी हुई कहानी है जिसके इतिहास का या तो मुस्लिम विद्वानों को पता नहीं, या यदि पता है तो इसे शुद्ध इस्लामी सिद्ध करने के लिए वे इस पर परदा डालते हैं।
‘जैसा कि उसके फारसी प्रतिरूप ‘नमाज’ से प्रकट होता है, यह नमन है, इसकी मुद्रा योग की एक विशिष्ट मुद्रा (वीरासन) है, जिसे भोजन के बाद भी किया जा सकता है। दरबार के समय लगभग सभी मुसलमान बादशाह तख्त पर इसी मुद्रा में बैठते रहे हैं ।
आज जब योग के विषय में कठमुल्लों द्वारा अनावश्यक हठधर्मिता दिखाई जा रही है, यह याद दिलाना जरूरी हो जाता है कि ऐसे मुसलमान जो बात बात पर मोहम्मद साहब की जीवन को आदर्श बनाकर उस पर चलने की कवायद करते हैं, यह भी नहीं जानते कि मोहम्मद के प्रेरणास्रोत क्या थे और किस साधना के द्वारा वह अलौकिक शक्ति पाना चाहते थे और क्या पाया था।
कालदेव के दिव्य रूप का दर्शन करने के बाद घबराए हुए अर्जुन की जो दशा होती है “दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि | दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥11.25॥” कुछ ऐसी ही दशा मोहम्मद साहब की लगती है । कहते हैं लोटे पर मक्खी को बैठा देखकर, उसे इंगित करते हुए नास्तिक नरेंद्र दत्त ने जब रामकृष्ण परमहंस की क्षणिक अनुपस्थिति में उनका उपहास करते हुए कहा था, ब्रह्म ब्रह्म पर बैठा और ठीक उसी समय उपस्थित हुए परमहंस ने शिर-स्पर्श करते हुए, हामी भरी थी और उन्हें जो कुछ दिखाई पड़ा था उसके बाद ऐसी ही घबराहट उनको भी हुई थी।
तलाक
पश्चिमी समाज में जीवनसंगिनी की अवधारणा नहीं थी, जनम जनम का साथ है हमारा तुम्हारा जैसा गीत वहां कोई गाए भी तो लोगों की समझ में नहीं आ सकता था। भारत में यह था। किसी अकल्पनीय परिस्थिति में परित्याग संभव तो था परंतु, उसके बाद भी स्त्री उसी की पत्नी कहलाती थी। परित्याग के बाद पति पत्नी को उन सभी सुविधाओं से वंचित कर देता था, जिसका पत्नी के रूप में उसे अधिकार था, परंतु वैवाहिक बंधन से मुक्त नहीं करता था, इसलिए मानना होगा कि संबंध विच्छेद भारतीय जन्म जन्मांतर के बंधन से अधिक मानवीय है।
पश्चिम में संबंध विच्छेद का चलन बहुत पुराना है। इसका जिक्र और विधान हामू रब्बी की संहिता ( 1795-1750 ई.पू.) में है। इसके अनुसार एक आदमी अपनी पत्नी को केवल यह कह कर कि “तुम मेरी पत्नी नहीं रहीं” मेहर की रकम, और एक निश्चित जुर्माना चुका कर तलाक दे सकता था।
A man could divorce his wife by saying, “You are not my wife,” paying a fine and returning her dowry.
इसलिए मुसलमानों का यह दावा कि इस्लाम ने महिलाओं को अधिक आर्थिक सुरक्षा दी गलत लगता है। महिलाओं के अधिकार कम हुए, इसका प्रमाण यह है कि हामू रब्बी की संहिता में औरत को भी संबंध विच्छेद का अधिकार, कुछ टेढ़ा तो था, परंतु था। उसे कानूनी रास्ता अपनाना पड़ता था। विच्छेद मनमर्जी से नहीं हो सकते थे। यह व्यभिचार, बंध्यापन, दुर्व्यवहार, उपेक्षा, गाली गलौज के आधार पर ही हुआ करता था। A wife had to file a lawsuit to obtain a divorce. Babylonian couples sought divorces for reasons such as adultery, infertility, desertion, abusive treatment and neglect. A wife could divorce a husband for adultery. A husband could ask a court to execute his adulterous wife”. (according to Rev. Claude H.W. Johns’ book, “Babylonian and Assyrian Laws, Contracts and Letters).
हम नहीं जानते कि इस्लाम पूर्व अरब में तलाक का चलन था या नहीं; था तो उसका रूप क्या था? मोहम्मद साहब के जीवन काल में तलाक की दो घटनाएं और एक विधान हमें विचलित करता है। इनका जिक्र जरूरी है।
मोहम्मद ने जैनब नाम की दो महिलाओं से विवाह किया था। एक ऐसे पति की विधवा थी जो अबीसीनिया में निर्वासित हुए थे। उनको संरक्षण की जरूरत थी, पत्नी बनाने का तरीका छोड़कर संरक्षण का कोई दूसरा तरीका उन्हें मालूम नहीं था, इसलिए 53 साल की उम्र में किया गया विवाह ‘आ गले लग जा’ से प्रेरित था। अर्थात वैवाहिक संबंध, और तर्क संरक्षण का।
ये तर्क मोहम्मद साहब की महिमा को गिरने से बचाने के लिए गढ़े जाते हैं। मेरे लिए इस कारण वह न तुच्छ हो जाते हैं, न महान। दूसरे संदर्भ में, कहे तो गांधी के संदर्भ में, मैं यह कह चुका हूं कि महान विकृतियां महान पुरुषों में ही पाई जाती है, सबसे गहरी दरारें भी सबसे ऊंचे पर्वतों में पाई जाती हैं। इसलिए मोहम्मद साहब का यह पक्ष मेरी नजर में उन्हें गिराता नहीं है, उठा तो सकता ही नहीं।
इसे खुले मन से स्वीकार किया जाना चाहिए कि यह बुढ़भसता या खबीसपन (इंबेसिलिटी) की व्याधि थी जिसका माध्यम वे लोग बनते हैं जो जवानी के दिनों में ही कठोर आत्म संयम का सहारा लेते हैं और ढलती उम्र में उन्हीं वासनाओं के खिलौने बन जाते है। वे उनकी पूर्ति के कई बहाने तलाशते हैं पर चाहें तो भी उससे न तो मुक्त हो सकते हैं न ही उस ऊर्जा को किसी नई दिशा में ढाल सकते थे । उनसे अपने ज़मीर और मिजाज पर कायम रहने का संकल्प तक नहीं निभ पाता।
मोहम्मद में यदि या विकृति आई तो इसे इसका ही परिणाम मानना होगा कि साहचर्य के बावजूद ढलती उम्र में खदीजा से न उनका शारीरिक संबंध संभव था, न उनके नियंत्रण से मुक्त हो पाना, जिसने नियंत्रण हटने के साथ उद्दाम क्षति पूर्ति का रूप लिया, इसलिए इस विफलता के आधार पर उनका मूल्यांकन करना गलत है, परंतु महिमा का गान करना उससे भी गलत है। व्याधि के लिए व्यक्ति को दोष देना समझदारी नहीं।
कामुकता का उस आयु में जो तब की आयु सीमा में बुढ़ापा था, इतना प्रबल हो जाना कि वह विवेक खो बैठें, इसी रूप में समझी जा सकती है। जैसा हमने कहा, जेनब नाम की दूसरी युवती रिश्ते में उनकी दूर की बहन लगती थी। यह अबू तालिब के छोटे भाई अब्दुल मुत्तलिब की बेटी थी। ऐसा विवाह अरब समाज में वर्जित था।
इससे भी बड़ी बात यह कि वह उनके दत्तक पुत्र जईद/ज़ैद की पत्नी थी। उसे देखते ही मोहम्मद साहब अपने पर काबू न रख सके। उनका मनोभाव पता चलने पर पुत्र ने पत्नी को तलाक देने का सुझाव रखा। तलाक का एक मार्मिक संदर्भ यही आता है। तलाक के प्रस्ताव को मोहम्मद ने ठुकरा दिया।
A little later on, in the beginning of the fifth year of the Hijra, a marriage was arranged with Zainab bint Jahsh, the wife of Muhammad’s adopted son Zaid. The story goes that, on visiting the house of Zaid, Muhammad was struck with the beauty of his wife. Zaid offered to divorce her, but Muhammad said to him, ‘Keep thy wife to thyself and fear God.’ Zaid now proceeded with the divorce, though from the implied rebuke in the thirty-sixth verse of Suratu’l-Ahzab (xxxiii) he seems to have doubted the propriety of his action. In ordinary cases this would have removed any difficulty as regards the marriage of Zainab and Muhammad, पर उन् परंतु प्रकृति के आगे उनकी क्या चलती। इसके लिए एक नया इल्हाम तो होना ही था।
अब नया ज्ञान प्राप्त हुआ, कि दत्तक पुत्र तो पुत्र होता ही नहीे। और फिर वह तो पहले गुलाम रह चुका था। गुलाम का सब कुछ स्वामी का होता हे। फिर उसने तो तलाक भी दे दिया था, इसके बाद भी तू अल्लाह से छिपने का प्रयत्न करता है। अल्लाह के हुक्म के आगे पुरानी सामाजिक वर्जनको कैसे जगह मिल सकती है: A little later on, in the beginning of the fifth year of the Hijra, a marriage was arranged with Zainab bint Jahsh, the wife of Muhammad’s adopted son Zaid. The story goes that, on visiting the house of Zaid, Muhammad was struck with the beauty of his wife. Zaid offered to divorce her, but Muhammad said to him, ‘Keep thy wife to thyself and fear God.’ Zaid now proceeded with the divorce, though from the implied rebuke in
the thirty-sixth verse of Suratu’l-Ahzab (xxxiii) …’It is not for a believer, man or woman, to have any choice in their affairs, when God and His Apostle have decreed a matter.’ Suratu’l-Ahzab (xxxiii).
(जारी)