इस्लाम का प्रचार (घ)
इस्लाम के प्रचार का दसवां साल मोहम्मद साहब के लिए बहुत दुखद रहा। उनकी जीवनसंगिनी और मार्गदर्शिका खादिजा का इंतकाल हो गया। दूसरी दुर्घटना: उनके चाचा अबू तालिब की छत्रछाया उठ गई जिनके जीते जी मोहम्मद से घोर असहमति के बावजूद कभी किसी ने उनको शारीरिक रूप से क्षति नहीं पहुंचाई थी। वह उस दुर्दिन में भी उनके साथ खड़े रहे और उनके होने के कारण ही बानू हाशिम कुनबे के वे लोग भी जो इस्लाम का विरोध करते थे, भारी तकलीफ बर्दाश्त करते हुए भी मोहम्मद के समर्थन में खड़े हो गए थे जब उनका बहिष्कार हुआ था।
उनके मरने की घड़ी तक मोहम्मद साहब लाख कोशिश करते रहे कि वह इस्लाम कबूल कर ल, परंतु उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया था। उन्हीं के कारण मोहम्मद को इलहाम हुआ था : “अपने करीबतर रिश्तेदारों को डराओ. कहीं तुम जान पर खेल जाओगे उनके गम में पर कोई ईमान न लाए।”
मोहम्मद शियाब दर्रे क बहिष्कार के दिनों में भी अपने कुनबे के लोगों को मूर्ति पूजा और बहुदेववाद की बुराइयां समझाते और अल्लाह पर ईमान लाने की दलीलें देते रहे। परंतु उनके प्रस्ताव में ऐसा कुछ नहीं था जो उन्हें अपने विश्वास से डिगा सके।
सारा खेल विश्वास करने पर टिका था। वे अपने इष्ट देवो/ देवियों पर विश्वास करते या अल्लाह पर। अल्लाह की नाराजगी से उनका कुछ नहीं बिगड़ा था। अल्लाह की मेहरबानी के कारण उस पर यकीन लाने वालों को समाजिक बहिष्कार झेलना पड़ रहा था, और उनके साथ हमदर्दी के कारण हाशिम कुनबे के लोगों को भी दुर्दिन से गुजरना पड़ रहा था। इसलिए मोहम्मद के सुझाव का न तो उन पर असर हुआ, न चाचा अबू तालिब के ऊपर कोई असर हो सकता था। अंतिम दिनों तक, जिंदगी की आखिरी सांस तक मुहम्मद उनसे मिन्नतें करते रहे, पर उन्होंने यह कह कर इंकार कर दिया था कि यदि तुम्हारी बात मान भी हूं तो लोग समझेंगे मैंने डर कर ऐसा किया।
मोहम्मद उसके बाद भी उनके लिए अल्लाह से क्षमायाचना करते रहे और फिर उन्हें लगा रिश्ते-नाते, नेकदिली, उपकार, किसी भी वजह से किसी इंसान को जिसने इस्लाम न कबूल किया हो कोई रियायत नहीं दी जा सकती । विचार इल्हाम के रूप में सामने आया:
“पैगंबर को यह शोभा नहीं देता कि यह स्पष्ट हो जाने के बाद कि उनकी जगह धधकती हुई आग में है, वह किसी बहुदेववादी के लिए क्षामायाचना करें, वह सगा रिश्तेदार ही क्यों न हो। इब्राहिम ने भी अपने पिता के लिए क्षमायाचना की थी क्योंकि उन्होंने भी उनसे इसका वादा किया था, लोकिन जब उनकी समझ में आ गया कि वह अल्लाह के दुश्मन थे तो उन्होंने उनसे कोई नाता नहीं रखा। इसमें तो कोई शक ही नहीं कि इब्राहिम बहुत कोमल हृदय के थे। ” सूरा तौबा, 113-114. [[1]]
[[1]] It is not (fit) for the Prophet and those who believe that they should ask forgiveness for the polytheists, even though they should be near relatives, after it has become clear to them that they are inmates of the flaming fire.[9.113]
And Ibrahim asking forgiveness for his sire was only owing to a promise which he had made to him; but when it became clear to him that he was an enemy of Allah, he declared himself to be clear of him; most surely Ibrahim was very tender-hearted forbearing.[9.114]
इसकी मनाही इसी सूरे में इससे पहले भी है। सलाह दी गई थी कि ““ऐ ईमान लाने वालो! अपने बाप और अपने भाइयों को अपना मित्र न बनाओ यदि ईमान के मुक़ाबले में कुफ़्र उन्हें प्रिय हो। तुममें से जो कोई उन्हें अपना मित्र बनाएगा, तो ऐसे लोग अत्याचारी होंगे। [9.23]
अबू तालिब को तो अभी तक जहन्नुम रसीद नहीं हुआ, यह दावा हम कर सकते हैं, क्योंकि कयामत का दिन अभी तक नहीं आया, आगे भी नहीं होगा, क्योंकि विज्ञान ने अल्लाह का घर ही उजाड़ दिया, परंतु अबू तालिब के गुजर जाने के बाद मक्का में मुहम्मद साहब का जीना अवश्य मुहाल हो गया।
अब अपने ही परिवार के लोग जो अबू तालिब के जीवन काल में उनके साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़े हो जाते थे, उनका साथ छोड़ कर मक्का वासियों के साथ दिखाई दे रहे थे। यदि मोहम्मद साहब की नजर में वे विधर्मी थे तो उनकी नजर में मोहम्मद साहब विधर्मी थे। हम धर्म श्रद्धा से नहीं, औचित्य के आधार पर वस्तुस्थिति को समझना चाहते हैं, इसलिए स्वीकार्यता या तो संख्या बल के आधार पर तय होती है अथवा तार्किक आधार पर। बहुदेववाद को मानने वालों के बीच मोहम्मद के समर्थकों की संख्या नगण्य थी। तार्किक आधार परंपरा का था, या परिणाम का । परिणाम यह था कि मक्का वासियों को मोहम्मद जिन बातों का डर दिलाया करते थे उनसे उनका कुछ नहीं बिगड़ा था, जबकि मोहम्मद के अनुयायियों की हालत दयनीय थी। अल्लाह पर देव वादियों के देवता और देवियां भारी पड़ रही थी। इसलिए मोहम्मद के अपने कुनबे का असहयोग स्वाभाविक था।
sooth the Infidels are absorbed in pride, in contention with thee…..And they marvel that a warner from among themselves hath come to them; and the Infidels say, “This is a sorcerer, a liar: SURA XXXVIII.–SAD. 1
परंतु इस बात पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए कि अबू तालिब तक के लिए क्षमा याचना से मुकरने और नरक यातना का विचार और इलहाम के रूप में इसका प्रकट होना उस हताशा का परिणाम तो नहीं।
कठिन से कठिन परिस्थितियों में मुहम्मद का मनोबल बनाए रखने वाली खादिजा के अभाव में उनकी व्यग्रता और बढ़ गई थी। वह बहुत चिंतित रहने लगे। रौदतुल अहबाब के अनुसार खादिजा की मौत के कुछ महीने बाद जब एक मित्र ने सुझाया, “आप फिर से घर क्यों नहीं बसा लेते?उन्होंने कहा, किसके साथ? उसने सुझाया यदि आप किसी बेवा से शादी करना चाहते हैं तो अबीसीनिया में शहीद हुए बंदे की विधवा सऊदा है, और यदि किसी कुंवारी से शादी करना चाहते हैं तो अबू बक्र की लड़की आयशा है। मोहम्मद ने कहा तुम्हारी बात ही सही, मैं दोनों से निकाह करना चाहूगा।
50 साल के मुहम्मद ने एक और तो 40 साल की सऊदा से विवाह किया, दूसरी ओर 6 या 7 साल की आयशा से । मोहम्मद साहब ने 15 शादियां कीं। इनकी अपनी समस्याएं भी थी, हम जिनके विस्तार में नहीं जाना चाहते। यह एक जटिल समस्या है, और इसका मजाक नहीं उड़ाया जा सकता है। इतिहास में सत्य की खोज करने वालों को सीता के चरित्र पर विचार करने के साथ मोहम्मद साहब के चरित्र पर विचार करना चाहिए था। एक गल्प है, दूसरा इतिहास का सच, परंतु ऐसा सच जिसमें कुछ विचलनें तो हैं, परंतु इनके साथ जिम्मेदारी का एक बोध भी है, जिसे समझने के लिए धैर्य और संवेदनशीलता की अपेक्षा होती है। इसका मखौल उड़ाने वालों ने उस पक्ष पर ध्यान नहीं दिया।
जो भी हो, मक्का में रहना दुश्वार हो गया था। इसलिए मोहम्मद ने मक्का छोड़कर तैफ में पनाह लेने का निश्चय किया। सोचा वहां मक्का वालों जैसी दुर्भावना का सामना नहीं करना पड़ेगा। तैफ के लोग कुरेशियों से खार खाते थे। परंतु वे भी देवोपासक थे, और जब मुहम्मद ने अपने मत का प्रचार करना चाहा तो उन्होंने उन पर पत्थर मारे। वह घायल हो गए और किसी तरह जान बचा कर वापस आए।