Post – 2019-06-04

#इल्हाम_और_जिहाद

मुझे संदेह है कोई हिंदू इलहाम और जिहाद का सही मतलब जानता होगा। इसे आप मेरे अज्ञान का विस्तार मान सकते हैं। मैं इलहाम का अर्थ अंतःप्रज्ञा या अंतरानुभूति या पूर्वानुभूति मानने की गलती करता रहा हूं।

जिहाद के नाम पर जो कुछ हुआ और जो किया जाता है उससे जो धारणा बनती है उसे ही हम इसका अर्थ समझ लेते हैं। जिहाद इस्लाम-पूर्व की अवधारणा है, जैसे रमजान के महीने की तपश्चर्या और प्रायश्चित्त/ आत्मशुद्धि की प्रथा पुरानी है। तब जिहाद का अर्थ था, आत्मशुद्धि को अमल में लाते हुए अपने मनोविकारों पर विजय प्राप्त करना। इंसानियत के लिए नेक काम (दान-पुण्य) करना। यह भारतीय आत्मविजय, इंद्रिय विजय का अरबी संस्करण था।

इस्लाम के बाद इसका अर्थ बदल कर जहालत में पड़े हुए लोगों को अल्लाह के रास्ते पर लाने के लिए जो कुछ भी करना पड़े करते हुए एक भला काम करना। इस आवेश में जितने नरसंहार, जिसने युद्ध, जितने बलात्कार, जितने फरेब, जितने विश्वासघात, किए गए सभी पवित्र काम थे और जिहाद को अपने अनुभव से हम इसी रूप में जानते हैं।

नेक दिल समझे जाने वाले भारतीय मुसलमान समझाते हैं, नहीं साहब, जिहाद बुरी चीज नहीं है, ये लड़के इसका मतलब नहीं समझ पाते। वे तफसील में जाकर बताते हैं जिहादे-अकबर और जिहादे-असगर का भेद , परंतु यह भुला देते हैं कि आत्मविजय और पुण्य का काम जाहिलिया के दौर का आचरण था जिसे मुहम्मद साहब ने उलट दिया, और जिस रूप में अमल में लाए, उसी रूप में वे अमल में लाते हैं जिन्हें वे सार्वजनिक रूप से सिरफिरा बता कर इस्लाम के प्रति सहानुभूति पैदा करते हैं, और आंतरिक संवाद में मानते हैं कि वे ऐसा कुछ नहीं कर रहे हैं जो मुहम्मद साहब के आचरण के विरुद्ध हो, और इस तरह सार्वजनिक रूप में जिसकी निंदा करते हैं, आपसी संवाद में यह जानते हुए कि तरीका गलत है, इससे परहेज किया जाना चाहिए, उसे गलत नहीं ठहरा पाते, और यदि उनकी संतानों में कोई इस राह पर निकल जाए तो उसे समझा नहीं पाते कि वह गलत रास्ते पर जा रहा है। वे यह भी नहीं समझ पाते कि जिसे वे आदर्श जिहाद कहते हैं, वह उस आदर्श अवस्था में अमल में लाया जाता था जिसे वे जाहिलिया कहते हैं, और उसे यह प्रेरणा भारतीय तपश्चर्या/ आत्म शुद्धि/ प्रायश्चित और आत्मविजय और दान-पुण्य से मिली हो सकती है।

जिस तरह का घालमेल जिहाद के मामले में हुआ, उसी तरह का घालमेल इलहाम के मामले में हुआ, क्योंकि, आत्मा, अंतः चेतना, अंतः प्रज्ञा की अवधारणा सामी जगत में नहीं थी। (जारी)