Post – 2019-06-06

भारत की भाषा नीति और हिंदी

मैं बहुत संक्षेप में अपना मत रखना चाहूंगा:
1. मुझे विश्वास नहीं था की वर्तमान सरकार सांस्कृतिक मोर्चे पर कोई सार्थक कदम उठा पाएगी। इसलिए यह जानकर आश्चर्य हुआ पिछले 3 साल से वह शिक्षा नीति पर गंभीरता से विचार कर रही थी।

2. त्रिभाषा सूत्र दुबारा चर्चा के केंद्र में है। त्रिभाषा सूत्र पर गंभीरता से काम नहीं किया गया। यह आसान काम नहीं है। इसके लिए जिस बड़े पैमाने पर दक्षिण भारत की भाषाएं जानने वाले उत्तर भारतीय विशेषकर हिंदी प्रदेश के लोग तथा उत्तर भारत की भाषाएं जानने वाले दक्षिण भारतीयों की आवश्यकता थी वह कभी तैयार नहीं की गई। उसके सुचारु प्रबंधन के लिए इस योजना पर , चुनौती के अनुरूप, बजट प्रावधान की अपेक्षा थी। वह नहीं किया गया।

3. आज जब रोजगार के नए अवसरों की कमी है इस पर बजट प्रावधान करके दसियों लाख लोगों को काम दिलाया जा सकता है और इस समस्या का सामना करने की इच्छाशक्ति दिखाई जा सकती थी। अभी तक यह सूत्र किसी भारतीय भाषा को राष्ट्रभाषा बनने से वंचित रखने, और अंग्रेजी को अनंत काल तक सरकारी भाषा बनाए रखने के लिए एक भ्रम जाल सा था। कभी किसी ने नहीं चाहा इस पर अमल किया जाए।

4. मोदी के कारण कुछ ऐसी चीजें सचमुच मुमकिन हुई हैं जिनके वादे किए जाते थे पर पूरा नहीं किया जाता था। इनमें एक रैंक एक पेंशन का प्रस्ताव भी था, जो इतने भारी धन की अपेक्षा रखता था कि कभी किसी ने पूरा नहीं किया। मोदी ने अल्पतम समय में इसे कर दिखाया। मैं यहां पहले असंभव मानी जाने वाली और मोदी के द्वारा कार्य रूप में परिणत की जाने वाली योजनाओं की तालिका देना नहीं चाहता, परंतु मोदी है तो मुमकिन है के नारे को देश ने चुनावी लफ्फाजी नहीं माना। विश्वास के स्तर पर यह जीत राजनैतिक सत्ता की जीत से कहीं बड़ी है। इसलिए मैं मांगता हूं मोदी हैं तो त्रिभाषा फार्मूले पर अमल भी मुमकिन है।

5. इसमें एक नया पहलू जुड़ गया है कि दक्षिण के लोगों के लिए हिंदी को अनिवार्य भाषा न रख कर वैकल्पिक भाषा बनाया जाना चाहिए। इस पर कुछ लोगों ने अपनी चिंता और यह आशंका प्रकट की है कि इस तरह हिंदी कभी राजभाषा नहीं बन पाएगी।

6. तमिलनाडु की राजनीति हिंदी विरोध पर पलती रही है। वहां के दोनों दल त्रिभाषा फार्मूले के पुराने रूप का विरोध करने के मामले में एक दूसरे से आगे बढ़ने के प्रयत्न में इसे पहले से भी अधिक उग्र बनाएंगे, इसमें कोई संदेश नहीं। किसी चीज को अनिवार्य बना कर उसे लोकप्रिय नहीं बनाया जा सकता। इसलिए अनिवार्यता ऊपर से थोपने का पर्याय है। तमिलनाडु की राजनीति इसी का लाभ उठा सकती है। अनिवार्यता समाप्त करके उनको उत्तर दिया जा सकता है।

7. प्रकाश जावडेकर का यह कथन कोई चीज थोपी नहीं जाएगी, दूरदर्शिता पूर्ण है। इसी दशा में विभाषा सूत्र पर काम किया जा सकता है। त्रिभाषा अनिवार्य, सभी को तीसरी भाषा के रूप में किसी भी भारतीय भाषा को सीखने की पूरी छूट हो, परंतु त्रिभाषा के सिद्धांत से हटने की छूट नहीं । अनिवार्यता हट जाने के बाद, परिणाम हिंदी को अनिवार्य बनाने से अधिक सुखद होंगे, यह मेरा विश्वास है। यदि कोई एक भारतीय भाषा सीखनी ही है तो वह कौन सी हो तो अधिक लाभ होगा, यह निर्णय बहुत आसान है। इसके बहुत कम अपवाद सामने आएंगे और वे भी बहुत इष्टकर होंगे।

8. सबसे पहले इसकी तैयारी अर्थात् इसके लिए अपेक्षित संख्या में शिक्षक उपलब्ध हो सकें इस दिशा में काम करना होगा । यह भी कौशल विकास जैसा ही चुनौती भरा कार्य है।

भारत सरकार ने इस बीच लोगों के मत जानने के लिए अपना दरवाजा खोल रखा है। यदि आप इससे सहमत हों तो स्वयं ऐसा सुझाव सरकार को भेजें या इसे अपनी पोस्ट बनाकर दूसरों को फारवर्ड करें। मोदी है तो मुमकिन है, क्योंकि उसे कम से कम 29 तक रहना है। समय भी है। संकल्प भी है।