#साहित्यकार_का_स्वाभिमान और इतिहासकार का दायित्व
बुद्धिजीवी की कोई एक भूमिका नहीं होती – शिक्षक और पत्रकार के रूप उसकी एक भूमिका होती है जिसमें उसका काम जानकारी देना होता है। कलाकार के रूप में वह अन्य बातों के साथ अपने समय के चरित्रों को चित्रित, अभिनीत या मूर्ति कर सकता है। संगीतकार और साहित्यकार के रूप में उसके क्षेत्र की स्वायत्तता इतनी पवित्र होती है कि अपनी भावनाओं को छोड़कर किसी के सम्मुख न झुक सकता है न उसकी प्रशस्ति कर सकता है । ऐसा करते ही वह बंदी जनों की कतार में खड़ा हो जाएगा । एक समय था, जब ईश्वर और देवताओं को छोड़कर किसी अन्य का गुणगान किया ही नहीं जा सकता था। देवताओं के समकक्ष इतिहासपुरुष या युग नायक भी हुआ करते थे। उन्हें यह महिमा जनता प्रदान करती थी जिसके गायन, कथन आदि से उसकी छवि उत्तरोत्तर ऊपर उठती हुई देवोपम हो जाया करती थी। सौंदर्य चेतना के विकास के साथ दुखी और अन्याय और अत्याचार के शिकार मनुष्य को वही महत्त्व प्राप्त हो गया जो देवताओं और जननायकों को प्राप्त था।
इतिहासकार की भूमिका और दायित्व इन सभी से अलग है। उसके लिए ऐसी कोई भी परिघटना जो हमारे सामाजिक, आर्थिक और आत्मिक जगत को बड़े पैमाने पर आंदोलित करता या बदलती है, वह भली हो या बुरी, कल्याणकारी हो या अनिष्टकारी; मनुष्य द्वारा, मनुष्यों के दल के द्वारा की गयी हो या प्राकृतिक कारणों से घटित हुई हो, या अकर्मण्यता, भ्रष्टता या विलासिता से उत्पन्न शून्य के कारण अपरिहार्य हो गयी हो। इतिहासकार के लिए घटना या क्रिया, और कारक (जीवन और व्याकरण दोनों में छह कारक होते है) और परिणाम का महत्त्व होता है, नैतिक मूल्यों के लिए उसके क्षेत्र में जगह नहीं होती। वह वर्णन करता है, मूल्यांकन नहीं करता।
मैं फेसबुक पर सामान्यतः इतिहासकार के रूप में उपस्थित रहता हूं । इसके बाद भी मैं जिस बिरादरी का सदस्य हूं वह बुद्धिजीवियों की साझी बिरादरी है, जिसका एक साझा स्वायत्तता का क्षेत्र है, जिसमें वह अपने अधिकारों की मांग करता है और किसी की दखलंदाजी का विरोध करता है, जिसके भीतर स्वायत्तता के कई उपक्षेत्र हैं, जिनकी न तो इन क्षेत्रों के लोगों को स्पष्ट समझ है, न उनका सम्मान करते हैं। समझ के स्तर पर भारतीय बुद्धिजीवियों में गिरावट इतनी जाहिर है कि बुद्धिजीवी अपने को सही साबित करने के लिए अनुभव और दृष्टिकोण की बात नहीं करते, सूक्तियां दोहराते हैं जो यदा कदा देसी पर सामान्यतः विदेशी होती हैं और उन पर सही उतरने का प्रयत्न करते हैं। सोचने समझने से इससे इतना आराम मिल गया है कि हासिल करने को ख्याति ही बची रहती है।
साहित्य क्या है ? समाज का दर्पण है। प्रेमचंद ने कहा था तो गलत कैसे हो सकता है ! साहित्यकार क्या है? राजनीति के आगे चलने वाला मशाल है। साहित्यकार क्या होता है? वह प्रगतिशील होता है।
ये विचार वह कहां प्रकट कर रहे थे? 1936 के पहले प्रगतिशील सम्मेलन के अवसर पर। क्या वह पहले से प्रगतिशील संघ के सदस्य थे? नहीं। प्रगतिशील संघ क्या था, समाजवादी या साम्यवादी सोच के साहित्यकारों का जमघट। अपनी प्रतिष्ठा के लिए प्रगतिशील संघ से जुड़े हुए लोगों के आग्रह पर वह उसमें शामिल होने के लिए तैयार हो गए और वह भाषण दिया। प्रगतिशील लेखक लेखक संघ के संयोजकों का लक्ष्य था प्रेमचंद को समाजवादी और साम्यवादी राजनीति का हिस्सा बनाना। इसका वे लगातार लाभ उठाते रहे और यह सिद्ध करते रहे कि प्रेमचंद ने अपनी बौद्धिक विकास यात्रा के अंतिम चरण पर साम्यवाद को स्वीकार कर लिया था। उनके उक्त कथन को इसका प्रमाण बनाया जाता है।
प्रेमचंद के जुमले हमारी सोच समझ की समस्याओं का बेड़ा पार कर देते हैं। प्रेमचंद के कथन निठल्ले मार्क्सवादियों के लिए नजर का काम नहीं करते, नजीरो का काम करते हैं। ऐसी उक्तियों का संग्रह कर दिया जाए तो वह गुटका प्रगतिशील साहित्यकारों का कुरान बन जाए। दिमागी ठहराव का ऐसा नमूना कहीं नहीं मिलेगा जैसा प्रगतिवादी सोच विचार में देखने में आता है । प्रगतिशील भारतीय लोकतंत्र में व्यक्ति की स्वतंत्रता की बात रखते हैं और अपने संगठनों में सोचने तक की स्वतंत्रता को सहन नहीं कर पाते। हम इसके लिए उनको दोष नहीं देते । संगठनों की मजबूरियां हुआ करती हैं परंतु या तो स्वीकार करना ही होगा कि बौद्धिक मामले में बंदी होते हैं। स्वतंत्रता को किन परिस्थितियों में, किन सीमाओं में, किन जिम्मेदारियों के साथ, किन कुर्बानियों के बाद प्राप्त किया जाता है इसका बोध भी उनके भीतर नहीं पाया जाता।
पहले हमें प्रेमचंद को समझना होगा, और फिर यह समझना होगा प्रेमचंद साहित्य के धर्म शास्त्र नहीं है। उन्होंने जो कुछ कहा उसके पीछे उनका चिंतन था और जिस रूप में कहा वह बिल्कुल सटीक हो पाया हो यह जरूरी नहीं। उदाहरण के लिए जैसे साहित्य से समाज ही गायब हो सामाजिक यथार्थ ही गायब हो तो वह साहित्य नहीं है। उन्होंने इसके लिए दर्पण का प्रयोग किया। दर्पण केवल दिखाता है दृष्टि नहीं देत। साहित्य दृष्टि भी देता है, दृश्य और परिदृश्य को बदलता भी है। वह एक साथ आईना भी होता है, सूक्ष्मदर्शी भी होता है और दूरबीन या दूरदर्शी होता है।
जब वह कह रहे थे साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल होता है तो राजनीतिज्ञों के सामने झुकने या उनके द्वारा सुझाए गए रास्ते पर चलने से इंकार कर रहे थे, जबकि प्रगतिशील लेखक संघ राजनीति के पीछे चलने की बात कर रहा था।
प्रेमचंद ने कहा कि साहित्यकार होता ही प्रगतिशील है तो वह कह रहे थे कि तुम उसकी प्रगतिशीलता को कम करके किसी राजनीति का बंधक बनाना चाहते हो। प्रेमचंद लेखक के लिए विचारधारा से जुड़े हुए बंधन का निषेध कर रहे थे।
भूमिका लंबी हो गई। स्वभाव की विवशता। परंतु इससे यह तो पता चल ही गया ही गया कि बौद्धिक आलस्य के कारण न तो हम सोच पा रहे हैं, न जिसे आप्त मान कर उद्धृत करते हैं, उसे देश काल, परिस्थिति और पृष्ठभूमि के संदर्भ में समझ ही पा रहे हैे। अपना काम करने की जगह जो कुछ दे सकते हैं उनके पीछे लगते हुए नारे लगाते हुए उसे पाने की आकांक्षा में उनके चाकर का काम कर रहे हैं, और इसकी क्षतिपूर्ति करने को मसीहाई अंदाज में बात भी कर रहे हैं ।##