Post – 2019-05-21

सभ्यता का विकास और जाहिलिया की अवधारणा-2

यदि पाश्चात्य अध्येता अन्य सभ्यताओं के उदात्त पक्षों का सही मूल्यांकन नहीं कर सके तो उनसे शिकायत नहीं। बुद्धिमान से बुद्धिमान मनुष्य पूर्वाग्रहों के कई आवरण में घिरा होता है। उन से मुक्त होने के प्रयत्न के बाद भी वह मुक्त नहीं हो पाता। महान लोग भी अनेक मानदंडों पर पूरे नहीं उतरते। इस दिशा में वे निरंतर सचेत और प्रयत्नशील रहे, यही अपने आप में सराहनीय है। कई बार तो ये अपेक्षाएँ भी अंतर्विरोधी होती हैं। वीरता, मूढ़ता और क्रूरता में अंतर करना कठिन हो जाता है। अनुपात, परंपरा और परिवेश की भिन्नता से गुण दुर्गुण में बदल सकता है।

पश्चिमी जगत ने हाल की सदियों में सभ्याचार की दिशा में भी अभूतपूर्व प्रगति की हैं। इसके बाद भी दबंगई की लालसा उनके विवेक पर भारी पड़ती रही है। इसके कारण जितनी विस्मित करने वाली उसकी उपलब्धियाँ हैं, उतनी ही विस्मयकारी, उन्हीं क्षेत्रों में उसकी विफलताएं भी हैं।

ध्यान दें कि लूटपाट और शोषण के लंबे दौर में हासिल की गई भौतिक संपन्नता के बाद, हाल के दिनों में, जीवों-जंतुओं के प्रति, किसी अन्य समाज की तुलना में अधिक संवेदनशील तथा अभाव और दुर्भिक्ष निवारण के लिए किसी भी देश की सहायता को तत्पर समाज, मनुष्यता का संहार करने वाले हथियारों का उत्पादन करता है। हथियार बेचने के लिए, दुनिया के उन्हीं विपन्न देशों में कूटनीतिक जोड़-तोड़ से फसाद पैदा करते हुए उन्हें आपस में लड़ाने, उन पर स्वयं भी सीधे प्रहार करने, उनकी लोक-कल्याणकारी विरासतों और आधुनिक निर्मितियों को नष्ट करने को अपनी कूटनीतिक और सामरिक उपलब्धि मानता है। उन्हीं को अधिक कंगाल, बीमार और भुखमरी का शिकार बनाने में संकोच नहीं करता, जिन पर तरस खाकर आँसू बहाता है। अन्य प्राणियों की पीड़ा से पसीजने वाले समाज की मनुष्य के प्रति क्रूरता मध्यकाल के दुर्दांत सभ्यता-द्रोहियों से किस मानी में कम है? सभ्यता द्रोही सभ्य और सदाचारी कैसे हो सकता है? प्राणियों पर दया और आहार के लिए उनका वध एक साथ कैसे चल सकता है? ऐसे में चालाक लोग अपने बचाव के लिए परिभाषाएं और जीत के लिए खेल के नियम बदल दिया करते हैं। मनुष्यता को शैतानों से नहीं, गलत परिभाषाओं से लड़ना पड़ता है।

ध्यान दें कि फासिस्ट और नाजी मनुष्य को, एक छलांग में, महामानव की ऊंचाई तक ले जाना चाहते हैं और पैशाचिकता की नई परिभाषा गढ़ देते हैं। तथाकथित सभ्य समाज एक ओर तो उनके पैशाचिक कृत्यों की जोरदार भर्त्सना करते हुए अपने पापों से मुक्त और निष्कलंक सिद्ध करने का प्रयत्न करता है, दूसरी ओर निरूपाय समाजों और देशों के साथ उससे कई गुना जघन्य अपराध करता है और आज भी लगातार करता रहता हैं।

एक दूसरी व्याधि है पश्चिम की आधुनिक सफलता से पैदा हुई उन्मत्तता जिसके चलते वे सभ्यता के चरित्र की समझ ही भुला बैठे और इसे कभी रंग, कभी जाति, कभी देश या दिशा से और कभी एक साथ सभी से जोड़ कर देखने लगे। कोमेगर की पुस्तक ‘ The Empire of Reason[1] न पढ़ रहा होता तो मेरा ध्यान इस ओर न जाता, और इसकी पड़ताल करने की चिंता न करता। हम अपनी जानकारी और कार्य क्षेत्र के कुछ उदाहरणों से इसे स्पष्ट करना चाहेंगे। वे अपने मानदंडों पर भी खरे नहीं उतरते, सभ्यता के अनिवार्य मानदंडों पर भी विफल सिद्ध होते हैं ।
[1] कोमेगर अमेरिका की तुलना में यूरोप की उपलब्धियों को उसी तरह तुच्छ बना देते हैं, जैसे यूरोपीय विद्वान सभ्यता के उत्थान में एशिया के योगदान को तुच्छ सिद्ध करते रहे हैं. ”The Old world imagined, Invented, and formulated the enlightenment, the New World – certainly the Anglo-American part of it – realised it and fulfilled it. (The Empire of Reason – How Europe imagined and America Realised the Enlightenment, Preface, Anchor Pess, New York,1977).

उनकी समझ में यह तक नहीं आया कि कम से कम अपनी साख बचाने के लिए ही असंख्य अंतर्विरोधों से ग्रस्त, आर्यों की जाति, आर्यों के आगमन, आर्यों के आदि देश, आदि के विषय में परस्पर अनमेल दावों को देखते हुए, उल्टी सीधी बातें करना छोड़ देना चाहिए।

कि अकाट्य प्रमाणों से, जिनको नकारना उनके लिए भी संभव न रह गया, यह मान लेने के बाद कि आर्य विशेषण को आधार बनाकर रचा गया साहित्य काल्पनिक था वैदिक सभ्यता के स्तर के विषय में और संस्कृत भाषा के उद्गम क्षेत्र के विषय में भी अपना दृष्टिकोण बदल लेना चाहिए।

वे ऐसा नहीं कर सके क्योंकि वे अपनी धौंस जमाने के लिए लगातार धांधली से काम लेते रहे हैं और इसलिए इस बात की चिंता किए बिना ऐसी मूर्खतापूर्ण बातें करते, सुझाव देते, और एक झूठ के पकड़े जाने पर अदल-बदल कर दूसरे बहानों से उसे निर्लज्जता पूर्वक दोहराते रहे हैं, जो लाइलाज अपराधियों के मामले में ही देखने में आता है।

हम जाहिलिया पर विचार कर रहे हैंं और इस विस्तार में जाना इसलिए जरूरी हुआ यह स्पष्ट किया जा सके कि बौद्धिक, आत्मिक और भौतिक प्रगति के बाद भी, प्रत्येक समाज अपने ही भीतर के कुछ लोगों के स्वार्थ के कारण अंतर्विरोधों से इतना ग्रस्त रहता है कि एक भिन्न दृष्टि से विचार करने पर उसे जाहिल सिद्ध किया जा सकता है और लगातार किया जाता रहा है। अपनी श्रेष्ठता के लिए दूसरों को जाहिल कहने की जरूरत इब्राहिमी मजहबों को इसलिए हुई कि वे स्वयं जहालत से ग्रस्त थे। आगे बढ़ने के लिए पश्चिम एशियाई भारतीयों से युनानियों की तरह दर्शन, साहित्य, ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में अनुकरण या शिक्षा ग्रहण करने की जगह धर्म और विश्वास के क्षेत्र में उनके समकक्ष आने की कोशिश की। उन्होंने उनकी प्रेरणा से एक नए मजहब का सूत्रपात किया जो न तो उनकी परिस्थितियों की उपज था, न ही जरूरत, इसलिए किसी भी पक्ष को न तो सलीके से ग्रहण कर सके, न ही जिन्हें ग्रहण किया उनका निर्वाह कर सके। उन्होंने सभ्य होने की जगह एक तरह की जहालत को दूसरे तरह की जहालत से बदल दिया।

भारत में मूल्य व्यवस्था और विश्वास दो स्रोतों पर आधारित था। एक सामाजिक आर्थिक गतिविधियों के क्रम में अनेक आदिम विश्वासों वाले समुदायों का जुड़ाव, जिन्हें अपने विश्वास के अनुसार जीने की छूट थी ।इसके कारण प्रकृतिवाद, बहुदेववाद, पितृपूजा को स्थान मिला। दूसरा था कृषिक्रांति की अपेक्षाओं के अनुसार नए मूल्यों और आदर्शों की स्थापना जिममें कुछ पुराने मूल्यों को भी जगह मिली। इसके साथ ही लेन-देन का चलन (बार्टर या वस्तु विनिमय) के साथ यह समझ पैदा हुई कि कुछ पाने के लिए उसके बदले में कुछ देना होता है। इसमें प्राकृतिक शक्तियों का अनुग्रह पाने के लिए उनको तो तुष्ट करने के लिए देवभाग अर्पित करने की परिपाटी आरंभ हुई जिसने कर्मकोंडीय यज्ञ विधान का रूप लिया।
इस आधारभूमि के ऊपर अमूर्त चिंतन और तत्वदर्शन का आटोप खड़ा हुआ । अब सृष्टि, स्रष्टा, जीवन का रहस्य, मरणोत्तर जीवन आदि के विषय में ऊहापोह आरंभ हुआ जिसमें सामाजिक, न्यायिक, व्यावहारिक समस्याओं के समाधान की भी कड़़ियां जुड़ीं। भारतीय समाज इन सभी अवस्थाओं से गुजर चुका था उसके बाद एशिया में उसकी धाक जमी। भारत में इन सभी पक्षों को देखा, पहचाना और विश्लेषित किया जा सकता है, इब्राहिमी परिवेश और प्रभाव में सब कुछ घालमेल की अवस्था में है।
जाहिलिया की अवधारणा भी यहीं आरंभ हुई जिसमें कृषि उत्पादन न अपनाने वालों को, इसमें बाधा डालने वालोें, खड़ी खेता को नोच खसोट जाने वालों को मूर (मूढ़), अकर्मा, दस्यु, आदि कह कर निंदा की जाती रही और उन्हें धर्म बदलने के लिए नहीं जीविका का साधन बदलने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित किया जाता रहा।