#मुस्लिम_समाज और #नेतृत्व_का_संकट -7
हमने बहुत सलीके से तो नहीं, फिर भी अब तक जो चर्चा की है उसका सार यह है नेतृत्व का एक पर्यावरण होता है जिससे उसकी शक्यताएं जुड़ी होती है। इसका एक पक्ष है समाज की समझ और उस की बाध्यकारी अपेक्षाओं की पहचान।
समाज एक जटिल संरचना है जिसकी पूरी समझ किसी को नहीं हो सकती। इसके बावजूद अपने परिवेश की जानकारी के बल पर हम यह भ्रम पाल लेते हैं कि हम अपने समाज को तो जानते ही हैं ।
यहां मैं उन लोगों की बात कर रहा हूं, जो अपने समाज का अंग बन कर रहते हैं, उनकी नहीं जो सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और पदीय दृष्टि से ऊंचे दर्जों पर होने के कारण, न केवल अपने को शेष समाज से काट कर रखते हैं, अपितु आपसी स्पर्धा के कारण एक दूसरे से भी बिना दुराव के मिल नहीं पाते फिर भी दूसरों से बढ़कर दावा करते हैं कि वे सुशिक्षित होने के कारण अपने समाज को अधिक अच्छी तरह जानते हैं जबकि । वे अपने ही समाज के अजनबी होते और अजनबी बने रहने पर गर्व भी करते है।
कुछ और आगे बढ़ें तो पाएंगे, वे अपने लिए भी अजनबी बने रहते हैं, और आत्मनिर्वासन की अनुभूति से ग्रस्त रहते हैं । ऐसे लोग अपने किताबी पांडित्य के कारण आतंकित भले करें, वस्तुतः सूचनाओं का गोदाम होने के बावजूद वे कुछ नहीं जानते। उन्हें अपने देश की, अपने समाज की, और उस समाज में अपनी भूमिका की खोज करनी पड़ती है, परंतु उनके चरित्रगत आभिजात्य के कारण यह खोज भी, इकहरी और अधूरी रह जाती है। वे अपनी सारी कोशिशों के बावजूद अपने समाज से एकात्म्य स्थापित नहीं कर पाते। प्रकृतिस्थ नहीं हो पाते। उनकी जानकारी हमारे काम की नहीं होती; हमारी जानकारी को वे तुच्छ समझते हैं। समाज का सबसे अनिष्ट ऐसे ही लोगों के द्वारा होता है।
समाज को समझने के लिए, सच कहें तो किसी को समझने के लिए, हमें अपने मन को उसके अनुसार ढालना होता है। हम हठ और अहंकार के साथ अपने स्वजनों को भी नहीं समझ सकते, समाज और दुनिया को समझना दूर की बात है। समाज में सहज भाव से मिलना, समझदार लोगों को अपनी तौहीन प्रतीत होती है। उनके प्रति आदर रखना, उनको समझने का प्रयत्न करना, और इसके लिए उनकी जड़ों की खोज करना, उस महा-प्रयोगशाला में उतरने की मांग करता है जिसे इतिहास कहते हैं। परंतु इस प्रयोगशाला में पहुंचने की इस प्राथमिक योग्यता के बिना, अपने ज्ञानदंभ के कारण वे बौद्धिक आतताई की तरह प्रवेश कर सकते हैं, उसमें मनचाही उलट फेर कर सकते हैं, परंतु उनको वह त्रिकालभेदी दृष्टि मिल सकती है जो समर्पित भाव से इतिहास में प्रवेश करने वाले को मिलती है।
मोहम्मद साहब ने अपने इतिहास को समझने की जगह उसे नष्ट करने का प्रयत्न किया। यह एक ऐसी चूक थी जिसके लिए हम उनको दोष नहीं दे सकते क्योंकि आज से डेढ़ हजार साल पहले उनसे जो भूल हुई वह भूल तो मार्क्सवादी इतिहासकार आज भी लगातार करते हैं। इसे आप एक अच्छा सा नाम देते हुए चाहें तो क्रान्ति कह सकते हैं। इस्लामी और मार्क्सवादी इतिहास दर्शन में काफी समानता है। कौन किसका ऋणी है यह
बताने की जरूरत नही
शिंशुमार (डॉल्फिन) पानी से छलांग लगाता है, और कुछ समय तक आसमान में रह कर, कलैया मार कर फिर उसी पानी में गिरता है। हम इतिहास को उलट कर, अपने को समझा लेते हैं, कि पुराने इतिहास से मुक्त हो गए परंतु अंततः पाते हैं कि मात्र लिफाफा बदला है अंतर्वस्तु में अधिक अंतर नहीं आया।
विकास, प्रगति, छलांग, और क्रांति यह इतिहास के औजार हैं। छोटे पैमाने से लेकर बड़े पैमाने तक, सचेत और अचेत रूप में, ये सक्रिय रहते हैं। हम इतिहास को मनुष्य की जय यात्रा के रूप में देखते हैं, इसलिए यह याद रखना चाहते हैं कि सत्य के साथ असत्य की सत्ता की तरह, इतिहास के साथ अनितिहास के भी दौर आते हैं जिनमें ठहराव, पिछड़ापन, या पुनरुत्थान वाद को औजार बनाया जाता है। यह किसी समाज के पराजयबोध जनित आत्मरक्षा के उपाय होते हैं, जिनके महत्त्व को, पराजित समाजों के संदर्भ में, कम करके नहीं आंका जा सकता, परंतु ये तरीके उसे मिटने से भले बचा लें, पिछड़ने से नहीं बचा पाते। पहले की अपेक्षा अधिक निरूपाय होने से नहीं बचा पाते।
रोचक बात यह है कि कई बार इतिहास और अनितिहास एक ही समाज में, या कहें सभी समाजों में, किसी न किसी रूप में सत्य में मिले झूठ और झूठ में मिले सच की तरह एक साथ विद्यमान होते हैं । क्या आपने इस बात पर ध्यान दिया कि ब्रिटेन और अमेरिका अधिकांश दृष्टियों से अग्रणी होने के बाद भी माप और तौल में दाशमिक प्रणाली नहीं अपना सके क्योंकि इसका आरंभ फ्रांस ने किया था जिससे ब्रिटेन की शत्रुता थी और अमेरिका कनाडा ऑस्ट्रेलिया आबादी के मामूली हेरफेर के बावजूद ब्रिटेन की परंपरा से जुड़े हुए हैं। स्वाभिमान की रक्षा इतनी बड़ी कीमत देकर वैज्ञानिक युग में यदि की जाती है, तो जो समाज वैज्ञानिक युग में प्रवेश न कर सके उन्हें कैसे दोष दे सकते हैं?
छोटे पैमाने की क्रांतियां अक्सर क्रांति मानी ही नहीं जातीं, जबकि पैमाना छोटा होने के कारण उन को नियंत्रित करने के औजार हमारे पास होते हैं इसलिए वे हमेशा अपने प्रयोजन में सफल होती है। स्वतंत्र भारत में आपने कितनी क्रांतियां की हैं और किनको कांति की संज्ञा दे पाए हैं? गांधी ने मशीनीकरण के विरुद्ध एक सुविचारित क्रांति की थी जो प्रतिक्रांति जैसी प्रतीत हो सकती है। इसके बीज हमारे इतिहास में थे। इसके जनक भारतेंदु हरिश्चंद्र थे, वाहक बंगाल के विप्लववादी थे, परंतु मैं इसे गांधी के साथ इसलिए जोड़ना चाहता हूं कि गांधी के पास इसका पूरा दर्शन था। लेने को तो उन्होंने अपने सारे औजार, अपनी परंपरा से ही लिए थे और मौलिक होने का कोई प्रलोभन उनके मन में कहीं नहीं था।
गांधी का दर्शन स्पष्ट था। जब तक मनुष्य का पेशीय बल प्रयोग में नहीं आता है, और इसके कारण उसे अभाव से गुजरना पड़ता है, तब तक मनुष्य की रोटी छीन कर मशीन को खिलाने, और मनुष्य को भूखा रखने वाली व्यवस्था मानववादी हो ही नहीं सकती। यह कुछ लोगों के कभी तृप्त न होने वाले लोभ को उत्तेजित करके कुछ लोगों के लिए वैभव तो ला सकती है, वंचित समाज का और प्रचुरता से अघाए हुए लोगों का अपमानवीकरण तो करेगी ही।
गांधी आज की सभी समस्याओं का समाधान स्वावलंबन से करना चाहते थे। प्रयोग के बिना उन्हें गलत नहीं कहा जा सकता, परंतु पूंजीवादी विकास के, जिसकी जड़ें भारी उद्योग में हैं, परिणामों को देखने के बाद
यह मानने का प्रलोभन पैदा होता है कि गांधी सही थे। छुआछूत की समस्या का गहरा संबंध क्या उन समुदायों से नहीं है जो श्रम से बचने का प्रयत्न करते रहे हैं और उसके कई तरह के बहाने निकालते रहे। पर्यावरण की समस्या हो, या विश्वशांति की, या पूंजीवादी विस्तार को नियंत्रित करने की, या प्राकृतिक संसाधनों का संयम के साथ उपयोग करने की, जिससे वे बहुत लंबे समय तक हमारे हित में प्रयोग में आ सकें हैं, और सब से ऊपर श्रम के सर्जनात्मक आनंद और आत्मिक उत्फुल्लता का जिसे हम उसी तरह भूल गए हैं जैसे नाव का सहारा लेने वाला तैराकी के आनंद को नहीं समझ पाता। मार्क्स और गांधी में कितनी गहरी
समानता है, मशीनीकरण से उत्पन्न अमानवीकरण के विरुद्ध दोनों कैसे एक ही भाषा में बात करते हैं यह सोच कर आश्चर्य होता है। मार्क्स का दुर्भाग्य है कि वह गांधी से पहले पैदा हो गए । गांधी का दुर्भाग्य है कि विश्व इतिहास में उनको समझने की मेरा रखने वाला अकेला व्यक्ति उनके बाद पैदा नहीं हुआ ।
आत्मावलंबन जनसंख्या के अनियंत्रित विस्फोट का भी उत्तर था। तुम अपनी कमाई से जानो कि तुम कितने बच्चों को पाल सकते हो, उसी के अनुरूप अपनी संतानों की संख्या निश्चित करो।
गांधी मोहम्मद साहब के विलोम हैं। उनसे अधिक जटिल। अधिक दूरदर्शी। मानवतावादी तो अधिक हैं ही। परंतु इतिहास की विडंबना है अपनी सीमित समझ के कारण लोग दूरदर्शी महान नेताओं को समझ नहीं पाते, और तात्कालिक समस्याओं का जज्बाती हल निकालने वाले समाज को कहां से कहां बहा ले जाते हैं ।
हमारी इस चर्चा में गांधी के लिए तो कोई जगह नहीं थी। विचार शृखला में कहां से कहां पहुंच गए और बीच की कई स्थापनाओं को, स्पष्ट करने से रह गए। क्या विडंबना है, इस उम्र तक लिखना नहीं आया और लिखने से बाज नहीं आता। क्षमहिं जे सहहिं प्रवाद।