वस्तुपरकता की अपेक्षा
वस्तुपरकता आत्मासक्ति से मुक्त होकर किसी घटना, क्रिया व्यापार, या वस्तु को देखने और समझने ही जरूरी मांग है। इसका आसान तरीका है अपने को दूसरों की नजर से देखना, और दूसरों को उनकी नजर से देखना। कहने में यह जितना आसान है, व्यवहार में उतना ही कठिन। ऐसा दावा करने वाले, प्रयत्न के बाद भी, इसे पूरी तरह प्राप्त नहीं कर पाते। परंतु वह सीमित लाभ उन्हें दूसरों से बहुत अलग और कुछ हद तक ऊपर उठा हुआ सिद्ध करता है। अपर के विचारों को अपनाकर हम इनके उन पहलुओं को देखने में समर्थ होते हैं जो हमारी नज़र से ओझल रह जाते हैं, कभी तो बार-बार देखते हुए उनको सामान्य रूप में देखने की आदत पड़ जाती है इसलिए, और कभी इसलिए कि अपने राग द्वेष के कारण उन्हें देखने का साहस नहीं जुटा पाते। इन दोनों के मेल से हम यथार्थ को पहले से अधिक अच्छी तरह समझ पाते हैं यद्यपि पूरी तरह समझने के लिए तो युगों का समय भी पर्याप्त नहीं होता असंख्य लोगों की दृष्टि भी पर्याप्त नहीं होती। यथार्थ बहुत जटिल है और इसकी जटिलता इस कारण भी दुर्बोध हो जाती है कि यह स्वयं भी लगातार बदलता रहता है और पहले के अनुभवों से तैयार किए गए हमारे औजारों को व्यर्थ करता रहता है।
यह इतनी घिसी हुई बात है कि इसे पढ़ते हुए आपको ऊब अवश्य हुई होगी, परंतु इसकी याद दिलाना किस लिए जरूरी हुआ, इसे भी आप जानते हैं।
एक व्यक्ति के रूप में मोहम्मद साहब की अनन्यता की स्वीकृति के बाद मेरी यह आलोचना कि वह अरब समाज को सही नेतृत्व प्रदान नहीं कर सके मेरे उस समय के अरब जगत के आकलन और उसकी मुख्य समस्या की मेरी समझ पर निर्भर करता है। अपने समय के दबाव में जो सबसे बड़ी समस्या प्रतीत हुई उसे हम बयान कर आए हैं फिर भी अपने पाठकों को समझाने में संभवत सफल नहीं हुए। अरब जगत में अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रकृति प्रदत्त साधनों का घोर अभाव था। उसकी अपनी सुगबुगाहट दूसरों की गतिविधियों से पैदा हुई थी जिनमें रोमनों की भूमिका सबसे प्रधान थी जिनका यूरोप के बाजार पर नियंत्रण था। उनकी अपनी गतिविधियां फीनीशियनों को निष्क्रिय बनाने के बाद तेज हुई थी। भारत के व्यापार की इसमें सबसे निर्णायक भूमिका थी, जिसके चार मार्ग थे दो स्थलमार्,. दो जल और स्थल मार्ग। प्रधान भूमिका फारस की खाड़ी और दजला फरात मार्ग की थी। नाम मात्र का व्यापार उस लंबे मार्ग से होता था जो लाल सागर के द्वारा स्वेज को पार करके भूमध्य सागर से जुड़ता था।
यह मार्ग भी बहुत पुराना था और लाल सागर के दोनों तटों पर कई जनों का दावा था। रोमन साम्राज्य के प्रभुत्वकाल में रोमन ओं का सीधा अधिकार उत्तरी लाल सागर तक ही था। रोमन साम्राज्य के कमजोर पड़ने और पतन के बाद भी रो मनो का हस्तक्षेप किसी न किसी रूप में पश्चिमी अरब की पट्टी पर बना हुआ था। ईसाइयत की प्रचंडता के दौर में यह परोक्ष नियंत्रण ईसाइयों के माध्यम से हुआ करता था। अरब कबीलों की आपसी प्रतिस्पर्धा को पारस्परिक कलह मैं बदलते हुए ईसाई पश्चिमी अरब पर एक प्रबल शक्ति बन चुके थे। ईसाइयत के दबाव की जो बात मैने की थी वह इसी संदर्भ में।
यदि मोहम्मद साहब को यह खतरा सबसे प्रधान मालूम हुआ और उन्होंने एक सिपहसालार की भूमिका अपनाते हुए अरबों को कठोर अनुशासन में संगठित करते हुए एक युगांतरकारी शक्ति में परिवर्तित किया तो यह मामूली उपलब्ध नहीं थी। संभव है जिस तरह के नेतृत्व को मैं आदर्श मानता हूं, उस समय उसकी इतनी अधिक आवश्यकता न रही हो।
मेरी समस्या यह है किसी देश का कोई भी एक नेता अपने समाज को पूरी तरह सही रास्ते पर नहीं ले जाता और उसे कुछ दूर तक ही आगे बढ़ा पाता है। बाद के नेताओं को उन कमियों को दूर करना चाहिए था जो उनमें से प्रत्येक से पैदा होती जाती। विज्ञान की तरह सामाजिक नेतृत्व एक एक कदम आगे बढ़ता है तभी कोई समाज उन्नति के शिखर पर पहुंच पाता है। इसका प्रयास आरंभिक खलीफों ने किया, और इसमें भारत की बहुत सक्रिय भूमिका थी इसका उल्लेख कर आए हैं। वह आगे नहीं चल पाया, और मोहम्मद साहब और कुरान शरीफ को प्रस्थान बिंदु बनाने की जगह, अंतिम उपलब्धि मानकर बार-बार वही लौटा जाता रहा। इसकी सही मीमांसा मुस्लिम बुद्धिजीवी कर सकते हैं, परंतु उनका पराजयबोध मुस्लिम समाज की एक त्रासद समस्या है।