Post – 2019-04-18

तू जिस जबां में सोचता है उस जबां में लिख।
रौशन हो नजर, धुंध छंटे इस अदा से लिख।।

किसी व्यक्ति, समुदाय, समाज या मजहब का अपमान करने के लिए लिखने वाला, उसका अपमान कर पाए या नहीं, एक व्यक्ति के रूप में, लेखक के रूप में, धर्म और समाज के प्रतिनिधि के रूप में अपना और अपने से जुड़ी हुई हर चीज का अपमान अवश्य करता है। यह एक तरह का आत्मघात है। इस बात को समझाने के प्रयत्न अपने लेखों और टिप्पणियों के माध्यम से मैंने अनेक बार किया है।

ऐसा नहीं लगता मेरे पाठक मुझे समझ पाते हैं अन्यथा उनकी प्रतिक्रियाओं में इसका आभास मिलता। मैं कठोरतम सत्य को निर्ममता पूर्वक कहने का दुस्साहस करता हूं। इसे एक जरूरी लेखकीय कार्यभार मानता हूं। परंतु आहत करने के लिए नहीं, शॉक ट्रीटमेंट देने के लिए।

मेरे अनेक सुधी प्रतीत होने वाले पाठकों का स्तर ऐसा है कि वे निर्मम का अर्थ भी न समझ सकें। निर्मम का अर्थ – निः+मम – अपने पराए के भेदभाव से ऊपर उठकर कोई कार्य या कथन, जिसे हम निःसंगता या वस्तुपरकता कहते हैं। ‘अप्रियस्य च सत्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः’ के नियम से निर्मम का अर्थ कठोर हो गया, जो गलत है फिर भी व्यवहार में आता है।

मैंने अपने कल के लेख में मोहम्मद साहब के नेतृत्व की विफलता का प्रधान कारण यह बताया था अपने समाज में विवेक पैदा करने की जगह, उन्होंने भावावेग के तूफान का सहारा लिया।

यह मेरा गढ़ा हुआ आरोप नहीं है, न ही इसमें मोहम्मद साहब के व्यक्तित्व का अवमूल्यन करने का इरादा है।

मैं जानता था महान लोगों के विषय में आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाने पर इस तरह की संभावना पैदा हो सकती है, इसलिए आरंभ में ही कहा था कि आज तक के इतिहास में कभी कोई ऐसा नेतृत्व किसी समाज को नहीं मिला, जिसे निर्दोष कहा जा सके जबकि मैंने विभिन्न धर्मों के प्रवर्तकों को भी अपने समाज का नेता और अपने समाज को एक नई दिशा देने वाला व्यक्तित्व माना था।

मोहम्मद साहब के बारे में मैंने उक्त टिप्पणी इसलिए की थी की अरबी में कुरान का सस्वर पाठ सुनते हुए कोई व्यक्ति भले वह अरबी न जानता हो, भावाकुल हो जाता है (यह मैं अपने अनुभव के आधार पर कहता हूं)। एक काव्य के रूप में कुरान एक अद्भुत रचना है। अपने समाज को सही दिशा देने की दृष्टि से यह बहुत खतरनाक रचना है क्योंकि अपने समाज को सही दिशा और दृष्टि देने की जगह उसे अंधा बना देती, भावाकुल कर देती है।

मेरे इस आरोप को समझने के लिए मैं कुरान के जिस अनुवाद का सहारा लेता हूं, उसकी छोटी सी भूमिका से कुरान का अनुवाद करने वाले विद्वान सैयद अबुल आला मौदूदी की निम्न पंक्तियों की ओर आपका ध्यान दिलाना चाहता हूंः

“इन पृष्ठों में कुरान के भावानुवाद एवं प्रबोधन की कोशिश की गई है ….

“पहली चीज, जो एक शाब्दिक अनुवाद को पढ़ते समय महसूस होती है, वह इबारत की रवानी, वर्णन-शक्ति, भाषा-लालित्य और वाणी का प्रभाव है। कुरान की पंक्तियों के नीचे आदमी को एक प्राणहीन इबारत मिलती है जिसे पढ़ कर न उसकी आत्मा विभोर होती है, न उसके रोंगटे खड़े होते हैं, न उसके नेत्रों से अश्रुधार बहती है, न उसके भाव लोक में कोई तूफ़ान उठता है, न उसे यह महसूस होता है की कोई चीज बुद्धि एवं विचार वशीभूत करती हुई उतरती चली जा रही है।…

“कुरान की वर्णन शैली लेख की नहीं, भाषण की है।

“कुरान मजीद की हर सूरा वास्तव में एक भाषण थी, जो इस्लामी आह्वान के किसी विशेष चरण अवतरित होती थी। इसकी एक विशेष पृष्ठभूमि होती थी। कुछ विशेष परिस्थितियां उसकी मांग करती थीं और कुछ आवश्यकताएं होती थी जिन्हें पूरा करने के लिए वह उतरती थी।”

अब इसी क्रम में आप पूरे कुरान को पढ़ जाएं, छोटी से छोटी बात में, अल्लाह की नजर आप पर है और वह रहीम और करीम तो इसलिए है क्योंकि उसने यह कायनात बनाकर तुम्हें सौंप दी, परंतु उसके बाद कोई रहम नहीं करता। उसकी नजर तुम्हारे हर छोटे बड़े काम पर है, यहां तक कि इस पर भी अपनी पत्नी के पास कब जाते हो, किस रास्ते जाते हो। वह किसी गुनाह को क्षमा नहीं करता।

यह दहशत कुरान के हर पन्ने पर कई रूपों में कई तरह से लगातार पैदा की जाती है। मुस्लिम समाज की चेतना पर छाया हुआ यह आतंक बना रहे इसके लिए एक ऐसे तंत्र का होना जरूरी था जो इसे बार-बार दोहरा कर अपने समाज को सम्मोहन की ऐसी अवस्था में रखे कि जादू से बेअसर होने का दावा करने वाले भी अपने परिवेश के प्रभाव के कारण इसके असर से बाहर न निकल पाएँ।

मामूली से मामूली एतराज के कारण आप गैर मुसलमानों से ही नहीं मुसलमान होने का दावा करने वालों से भी बैर-विरोध ठान सकें इसी व्यवस्था कुरान में ही है,
[कुछ लोग ऐसे भी हैं क्यों कहते हैं कि हम अल्लाह और अंतिम दिन पर ईमान लाते हैं, हालांकि वास्तव में ईमान वाले नहीं हैं। वे अल्लाह और ईमान वालों के साथ धोखेबाजी कर रहे हैं, मगर वास्तव में वे अपने आप को ही धोखे में डाल रहे हैं और इसे जान नहीं पा रहे हैं। उनके दिलों में एक रोग है जिसे अल्लाह में और अधिक बढ़ा दिया और जो झूठ बोलते हैं उनके फलस्वरूप उनके लिए दुखदाई यातना है। जब कभी उनसे कहा गया धरती में बिगाड़ न पैदा करो तो उन्होंने यही कहा कि “ हम तो सुधार करने वाले हैं” – सावधान, वास्तव में यही लोग बिगाड़ पैदा करते हैं। सूरा अल-बक़रा ]

कोष्ठक में उद्धृत अंश पर ध्यान दें पता चल जाएगा अपनी समझ से काम लेने, मामूली से मामूली असहमति या संशोधन का सुझाव रखने, कठोर पाबंदी से तनिक भी विचलित होने को इतना असंभव बना दिया गया है कि यह फैसला करने वाला भी कोई होना चाहिए कौन सही है कौन गलत।

जो यह कहा जाता है इस्लाम में किसी मध्यस्थ की कोई भूमिका नहीं, वह शायद सही नहीं है। सही गलत का निर्णय करने वाला कोई होना चाहिए। अपने आदेश से खलीफा बैठाने का विधान उसी सूरा में है जिसका हम उल्लेख कर आए हैं।

शिया, सुन्नी, अहमदी, और दूसरे जितने भी संभव मत हो सकते हैं अपने को सही मानते हुए दूसरे को बिगाड़ पैदा करने वाला मानते हुए उसे मिटाने की कोशिश करते रहने वाले क्या कभी चैन से रह सकते हैं? जो स्वयं चैन से नहीं रह सकते उनके कारण जो पर्यावरण निर्मित होगा उसमें कोई चैन से रह पाएगा?

मुसलमानों को एक सामाजिक और राजनीतिक शक्ति बनने के लिए, दूसरों का मोहरा बनने से बचने के लिए, एक दूसरे से जुड़ना होगा , जुड़ने के लिए किताब से बाहर आना होगा, और बाहर आने पर केवल एक ही निकष बचा रहेगा कि आज के समय में, आज की परिस्थितियों में, हमारे समाज को क्या करना चाहिए, कैसे रहना चाहिए, और क्या बनना चाहिए?

इसके अभाव में वे संमोहन से बाहर आ ही नहीं सकते और बाहर आ गए तो उनके दोस्त और दुश्मन की परिभाषा बदल जाएगी।