#मुस्लिम_समाज और #नेतृत्व_का_संकट -5
एक समाज जिसे प्राण वायु की आवश्यकता उसे तूफान खड़ा करके बचाने का प्रयत्न सही नहीं माना जा सकता। ऐसा तूफान उठाने वाला पराक्रमी हो सकता है, समाज का सही नेतृत्व नहीं कर सकता। वह समझ नहीं सकता कि उसका समाज क्या है, उसकी अंतर्निहित शक्तियां और संभावनाएं क्या हैं। वह अपने समाज का अपनी झक के लिए इस्तेमाल कर सकता है परंतु उसका नेतृत्व नहीं कर सकता।
मेरी समझ से, ईश्वर करें कि यह गलत हो, मोहम्मद साहब अपने समाज के आदर्श नेता नहीं सिद्ध होते। उनकी सामाजिक और आध्यात्मिक क्रांति ईसाइयत के दबाव में एक पैनिक रिएक्शन थी जो अपने समाज को ही ले डूबी। यह असुरक्षा और दहशत से आरंभ होकर दहशतगर्दी को सम्मानजनक बनाने की विश्वास धारा में परिणत हो जाती है।
हम ‘इस्लाम खतरे में’ का नारा मामूली से मामूली उकसावे पर, यहां तक कि अकारण भी सुनने के आदी हैं।
इसका ही संशोधित संस्करण अपने को शिष्ट और विशिष्ट समझने वाले लोगों में देखने में आता है।
वे खुद खतरे की कल्पना करते हैं और उस कल्पना में ‘असुरक्षित अनुभव करने’ लगते हैं। अनुभूति के स्तर पर मनोव्याधियों में ऐसा सुनने में आता है, इसलिए ऐसा दावा करने वाले आदमी की अनुभूति को भी संभव माना जा सकता है।
केवल एक अंतर है। ये अभिव्यक्ति के माध्यमों से जुड़े हुए विशिष्ट जन हैं और उनके सामने कुछ राजनीतिक योजनाएं भी हैं, इसलिए ये अनुभव से अधिक इसका प्रचार करने में विश्वास करते हैं।
हम यह नतीजा निकाल सकते हैं कि इस्लाम खतरे में है, मुसलमान खतरे में है, सेकुलर होने का दावा करने के बावजूद, मुसलमान होने के कारण, कुछ मुसलमान भी खतरे में है, और उनके साथ अपनी गुणकारी सहानुभूति के कारण अपने को सेकुलर बताने वाले हिंदू अपने को इन दोनों से इतने अधिक खतरे में अनुभव करते हैं, कि उनकी गुहार पर भारतीय मुसलमानों को अपने खतरे में होने की याद आती है। यह एक कुचक्र या दुष्चक्र है (vicious circle) है।
दुनिया के किसी दूसरे धर्म या समाज में यह नारा कभी न लगा कि हम या हमारा धर्म संकट में है। हिंदुओं को मध्यकाल में कितनी यातनाओं से गुजरना पड़ा, हिंदू समाज के विविध मतों और संप्रदायों को, उनके संस्थानों, आस्था के प्रतीकों, शिक्षा के केंद्रों, पुस्तकालयों, विद्वानों, ग्रंथों और उत्सवों-समारोहों को किन अत्याचारों को सहना पड़ा, इसकी याद दिलाने वालों को अभिव्यक्ति स्वतंत्रता के एकाधिकार के युग में अपमानित होना पड़ता है।
ब्रिटिश शासनकाल में स्थिति उतनी विक्षोभकारी भले न रही हो, ब्रिटिश नीति के कारण हिंदुओं को घोर असुरक्षा के वातावरण में रहना पड़ा, परंतु कभी उन्होंने अपने असुरक्षित होने का नारा नहीं लगाया।
स्वतंत्र भारत में कश्मीरी पंडितों को जिस अपमान और जिन यातनाओं से गुजरना पड़ा उसका इतिहास और भूगोल सबको मालूम है, सिवाय मुसलमानों और निरपेक्षता की चादर ओढ़ने वालों के। बांग्लादेश और पाकिस्तान में उनको जिन यातन ओं का शिकार होते हुए शिफर की ओर जाना पड़ रहा है, उसमें उन्हें कभी किसी ने हिंदुत्व संकट में है, नानक पंथ संकट में है, नारा लगाते हुए न सुना न देखा।
उनके विषय में हमारे जानकारों की जानकारी में कमी नहीं है, वे फासिज्म को आने से रोकने के लिए इतनी ताकत लगा रहे थे कि इस ओर ध्यान देने का अवसर ही नहीं मिला, और उसका खतरा इतना जबरदस्त था कि वह इनके रोकने के कारण ही पैदा हुआ, रोकते-रोकते बढ़ता गया, और इतना बढ़ गया कि पूरी ताकत से
आओ प्यारे भाई आओ
इस संकट को दूर भगाओ
स्वयं बचो
और हमें बचाओ
जुट कर, मिलकर जोर लगाओ
जोर लगाओ हइसा।
को कौमी तराने के रूप में स्वीकार करने के बाववजूद, न ताल मिल रहा है, न लय मिल रही है, न यह विश्वास बचा है कि हमसे कुछ हो सकता है । भाग्यवाद, जो होगा देखा जाएगा, संघबद्ध विसंगत दलों का अंतिम भरोसा रह गया है, जिसमें भाग्यचक्र के फेर से प्रधानमंत्री बनने को तैयार बैठी विभूतियों में से कोई भी प्रधानमंत्री बन सकता है। बिल्लियों का भाग्य छींके के टूटने की प्रतीक्षा में है।
परन्तु मैंने वर्तमान राजनीति पर आने के इरादे से यह आलेख तो आरंभ नहीं किया था। यह तो अपनी विचारप्रक्रिया के सामने मेरी अपनी ही पराजय है। कहना मैं यह चाहता था कि पैनिक रिएक्शन होने के कारण मुहम्मद साहब के मन में, कुरान मजीद में, इस्लामी इतिहास में, मुस्लिम समाज में, मुस्लिम समाज के संपर्क में जीने वालों के मन में एक ही चीज समाई दीखती है- दहशत। इस्लाम अरबी नहीं दहशत की जबान बोलता और समझता है और इसके प्रमाण भी कुरान मजीद में दर्ज हैं, भले बहुत सारी जरूरी बातों की अनदेखी करने के आदी लोगों ने उसे देख कर भी दरगुजर कर दिया हो।