#मुस्लिम_समाज और #नेतृत्व_का_संकट -2
नेता, जैसा कि इस शब्द से ही पता है, समाज को आगे ले जाने का काम करता है। पीछे ले जाने वाले को नेता नहीं कहा जा सकता। किसी समाज को पीछे ले जाना संभव ही नहीं है, फिर भी अतीत के किसी चरण को बीमारियों का इलाज बताते हुए समाज में वहीं वापस जाने या उन्हीं प्रवृत्तियों पर टिके रहने के लिए उकसाया जा सकता है।
यह अपने समाज को वर्तमान चुनौतियों का सामना करने की जगह दफ्न करने का सबसे नायाब तरीका है। मुस्लिम समाज में ऐसा ही नेतृत्व क्यों पैदा होता रहा, इस पर यदि किसी ने गंभीर चिंतन किया हो तो उसका मुझे पता नहीं।
इस्लाम के बारे में मेरी जानकारी संतोषजनक नहीं है। अपर्याप्त जानकारी के बावजूद कुछ बातें इतनी स्पष्ट हैं जिन पर बुद्धिजीवियों की निश्चिंतता मुझे चिंतित भी करती है और अपने अधकचरे विचारों को जाहिर करने के लिए बाध्य भी करती है।
आगे ले जाने का अर्थ है यदि समाज में अतीतोन्मुखता आ गई है, ठहराव आ गया है, वह किसी दुर्दांत प्रतिस्पर्धी का सामना करने में अपने को असमर्थ पा कर आत्मरक्षा के लिए शीतनिद्रा में चला गया है, रूढ़िवादी हो गया है, रूढ़िवादिता के कारण, आत्मरक्षा की चिंता में, नई विकृतियो का शिकार हो गया है तो उसमें आत्मविश्वास पैदा करते हुए उससे बाहर निकालना और उसके भौतिक और विकास की नई दिशाओं की ओर ले जाना।
भारतीय मध्यकाल में अपहरण, बलपूर्वक धर्मातरण के अपमान से अपने को बचाने के लिए राजपूतों में बालिका वध, पराजय की संभावना देखकर स्त्रियों का जौहर और पुरुषों का प्राणोत्सर्ग करने के संकल्प के साथ केसरिया बाने में समर में उतरना, जो आज के चालाक लोगों को मूर्खतापूर्ण आत्महत्या प्रतीत होगा, ऐसी ही विकृतियां थीं।
हिंदू समाज को जिन विकृतियों के लिए दोष दिया जाता रहा है वे उसकी विकृतियां नहीं, सही नेतृत्व के अभाव में प्रतिरक्षा तंत्र का हिस्सा रही हैं।
जिस धर्म की रक्षा की उन्हें इतनी चिंता थी, उस पर आए हुए संकट को देखते हुए सभी राजपूत संगठित होकर उनका प्रतिरोध क्यों नहीं कर सके?
उनका अपना अहंकार उनके धर्म से भी अधिक क्यों हो गया कि न तो अहंकार की रक्षा हो सके न धर्म की। उत्तर एक ही है, पराक्रम, शौर्य और सकल साधनों के होते हुए वे अपनी क्षमता का उपयोग नहीं कर सके।
नेतृत्व के अभाव, विफलता के कई उदाहरण हिंदू समाज के विषय में दे सकता हूं परंतु संप्रति मुस्लिम समाज के नेतृत्व संकट की बात कर रहे हैं इसलिए इसे यहीं विराम देते हैं।
नेतृत्व की भूमिका इकहरी नहीं होती। वह वस्तु साक्षात्कार, इतिहास बोध और दूरदृष्टि का एक अद्भुत विपाक होती है, जिसे सही सही विश्लेषित करने का प्रयत्न उसकी सृजनात्मकता को पंगु करने जैसा होगा।
नेता बिखरे हुए समाज को जोड़ने, ‘एकजुट’ समाज की समग्र ऊर्जा को एकदिश करने, उसे आगे ले जाने, भटके हुए समाज को सही रास्ते पर ले जाने के अनेक काम करता है। यदि भटकाव इतिहास के किसी विशेष चरण पर हुआ हो, तो वह समाज को अपने अतीत के उस चरण की और वापस लौटने की सलाह भी दे सकता है जहां से बढ़ने का निर्णय लिया गया
था। इसे ही सैन्य विज्ञान में बीटिंग रिट्रीट का जाता है। पीछे हटना पीछे जाना नहीं होता, आपदा का निवारण होता है। परियात की भाषा में कहें तो, यह खतरनाक विकल्पों को टालने के लिए क्लच, ब्रेक और बैक गियर की व्यवस्था जैसा होता है।
मुस्लिम समाज में संकट कालीन स्थितियों में, जो अक्सर होती नहीं हैं, स्वयं नेता द्वारा पैदा कर दी जाती है, पीछे हटना, पीछे लौटने और लौटकर उस प्राथमिक चरण पर पहुंचने का पर्याय बन जाता है, जिसके बारे में स्वयं नेताओं को पता नहीं होता कि वास्तव में उसका स्वरूप क्या था।
यदि मैं यह कहूं कि मुस्लिम समाज जो दूसरों को डरावना दिखाई देता है, स्वयं ही एक डरा हुआ, असरक्षा-ग्रंथि से ग्रस्त समाज रहा है, तो हमारे मित्रों को इसे ही पचाने के लिए हाजमोला की गोलियां खानी पड़ेगी, परंतु सच्चाई यही है कि मुस्लिम प्रभुत्व के दौर में भी बादशाह तक अपनी ही संतानों, अपने ही ‘वफादारों’ से डरे रहते थे। जनता अमलों से, सुल्तानों की खब्त से डरी रहती थी, मध्यकाल सर्वव्यापी असुरक्षा और भय का काल था।
नेता के लिए जरूरी है कि वह अपने समाज की समझ रखे। समाज की समझ रखने के लिए उस प्रयोगशालाओं की समझ होनी चाहिए जिसे इतिहास कहा जाता है। दुर्भाग्य से मुस्लिम समाज अपने इतिहास से डरता है और विडंबना यह कि उसी के उत्सबिंदु पर लौटना भी चाहता है।
इतिहास को समझे बिना इतिहास से बाहर निकलना संभव नहीं होता।
वे ही समाज इतिहास की पूजा करते हैं जो इतिहास की समझ नहीं रखते।
मुझे स्वयं भी केवल इतनी जानकारी थी कि अरबी समाज मातृसत्ताक था। उसका चित्रण अनुमान के सहारे कर सकता था। इसलिए मैं एक मुस्लिम बुद्धिजीवी द्वारा प्रस्तुत किए गए उस समाज के चित्र को पहले रखना चाहता हूं, और अपनी अल्पज्ञता स्वीकार करते हुए भी उसकी परीक्षा का अधिकार अपने पास रखना चाहता हूं।
“इस्लाम के आने से पहले अरब और उसके आसपास की परिस्थितियां और संस्कृति कैसी थी, ये सवाल अक्सर लोगों को परेशान करता है. ख़ास तौर से उन्हें जो मुसलमानों और इस्लामिक विद्वानों से हमेशा ये सुनते रहते हैं कि अरब में इस्लाम से पहले चारों ओर अज्ञानता फैली हुई थी. त्राहि-त्राहि मची हुई थी. औरतों की कोई इज़्ज़्त नहीं थी. लोग आपस में लड़ मर रहे थे. सब कुछ अस्त-व्यस्त था एक तरह से. आजकल मौजूद इस्लामिक हदीसों में उस दौर को जाहिलियह कहा गया है. क्या सच में वो दौर इतना ही खराब था? और इस्लाम के आने के बाद सब कुछ रामराज्य जैसा हो गया अरब में?
आज के सऊदी अरब के पश्चिमी हिस्से को पहले हिजाज़ के नाम से जाना जाता था. हिजाज़ क्षेत्र में इस्लाम के दो सबसे पवित्र क्षेत्र मक्का और मदीना बसे हुए थे. मक्का में इस्लाम धर्म का प्रतीक काबा है. मदीना में अल-मस्जिद अन-नबवी स्थित है, जो कि पैगंबर मुहम्मद के दफ़न होने की जगह भी है. मदीना उस समय यसरिब के नाम से जाना जाता था. जब हम इस्लाम और उसके आगमन की बात करते हैं, तो हमारा ध्यान पूरी तरह हिजाज़ पर ही रहता है. क्योंकि यही वो क्षेत्र है, जहां से इस्लाम ने सर उठाया और सारी दुनिया में फैल गया.
इस्लाम के आगमन से पहले भी काबा अरबों की आस्था का मुख्य केंद्र बना हुआ था. काबा अपने शुरुआती दिनों में मक्का में निर्जन पहाड़ियों से घिरी हुई धूल भरी तलहटी में बना था. तब के काबा में और आज के काबा में बहुत अंतर है. पहले काबा आयताकार था, जबकि आजकल क्यूब के आकार का है. कहा जाता है कि उस समय काबा की दीवारें आज के मुकाबले इतनी छोटी होती थीं कि एक बकरी भी छलांग मारकर उसे पार कर सकती थी.
काबा बिना किसी छत के, पत्थरों की चार दीवारों से बना हुआ था. जो कि एक दूसरे के ऊपर फंसाकर रखे गए थे. छत की जगह इसे बड़े से कपड़े से ढका जाता था. जैसा कि आज भी है मगर आजकल छत है. इसमें भीतर प्रवेश करने के लिए दो छोटे दरवाज़े थे.
क्या था काबे के अंदर?
भीतर प्रवेश करने पर अंदर देवताओं और देवियों की मूर्तियां थीं. जिनमें प्रमुख थे अरब देवता हबल, सीरियन चंद्र देवी अल-उज्ज़ा, मिस्र की देवी ईसिस जिसे ग्रीस के लोग Aphrodite के नाम से जानते थे. नबाती देवी कुत्बा के साथ-साथ ईसाईयों के ईसा और मरियम की मूर्तियां भी भीतर थीं.
बाहर की तरफ से काबा तीन सौ साठ देवी-देवताओं की मूर्तियों से घिरा हुआ था. वो अरब के विभिन्न क्षेत्रों के देवी देवता थे. हर अरबी कबीले और कुल का अपना अलग देवता या देवी होती थी. काबा के आसपास अरबियों ने लगभग हर उस देवी देवता को जगह दे रखी थी, जो किसी कुल या कबीले के लिए पूजनीय था.
अरब ऐसा इसलिए करते थे ताकि विभिन्न क्षेत्र, कबीले, कुल और भिन्न भावना के लोगों के लिए भी काबा आस्था का केंद्र बना रहे. धार्मिक महत्व से कहीं ज्यादा, इसका राजनैतिक महत्व था. क्योंकि हर साल हज के लिए लोगों का दूर दराज़ के इलाकों से मक्का आना व्यापारिक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण था.
क्यों थी इतनी मूर्तियां काबे में?
काबा के आसपास तीन सौ साठ मूर्तियों का होना इस बात की ओर इशारा करता है कि अन्य सभ्यताओं की तरह अरब के लोग भी ग्रहों की पूजा करते थे. कैरेन आर्मस्ट्रॉन्ग अपनी किताब ‘Islaam – a short story’ में इस धारणा की पुष्टि करती है. उनके हिसाब से तीन सौ साठ मूर्तियों का होना साल के तीन सौ साठ दिनों की ओर इशारा करता है. और वहां ग्रहों से सम्बंधित देवी-देवताओं का होना इस बात को और मज़बूत करता है.
कहा जाता है कि पहले के समय में काबा के भीतर बीचो-बीच धरती में एक खूंटी गड़ी हुई थी. इसे लोग धरती का केंद्र समझते थे. पुराने समय में काबा में प्रवेश करने के बाद कुछ धार्मिक लोग जोश में आने पर अपने कपड़े फाड़कर अपनी नाभि को उस खूंटी पर टिकाकर लेट जाते थे. इस कर्मकांड के द्वारा वो समझते थे कि उनके शरीर के केंद्र का संबंध अब पृथ्वी के केंद्र से हो गया है और उनका शरीर पूरे ब्रम्हांड के साथ एक हो गया है.
पवित्र महीनों में हज के लिए मक्का में आना और काबा के सात चक्कर लगाना भी खगोलीय पूजा का हिस्सा माना जाता था. ये परिक्रमा उसी तरह थी, जैसे पृथ्वी और अन्य ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं. ये उसी समझ से उपजा कर्मकांड था.
आब-ए-ज़मज़म की दिलचस्प कहानी
काबा के पास ही ज़मज़म का कुआं है. उस बीहड़ इलाके में इस तरह का कुआं होना अपने आप में एक आश्चर्य था. इसलिए बीहड़ रेगिस्तान के उस इलाके में ऐसे कुएं को पवित्र माना जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है. क्योंकि पानी वहां सबसे कीमती चीज़ थी. आज भी है. इसलिए इसके साथ बहुत सारी किवदंतियां जुड़ गईं. इस्लामिक किवदंती कहती है कि एक बार पैगंबर इब्राहिम की पत्नी हाजरा अपने बेटे को इस बीहड़ में छोड़कर पानी की तलाश में इधर उधर दौड़ रही थीं. तभी इस्माईल, जो कि दूध पीते बच्चे थे, के पैरों की रगड़ से धरती से पानी का फव्वारा छूट पड़ा. कुछ किवदंतियां कहती हैं कि एक फ़रिश्ते ने आकर उस कुएं को खोदा. जो कि बाद में ज़मज़म के नाम से जाना गया
इस्लाम के पहले अरब में यौन संबंधों और अभिव्यक्ति की आज़ादी लगभग उसी तरह से थी, जैसे आज विकसित देशों में है. यौन संबंधों के लिए एक से अधिक व्यक्तियों से संबंध की छूट थी. मगर लोग शादीशुदा ज़िंदगी भी उसी तरह जीते थे, जैसे आज जीते हैं. इस्लाम के पहले अरब में वेश्यावृत्ति की आज़ादी थी. इस तरह के यौन संबंधों को किसी पाप की श्रेणी में नहीं रखा जाता था.
इस्लाम के पहले वाले अरब में स्वछन्द और उन्मुक्त वातावरण की बात को हम इस उदाहरण से भी समझ सकते हैं. हज के दौरान लोग काबा की परिक्रमा कम से कम कपड़ों या फिर पूरी तरह से नंगे होकर करते थे. काबा के पवित्र क्षेत्र में प्रवेश से पहले आपको अपनी सभी पुरानी चीज़ों और सामान को बाहर छोड़ना होता था. फिर काबा की परिक्रमा के लिए आपको भीतर ही नया कपड़ा लेना होता था. जो लोग कपड़ा नहीं ले सकते थे, वो नंगे ही काबा की परिक्रमा करते थे. ज़्यादातर लोग नंगे ही परिक्रमा करना पसंद करते थे. हर एक परिक्रमा के बाद स्त्री पुरुष के जोड़े एक दुसरे का चुम्बन लेते थे. ये भी उदाहरण मिलता है कि हज के दौरान लोग यौन संबंध भी स्थापित कर लेते थे. काबा के भीतर भी संभोग करने के इतिहास में उदाहरण मौजूद हैं.
वेश्याएं, जिन्हें अल-बगाया कहा जाता था, अपने टेंट में रहती थीं. जब वो संभोग के लिए तैयार होती थीं, तो अपने टेंट के बाहर एक झंडा लगा देती थीं. जिसे देखकर मर्द उनके पास जाते थे. जब तक झंडा न दिखे, तब तक कोई भी आदमी उनके समीप नहीं जाता था. इसी तरह से शादीशुदा औरतों को भी छूट थी कि वो अपने मर्द के साथ रहना चाहती है या नहीं. कोई शादीशुदा औरत अगर अपने मर्द से तलाक़ लेना चाहती थी तो अपने टेंट का रास्ता बदल देती थी. यानि वो टेंट का मुंह उलटी दिशा में खोल देती थी. जिस से उसका मर्द समझ जाता था कि अब उसकी औरत उसमे उत्सुक नहीं है. ये एक तरह का तलाक़ था, जो औरतें अपने मर्दों को देती थीं. यानि वो टेंट का मुह उलटी दिशा में खोल देती थी. जिस से उसका मर्द समझ जाता था कि अब उसकी औरत उसमे उत्सुक नहीं है. ये एक तरह का तलाक़ था, जो औरतें अपने मर्दों को देती थीं.”
ताबिश सिद्दीकी, ‘इस्लाम का इतिहास’ लल्लन टॉप के लिए
इसकी समीक्षा कल।