Post – 2019-04-12

मुस्लिम समाज और नेतृत्व का संकट

किसी भी समाज को सही नेतृत्व देने वाले युगों के बाद पैदा होते हैं, और वे भी किंचित एकांगी होते हैं, इसलिए मोटे तौर पर नेतृत्व का संकट किसी न किसी रूप में सभी समाजों में और सभी कालों में बना रहता है।

यह संकट ऐसे समाजों में अधिक बढ़ जाता है जिनमें बौद्धिकता की कमी और भावुकता का अतिरेक होता है। ऐसे समाज जिनका आदर्श उनका प्राचीन कबीलाई ढांचा होता है, आत्मरक्षा का उपाय अपने सरदार के इशारे पर बिना आगा-पीछा सोचे, झटपट लामबंद होना होता है।

यह प्रवृत्ति भारतीय गणों में भी रही है, जिनके लिए प्राचीन साहित्य में आशुसेन विशेषण का प्रयोग किया गया है।

यही वह सिरा है जिससे हम मुस्लिम समाज की प्रतिक्रियाओं को समझ सकते हैं जो मजहब के नाम पर उनको एक इशारे पर उत्तेजित करके ऐसी दिशा और दशा में पहुंचा देती हैं जहां से लौटने की संभावना रह नहीं जाती।

इसका दुखद पक्ष यह है कि भावातिरेक के कारण अपने अनुभवों से सीखने का प्रयत्न नहीं किया जाता, किसी गलती के आखिरी मुकाम से सही होने की कोशिश में नई गलतियां करते हुए जहां पहुंच गए उसी पर गर्व और संतोष करने का एकमात्र विकल्प रह जाता है।

मुस्लिम समाज के नेतृत्व की समस्या केवल मुस्लिम समाज के लिए चिंता का कारण नहीं है – वे शायद इसे चिंता की बात मानते भी न हों – अपितु पूरे भारतीय उपमहाद्वीप की चिंता, और कुछ छूट लेकर कहें तो, विश्व मानवता की चिंता का विषय है।

जो समाज सही नेतृत्व पैदा नहीं कर सकता उसे बहकाने वाले उसके भीतर पैदा हो जाते हैं और उसका इस्तेमाल करके दरगुजर करने वाले – अंग्रेजी इबारत में कहें ताे यूज एंड थ्रो आइटम समझने वाले – एक के बाद एक बाहर पैदा हो जाते हैं।

मैं जिस समय ये पंक्तियां लिख रहा हूं, 2019 के चुनाव का पहला चरण बीत चुका है। आज 12 अप्रैल को सुबह एक चैनल की भिंड-मुरैना के डाकुओं की मतदान को प्रभावित करने वाली भूमिका पर एक कहानी देख रहा था जिसमें किसी जमाने के दुर्दांत दस्युओ का साक्षात्कार किया गया था। उनकी मूंछें, उनके तेवर, और कुछ के लगड़ाते हुए लाठी के सहारे चलने के लिए चित्र तो याद है पर नाम याद नही, जितना याद है उसे भी भूलते हुए बात करना चाहत हूं क्योंकि उन्हें हीरो नहीं बनाना चाहता।

वे बता रहे थे जिन दलों के लोग उनको कुछ रियायतें देने की बात करते हुए उन पर हाथ न डालने का वादा करते हुए उनसे सहायता मांगते थे उनको जिता दिया करते थे।

नाम नहीं लेंगे कि वे किन दलों के नेता होते थे। परंतु यह याद दिलाना चाहेंगे कि समाज और राजनीति का अपराधीकरण करते हुए बाहुबलियों के माध्यम से चुनाव प्रक्रिया को अपने अनुकूल बनाने वाले देश का हित नहीं कर रहे थे। अपनी राजनीतिक जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं कर रहे थे। ये वे ही दल थे जो ईवीएम के बाद बौखला उठे थे।

ईवीएम वह कसौटी है जिसकी विश्वसनीयता पर संदेह करने वाले स्वयं यह घोषित कर रहे थे ‘हमें सैद्धांतिक राजनीति नहीं, सत्ता हासिल करना है और लोकतंत्र का इस्तेमाल यूज एंड थ्रो के नियम से करना है।

शाम को शायद उसी या किसी अन्य चैनल पर बैनर लाइन थी ‘ देखें इस बार मुसलमान किसे जिताते हैं।’ और तभी मुझे याद आया कि बाहुबलियों का अपने लिए इस्तेमाल करने वाले दल ही मुसलमानों को मुसलमान वोट बैंक बनाकर उनका इस्तेमाल यूज एंड थ्रो नियम से करते रहे हैं ।

यदि एक ही दिन इन दोनों इबारतों से सामना न हो गया होता, तो मैं उस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचता जिसको उदाहृत करने के लिए इस दृष्टांत का हवाला दे बैठा। और तभी बकरीद का पर्व याद आ गया, जिसमें जतन से पाले गए बकरे 100 बकरों के बराबर बिकते हैं, उनकी बोली लगाने वाले सिक्कों की भाषा में ऐलान करते हैं, इसकी गर्दन मुझे चाहिए, इसकी गर्दन मुझे चाहिए।

सोचता हूं, मुसलमान, दस्यु, बाहुबली, दूसरों के लिए इस्तेमाल क्यों होते रहे? उनके हित के नाम पर उनके पिछड़ेपन का कारोबार क्यों किया जाता रहा और मैं इसका एक ही कारण मानता हूं, और वह है, योग्य नेतृत्व का अभाव जिसमें असरवादियों की फसल गाजर घास की तरह उगती है और अपनी जमीन को ही खा जाती है।