हमें अपनों ने भी कुछ दूर से देखा होगा
धर्म मूल्य व्यवस्था है।
मजहब विश्वास-पद्धति है जो लोक से लेकर परलोक या मरने के बाद की संभावनाओं को अपनी परिधि में समेट लेता है।
इन दोनों मे से किसी के निर्वाह के लिए, मनुष्य का होना जरूरी है।
मनुष्य के मनुष्य बने रहने के लिए जीवन की अल्पतम आवश्यकताओं की पूर्ति अपरिहार्य है।
धर्म का आर्थिक आधार है।
भूखा आदमी धर्म का पालन नहीं कर सकता। भौतिक निर्वाह में अक्षम व्यक्ति बौद्धिक और आध्यात्मिक उत्थान नहीं कर सकता। यह चेतना भारतीय मनीषा में शास्त्रों से लेकर जन विश्वास तक में फैली है। हम इसे कुछ उदाहरणों से स्पष्ट करना चाहेंगे।
न सोमं अप्रता पपे = निर्धन व्यक्ति सोमपान नहीं कर सकता। सोमपान मेरी समझ से मधुविद्या का वह तत्वबोध है जिसमें स्व-पर भेद मिट जाता है। निर्धन व्यक्ति चिंतन और तत्व बोध के इस आधारभूत सत्य से भी वंचित कर दिया जाता है।
क्षीणाः नराः निष्करुणा भवन्ति = जीवन निर्वाह के साधनों से वंचित, मरणासन्न व्यक्ति या समाज निष्करुण होता है।
भूखे भजन न होय गोपाला।
अन्न वै ब्रह्म।
महाभारत के शांतिपर्व में दंड की अनिवार्यता के सन्दर्भ मे ब्राह्मण के लिए दंड स्वरूप फटकार (वाग्दंड), क्षत्रिय के लिए समर्पण, वैश्य के लिए अर्थदंड का विधान है। परंतु शूद्र को निर्दंड कहा गया है (वाचि दंडं ब्राह्मणानां, क्षत्रियस्य भुजीर्पणम्। दानदंडज्ञ स्मृतो वैश्यो निर्दंडो शूद्र उच्यते, महा. 12. 15.9. वह यदि इस स्थिति में ही नहीं है कि कर्तव्य अकर्तव्य का विचार कर सके, फिर उससे अपराध कैसे हो सकता है। वह अपने को जिंदा रखने के लिए कुछ भी कर सकता था।
जिस मनुस्मृति के कतिपय विधानों को लेकर सामाजिक न्याय की राजनीति की जाती है, उसी मे यह विधान है कि जिन अपराधों के लिए ब्राह्मण को सबसे अधिक दंड दिया जाना चाहिए, क्षत्रिय को उससे कम, वैश्य को उससे कम, उसके उसके लिए शुद्र को सबसे कम दंड दिया जाना चाहिए।
मैं इन उदाहरणों को प्रस्तुत करते हुए यह प्रश्न करना चाहता हूं कि इस देश का चिंतन शास्त्र से लेकर लोक व्यवहार तक इतना वस्तुपरक, इतना तर्कसंगत, इतना आधुनिक लगता है कि आधुनिकतम विधान तक उसकी अपेक्षाओं की पूर्ति नहीं करते, उसे अध्यात्मवादी कहने वाले क्या भारतीय संस्कृति के सार तत्व को समझ सके थे। दुनिया का कोई दूसरा देश इतना वैज्ञानिक, इतना भौतिकवादी, सामाजिक न्याय के प्रति इतना समर्पित दिखाई देता है क्या?