झूठ का सच
यशपाल जी ने भारत विभाजन पर लिखे अपने उपन्यास को झूठा सच का शीर्षक दिया था। भारत स्वतंत्र हुआ या टुकड़े टुकड़े हुआ? जो लोग यातना, अपमान, हिंसा के शिकार हुए, या अपना घर छोड़ने को मजबूर हुए उनके लिए, स्वतंत्रता का क्या अर्थ था? देश स्वतंत्र हुआ या सत्ता एक से दूसरे को मिली?
फिर भी कुछ ऐसा तो था ही जिसका जश्न मनाया जा रहा था, और जिसके होने से बहुत कुछ हुआ जिस पर हम गर्व कर सकते हैं।
कुछ चीजें गलत होकर इसलिए भी सही होती हैं क्योंकि उनके हो जाने के बाद विकल्प रह ही नहीं जाता। जो हुआ वही हो सकता था, और जो है वही सच है।
स्वतंत्रता के बाद कांग्रसी होने का तमगा खादी कपड़ा, गांधी टोपी रातों रात कितने लोगों ने पहली बार पहने थे, यह इतिहास का सबसे उल्लेखनीय कार्य व्यापार था जो इतिहास में कहीं दर्ज नहीं है। कांग्रेस की सदस्यता की चवन्नी की पर्ची किन किन दरों पर बिकी थी यह कहीं दर्ज नहीं हैं
चोला बदलने वाले ये लोग आजादी के संग्राम में शामिल होने के सबूत जुटा कर, देश शिकारी के पंजे से मुक्त हुए देश की अपने हिस्से की बोटी की मांग करने वाले लोग थे। आजादी की रक्षा करने वाले लोग नहीं।
जो जितना ही नकली था वह उतनी ही अकड़ से अपने को गांधीवादी सिद्ध करने के तेवर दिखा रहा था।
उसके बाद भ्रष्टाचार का, काला बाजार का, कामचोरी का, रिश्तवखोरी का, बिना टिकट यात्रा का, मिलावट का और सब से ऊपर भाई-भतीजा-वाद का मिलाजुला जो सैलाब आया था, उसका जिक्र इतिहास की किताबों में नहीं मिलेगा। दुर्भाग्य से इसमें देश के प्रथम कर्णधार भी शामिल थे।
गांधी जी के, कांग्रेस को समाप्त करने के विचार के पीछे, यही यथार्थ था जिसमें स्वतंत्रता का अर्थ मनचलापन, और कांग्रेस का अर्थ भ्रष्टाचार की भागीरथी हो गया था।
यूं तो गांधी जी के इस इरादे का भी उल्लेख इतिहास के विरल प्रसंगों में ही मिलेगा, परंतु उसकी पृष्ठभूमि का जिक्र उन प्रसंगों और व्याख्याओं में भी नहीं मिलेगा।
मैंने इसे अपने जीवन के सबसे संवेदनशील दौर – किशोरावस्था – में न देखा होता, तो इतने विश्वास के साथ, इतिहास की किताबों को रौंदते हुए, अपना सच कहने का साहस न जुटा पाता और उससे उत्पन्न वितृष्णा को अपनी पूँजी बनाकर अपने जीवन की अपनी शर्तें न तय की होतीं तो अपने बुद्धिजीवी बंधुओं के अवसर वादी मिजाज को, उसे छुपाने की सात परतों के बाद भी पहचान कर उससे विद्रोह न कर पाता।
जिन्हें अपनी बोटी चाहिए थी, वे गांधीवादी बनकर, गांधीवाद से आगे का रास्ता चुनकर, खादी को भी धता बताकर, गांधी का उपनाम अपने खाते में डाल कर, अपने जैसों के सहयोग से स्वतंत्र भारत के एकाधिकारी बने रहे। लोकतंत्रिक मुखोटे की बाध्यता के कारण दूसरे दलों को अवसर मिला तो षडयंत्र, उपद्रव, देशद्रोह, सभी तरीकों का इस्तेमाल करते हुए उन्हें विफल करने में सफल रहे।
इतिहास में कभी सत्य की जीत नहीं हुई फिर भी सत्य कभी हारता नहीं है। कभी, कहीं निखोट मिलता नहीं है। सच कहें तो, झूठ का भी अपना सच होता है। सच की भाषा अभिधा है, झूठ की अपह्नुति। सत्य की गति ऋजु होती है, झूठ के विषय में तुलसीदास ने कहा था, “चलइ जोंक जिमि वक्र गति”। सत्य का आधार है, स्वधा, आत्मबल, अपने पसीने की कमाई से संतोष और उससे अधिक की कामना तक न करना है। झूठ का स्रोत है परदोहन, श्रम और योग्यता से अधिक पाने की आकांक्षा और उसे पाने के लिए अपनाए जाने वाले गलत तरीके और परिणति है उन गर्हित तरीकों से उत्पन्न ग्लानि से बचने के लिए उन्हें महिमामंडित करने के प्रयत्न।
विधि है सच को छिपाने का प्रयत्न है, और इस प्रयत्न से इस बात की पुष्टि होती है कि जो दीखता है वह दिखावा है, सच कुछ और है, और पुष्टि होती है उस व्यक्ति के चरित्र की भी जो झूठ का सहारा लेता है। झूठ और सच अंधेरे और प्रकाश की तरह हैं ।
पुराने लोग झूठ को पाप, और इसके कारण को लोभ मानते थेः
एको लोभो महाग्राहो, लोभात् पापं प्रवर्तते। शांति पर्व 152.2
और अपने ढंग से समझाते थेः
नास्ति सत्यात्परो धर्मो नानृतात्पातको परं। वही, 156-24
झूठ को, यह जानते हुए भी, कि यह झूठ है, सच मान लेने, या इस दुविधा में पड़ जाने की विवशता को क्या कहेंगे कि संभव है यह सच हो जाए? लोभ का चश्मा – ‘दिए लोभ चसमा चखनि लघु पुनि बड़ो दिखाय।’ युगानुभव के साथ सत्यबोध भी बदलता है और उसे व्यक्त करने से मुहावरे भी। हम रहीम को सुधारते हुए कह सकते हैंः ‘दिए लोभ चसमा चखनि गर्हित खरो दिखाय।’